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    Arya Samaj: कब और क्यों स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज की स्थापना की? जानें महत्वपूर्ण बातें

    By Jagran News Edited By: Pravin Kumar
    Updated: Sun, 06 Apr 2025 01:53 PM (IST)

    अपनी स्थापना के 150 वर्षों में आर्य समाज ने राष्ट्र के स्वाधीनता और निर्माण में अतुलनीय योगदान दिया। क्रांतिदर्शी स्वामी दयानंद द्वारा रचित क्रांतिकारियों की गीता के नाम से विख्यात अमर ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को पढ़ कर कितने ही स्वाधीनता के दीवानों ने अपना सर्वस्व स्वाधीनता संग्राम के महायज्ञ में आहूत कर दिया। स्वराज का प्रथम उद्घोष स्वामी दयानंद ने ही दिया था।

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    Arya Samaj: आर्य समाज ने दहेज प्रथा और बाल विवाह का विरोध किया

    धर्म डेस्क, नई दिल्ली। स्वामी दयानंद सरस्वती ने 10 अप्रैल 1875 (चैत्र शुक्ल पंचमी, विक्रम संवत् 1932) को वैदिक ज्ञान के प्रकाश में समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने के लिए आर्य समाज की स्थापना की थी। आइए, अधिवक्ता एवं शिक्षाविद् नरेन्द्र आहूजा विवेक जी से आर्य समाज की स्थापना और उद्धेश्य के बारे में सबकुछ जानते हैं-

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    ॐ इन्द्रं वर्धनतो अप्तुरः कृण्वंतो विश्वमार्यम्।

    अपघ्नंतो अरव्नः

    (ऋग्वेद-9/63/5)

    अर्थात, मनुष्य को अपने अंदर से दुख और बुराइयों की प्रवृत्ति को हटाकर ‘इंद्र’ अर्थात आत्मा, समृद्धि और अच्छे कर्मों को बढ़ाना चाहिए। इससे न केवल हमारा अपना जीवन बेहतर होता है, बल्कि दूसरों की भलाई में भी योगदान मिलता है।

    यही मुख्य कारण था कि स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्य समाज के लिए ‘कृण्वंतो विश्वमार्यम्’ को आदर्श वाक्य घोषित किया। यहां आर्य शब्द का तात्पर्य किसी विशेष जाति, मत या पंथ से नहीं है, बल्कि इसका अर्थ है एक गुणी व्यक्ति। जैसा कि कहा गया है:

    कर्त्तव्यमनाचरण कर्म, अकृतव्यमनाचरण।

    विष्ठति प्रकृतिचारे ये स आर्य स्मृतिः

    (वसिष्ठ स्मृति)

    अर्थात् जो व्यक्ति केवल प्रशंसनीय कार्य करता है, परंपराओं को उच्च सम्मान देता है और उनका पालन करता है। हानिकारक आदतों और कार्यों को नहीं अपनाता बल्कि उनसे दूर रहता है तथा स्वभाव से ही दयालु होता है, उसे ही आर्य कहा जाता है।

    सामाजिक समरसता को बल

    ‘मनुष्य एक जाति’ का सिद्धांत और वेदों में ‘कर्मणा वर्ण व्यवस्था’ को स्थापित करते हुए आर्य समाज ने सामाजिक समरसता को बल देकर जाति व्यवस्था को विघटनकारी और देश की गुलामी का कारण बताया।

    कर्मणा वर्ण व्यवस्था को स्वीकार करते हुए आर्य समाज ने कितने ही दलितों को अपने गुरुकुलों में शिक्षा देते हुए विद्वान बनाकर पुरोहितों के रूप में सम्मानित करके दलितोद्धार किया।

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    दलितों के साथ रोटी-बेटी का संबंध बनाया। यही नहीं, आर्य समाज ने क्रूर औरंगजेब द्वारा तलवार के बल पर धर्म परिवर्तित करके मुसलमान बनाए गए लोगों की घर वापसी का रास्ता शुद्धिकरण के माध्यम से सुनिश्चित किया।

