जीवन के मौलिक सिद्धांतों और उपयोगिताओं को समझना ही दर्शन है
परमात्मा चित स्वतंत्र और मौन है। कोई जीव पराधीनता नहीं चाहता। उसमें यह भाव कहां से आ रहा है? इसलिए परमात्मा चित स्वरूप हैं। चित सदा शांत और मौन दृष्टा है। अतः जिसने कभी किसी के चित की शांति को स्वार्थ या अहंकार के वशीभूत होकर बाधित नहीं किया है, उसकी शांति प्रत्येक स्थिति में रहेगी।

Jeevan Darshan: परमात्मा चित स्वरूप हैं
आचार्य नारायण दास (श्रीभरतमिलाप आश्रम, ऋषिकेश)। महर्षि वेदव्यास की संरचना श्रीमद्भागवत महापुराण सनातन भारतीय संस्कृति और सांस्कृतिक मूल्यों को प्रकाशित करने वाला एक ऐसा सद्ग्रंथ है, जिसमें जीवन-दर्शन और जीवन-प्रबंधन के अनेक सिद्धांत और दृष्टांत भगवत्कथाओं के माध्यम से गुंफित हैं। श्रीमद्भागवत महापुराण में कुल 12 स्कंध हैं, जिनके अंतर्गत 18 हजार श्लोक हैं। इनमें सृष्टिकर्मविज्ञान, वेदप्रणीत ज्ञान-विज्ञान, भक्ति-वैराग्य और भगवान के अवतारों तथा उनके भक्तों की मधुर कथाएं वर्णित हैं। इनके पठन-पाठन और श्रवणादि से मानव को इसका सहज ज्ञान हो जाता है कि समाज में जीवन कैसे जीना चाहिए।
सत्संग की विमुखता से आज व्यक्ति केवल भौतिक संसाधनों के अवलंबन से सांसारिक नश्वर सुखों की प्राप्ति और उसे भोगने को ही अपना परम पुरुषार्थ मान बैठा है। उपभोक्तावादी संस्कृति को अपनाने में विवेकशून्य होकर, मृगतृष्णा की सूक्ति को चरितार्थ कर रहा है। कलिकाल के प्रभाव से वह केवल अपने परिवार तक ही सीमित और कुंठित हो गया है। राष्ट्रगौरव, देशभक्ति, परोपकार और त्याग जैसे मानवीय मानबिंदुओं की अवहेलना कर आध्यात्मिक जीवन को अर्थविहीन और निरुपयोगी मान बैठा है। ऐसे में यदि श्रीमद्भागवतमहापुराण अवलंबन लिया जाए, तो निश्चित ही जीवन सुखमय और लोकोपकारी हो जाएगा।
दर्शन शब्द का भावार्थ है- दृश्यते अनेनेति दर्शनम्। अर्थात जिसके द्वारा देखा और समझा जाता है, उसे दर्शन कहते हैं। अब यहां प्रश्न उठता है कि क्या देखा जाता है? यहां देखने से तात्पर्य है किसी भी व्यक्ति, वस्तु और विचारादि के मूल स्वरूप और उसके महत्व को भलीभांति जान-समझ लेना। जीवन के मौलिक सिद्धांतों और उपयोगिताओं को समझकर आत्मसात करना ही दर्शन है, जिससे अपना और दूसरों का जीवन सार्थक और उद्देश्यपूर्ण हो सके।
श्रीमद्भागवतमहापुराण के माहात्म्य का प्रथम श्लोक हमें जीने की कला का बोधत्व प्रदान कर रहा है :
सच्चिदानंदरूपाय विश्वोत्पत्यादिहेतवे।
तापत्रयविनाशाय श्रीकृष्णाय वयं नुमः।।
अर्थात परमात्मा सत स्वरूप, चित स्वरूप और आनंद स्वरूप हैं तथा इस विश्व की उत्पत्ति, पालन और लय के हेतु हैं, जो तीनों प्रकार के ताप का शमन करने वाले हैं, उन अनंतकोटि ब्रह्मांडनायक भगवान श्रीकृष्ण को हम सब नमन करते हैं। परमात्मा के तीन नाम हैं- सत, चित और आनंद। परमात्मा सत स्वरूप हैं- सत का कभी नाश नहीं होता है। कोई जीव मरना नहीं चाहता है, उसमें यह भाव कैसे आ रहा है? इसलिए भगवान सत स्वरूप हैं। जिसके जीवन में सत रहता है, उसका कभी पतन नहीं होता है। जो व्यक्ति किसी के सन्मार्ग को बाधित नहीं करता, उसके सत का दोहन नहीं करता, उसका जीवन सत स्वरूप परमात्मा की कृपा से सदा संरक्षित और संवर्धित होता रहता है।
परमात्मा चित स्वरूप हैं। चित स्वतंत्र और मौन है। कोई जीव पराधीनता नहीं चाहता। उसमें यह भाव कहां से आ रहा है? इसलिए परमात्मा चित स्वरूप हैं। चित सदा शांत और मौन दृष्टा है। अतः जिसने कभी किसी के चित की शांति को स्वार्थ या अहंकार के वशीभूत होकर बाधित नहीं किया है, उसकी शांति प्रत्येक स्थिति में रहेगी।
परमात्मा आनंद स्वरूप हैं। कोई भी जीव दुखी होना नहीं चाहता है। उसमें यह भाव कहां से आ रहा है? अतः परमात्मा आनंदस्वरूप है। आनंद सदा सबके साथ है, किंतु व्यक्ति आनंद या सुख ढूंढ़ता है भौतिक भोगपदार्थों में, जहां विषयानंद है, जो कि क्षणिक और नश्वर है। जिसने कभी किसी के सुख का अपहरण नहीं किया है, वह परमात्मा के आनंद स्वरूप का रसास्वादन करता है। जीव-जगत के प्रणेता और नियंता भगवान हैं, जो व्यक्ति भगवान की ओर उन्मुख हो जाता है, उसका जीवन धन्य हो जाता है।
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