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    नवधा भक्ति: भगवान के चरणों में लीन होने से मोह माया से मिलती है मुक्ति

    गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस के हर कांड में रति शब्द का प्रयोग किया है। जब भक्त भगवान के चरणों में रत होता है तो सांसारिक प्रपंचों से विरति सहज ही हो जाती है। रामकथा प्रसंग सुनते समय जब तक व्यक्ति में भगवान के प्रति महत्वबुद्धि नहीं होगी तब तक वह न तो उसमें रस ले पाएगा और ना ही उसे कथा से लाभ मिल सकेगा।

    By Jagran News Edited By: Kaushik Sharma Updated: Mon, 20 May 2024 05:15 PM (IST)
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    नवधा भक्ति: भगवान के चरणों में लीन होने से मोह माया से मिलती है मुक्ति

    स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन): जब भगवान के चरणों में रति होती है, तब उनमें ही सारे संबंधों की पूर्णता लगती है। ईश्वर में रति होने से हमारा वह भाव व्यापक, सर्वत्र और हर स्थान पर समान होता है। श्रीरामचरितमानस में रति शब्द ज्ञानी, भक्त और कर्मयोगियों का प्राण है। भगवान ने रति को भक्ति का दूसरा सोपान कहा है। भगवान श्रीराम का भक्तिमती शबरी से सत्संग वार्ता में उपदेशित नवधा भक्ति के दूसरे प्रकार रति का तात्विक विवेचन...

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    गोस्वामी तुलसीदास जी ने श्रीरामचरितमानस के हर कांड में रति शब्द का प्रयोग किया है। जब भक्त भगवान के चरणों में रत होता है तो सांसारिक प्रपंचों से विरति सहज ही हो जाती है। रामकथा प्रसंग सुनते समय जब तक व्यक्ति में भगवान के प्रति महत्वबुद्धि नहीं होगी, तब तक वह न तो उसमें रस ले पाएगा और ना ही उसे कथा से लाभ मिल सकेगा। भक्ति, भक्त, भगवंत और गुरु के संदर्भ में रति शब्द ही प्राण है। श्रीभरत जी ने अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष (पुरुषार्थ के चारों फलों) का परित्याग कर दिया, पर भगवान के चरणों में रति रहे, यह याचना की :

    अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउं निरबान।

    जनम जनम रति राम पद यह बरदान न आन।।

    श्री लक्ष्मण को भी बाल्यकाल से ही भगवान के चरणों में रति हो गई :

    बारेहि ते निज पति हित जानी।

    लछिमन राम चरन रति मानी।।

    माता सुमित्रा ने भी वन जाते समय अपने पुत्र लक्ष्मण को भगवान के चरणों में रति का ही आशीर्वाद देकर विदा किया। उन्होंने कहा, हे प्रिय लक्ष्मण, मैं तुझे वरदान देती हूं कि तेरे हृदय में श्रीसीताराम जी के चरणों में नित्य नई रति उत्पन्न होती रहे। संसार में बहुधा देखा जाता है कि यदि अधिक सामीप्य हो जाए तो परस्पर उतना प्रेम नहीं रह जाता है, पर जब निरंतर पाई हुई वस्तु को और अधिक पाने की इच्छा बनी रहे तो भक्ति शास्त्र में उसी को रति कहते हैं :

    छिन छिन लखि सिय राम पद जानि आपु पर नेह।

    करत न सपनेहु लखन चित बंधु मातु पितु गेह।।

    14 वर्ष तक निरंतर सेवा में साथ रहने पर भी बार-बार भगवान के चरणों को देखने की इच्छा के कारण ही लक्ष्मण को भाई, माता-पिता, सगे संबंधियों आदि की विस्मृति हो गई। इस विस्मृति में किसी संबंध की अवहेलना नहीं है, अपितु रति की पराकाष्ठा है। जब भगवान के चरणों में रति होती है, तब उनमें ही सारे संबंधों की पूर्णता लगती है। संसार के संबंधों में किसी एक के प्रति अधिक तथा दूसरे के प्रति न्यूनता का भाव होने के कारण विमलता नहीं रह जाती है, कुंठा का मल जा जाता है।

    इस प्रकार होता है धर्म का पालन

    ईश्वर में रति होने से हमारा वह भाव व्यापक, सर्वत्र और हर स्थान पर समान होता है। वृक्ष के मूल में जल दिया जाता है जो हर पत्ते को मिल जाता है। इसी प्रकार भगवान से संबंध में सारे संबंधों के धर्म का पालन हो जाता है। जहां भी कथा होगी, वहां व्यथा का अभाव हो जाता है। समय, व्यक्ति, स्थान की सहज ही विस्मृति हो जाती है। विस्मृति का यही स्वरूप भगवान में रति है, जिसकी चर्चा दूसरी भक्ति के रूप में भगवान शबरी के समक्ष कर रहे हैं।

    अयोध्या में जब भगवान कौशल्या जी की गोद में आ गए, माता बालक राम का नित्य शृंगार करती हैं, पालना झुलाकर पुत्रप्रेम के अनंत आनंद में डूबी रहती हैं, तब गोस्वामी तुलसीदास जी ने भगवान के सर्वांग बालरूप का वर्णन किया है। तब शंकर जी अचानक पार्वती जी से भगवान के चरणों में उसी रति की बात कहते हुए बोले :

    जिन्ह रघुनाथ चरन रति मानी।

    तिन्ह की यह गति प्रगट बखानी।।

    हे पार्वती, ये वही दशरथ और कौशल्या हैं, जिन्होंने पूर्व जन्म में मनु-सतरूपा के रूप में भगवान के चरणों में रति मांगी थी। कथा सुनते-सुनते भक्त के हृदय में भगवान को पाने की इच्छा उत्पन्न हो जाए, वही कथा का फल है। वही रति है।

    भगवान के चरणों में रति होने से मिलते हैं ये लाभ

    भक्त भगवान से अपने सत्कर्म और अनुष्ठानों के बदले केवल एक ही वस्तु मांगता है और उसे सब मिल जाता है। सारे साधनों का फल है कि भगवान के चरणों में रति हो जाए। इससे सबसे बड़ा लाभ यह होता है कि साधक को संसार से विरति के लिए विरति विषयक कोई अनुष्ठान करने की आवश्यकता नहीं रहती। गंगाजल को किस जल से पवित्र किया जाएगा? उसी प्रकार भगवान मिल गए, तो सब मिल गया :

    सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ ।

    तिन्ह के मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ।।

    संसार में यदि कोई यह न समझ कर भगवान को न मानकर मोह विमूढ़ और धर्म विमुख हो रहा है तो शंकर जी ने कहा कि वे सब लोग इस भव कूप में जाकर अंधकार को प्राप्त होते हैं, पर जो लोग ज्ञानी हैं, भक्त हैं भगवान के स्वरूप को जान चुके हैं वे लोग बिना प्रयास के ही रति पा लेते हैं और सहज कृपालु श्रीराम उनको विरति प्रदान करते हैं :

    उमा राम गुन गूढ़ पंडित मुनि पावहिं बिरति।

    पावहिं मोह बिमूढ़ हे हरि बिमुख न धर्म रति।।

    भगवान जब लंका का युद्ध पूर्ण कर अयोध्या आए तो सुमित्रा ने अपने पुत्र लक्ष्मण को गले लगा लिया। केवल पुत्र मानकर नहीं, बल्कि उनके मन में यह भाव आया कि मेरा पुत्र आज धन्य हो गया, क्योंकि इसके जीवन में राम के प्रति प्रेम है, राम में रति है :

    भेटेउ तनय सुमित्रां राम चरन रति जानि।

    श्रीरामचरितमानस के ज्ञान घाट के आचार्य काकभुशुंडि भी अयोध्या में भगवान की बाल क्रीड़ाओं को देखकर उनकी मधुर लीला में डूब गए। तब वे कहते हैं कि यह मेरा स्वयं का अनुभव है कि :

    राम चरन नूतन रति भई। माया जनित बिपति सब गई।।

    भगवान के चरणों में नए प्रकार की भक्ति हो गई। संसार से माया जनित जो विपत्ति थी, वह बिना प्रयास चली गई।

    अंत में शंकर जी ने कहा, अरे भाई! संसार के सामान्य प्राणियों की तो बात छोड़ दो, जो जीवनमुक्त महापुरुष अर्थात तत्वज्ञ हैं, वे अपनी साधना छोड़कर भगवान की कथा सुनते हैं, क्योंकि उन्हें भगवान की कथा में रति होती है। जिनके जीवन में इसका अभाव है, उनका हृदय पत्थरों का ढेर मात्र है :

    जीवन मुक्त ब्रह्मपर चरित सुनहिं तजि ध्यान।

    जे हरि कथां न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषण।।

    भगवान राम ने शबरी जी के समक्ष अपनी इसी रतियुक्त भक्ति को दूसरी भक्ति बताया।

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