    इसके सदस्यों ने दिल्ली के आसपास के क्षेत्र विशेषकर मेवात में सामूहिक यज्ञ के माध्यम से घर वापसी करवाई और इसके लिए अपना जीवन तक बलिदान किया।

    भाषा-संस्कृति का पुनर्जागरण

    लंबे समय तक गुलाम रहने के कारण विदेशी संस्कृतियों के प्रभाव में आकर हमारा राष्ट्र अपनी पुरातन-सनातन वैदिक संस्कृति की जड़ों से कट चुका था। बड़े से बड़ा वटवृक्ष भी जब अपनी जड़ों से कट जाता है तो सूखकर ठूंठ बन जाता है और गिर पड़ता है।

    आर्य समाज ने सनातन संस्कृति को सत्य वैदिक सिद्धांतों से जोड़ने का महत्वपूर्ण कार्य किया। देव भाषा संस्कृत का संरक्षण और वेदों का सही विशुद्ध हिन्दी भाष्य आर्य समाज की ही देन है।

    जन-जन की भाषा हिंदी का प्रचार-प्रसार करने का महत्वपूर्ण कार्य स्वामी दयानंद और अन्य आर्य विद्वानों द्वारा किया गया। एक तरफ तो आर्य समाज ने यज्ञ तथा योग की जीवन शैली को बढ़ावा देकर स्वस्थ भारत की परिकल्पना दी।

    वहीं भारतीय ग्रामीण अर्थव्यवस्था की आधार गौ के संरक्षण की बात स्वामी दयानंद ने सर्वप्रथम अपनी पुस्तक ‘गौ करुणानिधि’ में लिखी और गौशालाओं का निर्माण करवाया। इसी प्रकार आर्य समाज के स्वामी श्रद्धानंद ने अपना सर्वस्व त्याग करते हुए गुरुकुलीय शिक्षा प्रणाली को पुनः स्थापित किया।

    कुरीतियों के विरुद्ध कानून

    देश की आधी आबादी अर्थात नारियों को पढ़ने विशेष रूप से वेद आदि शास्त्रों को पढ़ने से वंचित कर दिया गया था। नारी शिक्षा की वकालत करते हुए और नारी शिक्षा प्रारंभ करते हुए आर्य समाज ने नारियों को उनका पुराना गौरव प्रदान करवाया।

    आर्य समाज ने दहेज प्रथा, सती प्रथा, बाल विवाह, कन्या भ्रूण हत्या जैसी नारी विरोधी बुराइयों का विरोध किया। आर्य समाज के कारण ही इनके विरोध में क़ानून बने।

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    उदाहरणस्वरूप शारदा अधिनियम 28 सितंबर 1929 को ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित किया गया था, जिसका उद्देश्य बाल विवाह को रोकना था। यह अधिनियम हरविलास शारदा, जो आर्य समाज के सदस्य थे, के प्रयासों का परिणाम था!

    क्रांति को शास्त्र का संबल

    अपनी स्थापना के 150 वर्षों में आर्य समाज ने राष्ट्र के स्वाधीनता और निर्माण में अतुलनीय योगदान दिया। क्रांतिदर्शी स्वामी दयानंद द्वारा रचित क्रांतिकारियों की गीता के नाम से विख्यात अमर ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ को पढ़ कर कितने ही स्वाधीनता के दीवानों ने अपना सर्वस्व स्वाधीनता संग्राम के महायज्ञ में आहूत कर दिया।

    इतिहासकारों को स्वीकार करना पड़ा कि स्वाधीनता संग्राम में 80 प्रतिशत क्रांतिकारी स्वामी दयानंद के आर्य सिद्धांतों से प्रभावित थे। स्वराज का प्रथम उद्घोष स्वामी दयानंद ने ही दिया था।

    स्वदेशी राज्य को सर्वोत्तम- सर्वोपरि बताकर उन्होंने स्वाधीनता संग्राम में शास्त्र का संबल देकर इस संग्राम को बल दिया था। स्वामी दयानंद ने जीवनपर्यंत केवल स्वदेशी का ही प्रयोग किया और आर्य समाज ने इस सिद्धांत को अपना कर विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया।