Sita Navami 2025: जीवन में जरूर अपनाएं भगवान श्रीराम के ये गुण, कोई नहीं रोक पाएगा आपकी सफलता
यद्ध का आधार केवल अहंकार होता है। आज वैज्ञानिक प्रचार-प्रसार ने उस वैमनस्यता को और भी सुलगा दिया है। किसी को इतना विवेक नहीं है कि क्या संसार का कोई ऐसा धर्म है जो अपना पानी अपनी वायु अपना आकाश अपना सूर्य-चंद्र और अपनी पृथ्वी लेकर पैदा हुआ हो? सारा संसार सारी प्रकृति एक अद्वैत पर आधारित है।
स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। यद्ध का आधार मात्र अहंकार होता है। आज वैज्ञानिक प्रचार-प्रसार ने वैमनस्यता को और भी सुलगा दिया है। किसी को यह विवेक नहीं है कि क्या संसार का कोई ऐसा धर्म है, जो अपना पानी, अपनी वायु, अपना आकाश, अपना सूर्य-चंद्र और अपनी पृथ्वी लेकर पैदा हुआ हो? सारा संसार, सारी प्रकृति एक अद्वैत ईश्वर पर आधारित है, जिसने करुणा के प्रसार के लिए रूप धारण किया और कृपा की...
ब्रह्म निरूपन धरम बिधि बरनहिं तत्व बिभाग।
कहहिं भगति भगवंत कै संजुत ग्यान बिराग॥
ब्रह्म के निरूपण, धर्म के विधान और तत्व विभाग को समझना आवश्यक है। वैराग्ययुक्त भक्ति करने से हम संसार में लिप्त नहीं होते हैं। यही है ब्रह्म का निरूपण, धर्म का विधान तथा तत्व का निरूपण। प्रयागराज त्रिवेणी तट पर महर्षि भरद्वाज इसी त्रिपुटी के आचार्य हैं। जीवन में भक्ति की गंगा, कर्म की त्रिवेणी और ज्ञान की सरस्वती की आवश्यकता है। सारा विश्व लक्ष्मण-रेखा को लांघ रहा है। दूसरे की शांति-सीता का, लक्ष्मी-सीता का, शक्ति-सीता का हरण ही रावणत्व की पहचान है, जिसके लिए लक्ष्मण की बनाई हुई रेखा को पार करना अपने विनाश को जन्म देने जैसा है।
दूसरे की सीमा में घुसना और वहां जाकर अपने अहंकार की स्थापना ही सबका परम लक्ष्य हो गया है। रावण और रावणत्व का अंत निश्चित होता है। परिवार में, जातियों में, देशों और व्यक्तियों में यह रावणत्व परिव्याप्त हो गया है। विवेक का स्थान विज्ञान ने ले लिया है। लगता है मनुष्य और सृष्टि की आयु को अब विज्ञान तय करेगा। विज्ञान अब विकारयुक्त होता जा रहा है। ज्ञान का अभाव उसकी विकृत लक्षणा से अनुभव हो रहा है। ज्ञान देवत्व की प्रधानता है और विज्ञान में दैत्यत्व का वर्चस्व है। अवगुण जिसके आधार पर खड़े होकर अपनी शक्ति को स्थापित करना चाहते हैं, वह चाहे द्वापर में कर्ण के रूप में हो या फिर त्रेतायुग में मेघनाद के रूप में, विजय पताका तो ईश्वर के भक्त विभीषण और अर्जुन की ही फहराएगी।
शोध और सृजन का आधारभूत प्राणतत्व प्राणीमात्र का हित होना चाहिए। व्यक्ति जब विवेकहीन हो जाता है, तब वह बाढ़ वाली नदी बन जाता है, जो संहार करती है। विवेकयुक्त प्रवाह का प्रवहमान रहना समाज की आवश्यकता भी है और आदर्श भी। बाढ़ और आंधी कभी आवश्यकता नहीं, हमेशा लाचारी होती है। शोध का विषय जब वेद होंगे तो उस मंथन में अमृत प्रकट होगा और संसार के कार्य-कारण में सब लोग एक-दूसरे के अहंकार का मंथन करेंगे तो विनाश जन्म लेगा। जो जातियां दूसरी जाति को मिटा देना चाहती हैं, वे स्वयं से या अपने ईश्वर से पूछें कि जहां पर केवल आप लोग हैं, धर्म-जाति भी एक है, तो क्या वहां कभी लड़ाइयां नहीं होतीं? क्या मतभेद नहीं हैं वहां?
यद्ध का आधार केवल अहंकार होता है। आज वैज्ञानिक प्रचार-प्रसार ने उस वैमनस्यता को और भी सुलगा दिया है। किसी को इतना विवेक नहीं है कि क्या संसार का कोई ऐसा धर्म है, जो अपना पानी, अपनी वायु, अपना आकाश, अपना सूर्य-चंद्र और अपनी पृथ्वी लेकर पैदा हुआ हो? सारा संसार, सारी प्रकृति एक अद्वैत पर आधारित है। उस अद्वैत ने अपने कृपालुता, करुणा के प्रचार-प्रसार के लिए रूप भी धारण किया और कृपा करके दिखाई भी। कष्ट भी स्वयं उठाए, पर अनुयायियों ने धर्म को केवल एक भौतिक पहचान बनाकर उस पर पेटेंट लेने की ठान ली। बस यही है अहंकार और विनाश का कारण। हम स्वयं भी चिल्लाते नहीं हैं और न ही दूसरे पर चिल्लाते हैं। हमारे यहां अनहद नाद सुनकर ध्यान में स्थित रहा जाता है।
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ब्रह्म का निरूपण, धर्म का विधान और तत्व के विभाग हमारी वैदिक परंपरा है। हमारे वेदों का एक नाम श्रुति है। श्रुति हमेशा तब होगी, जब पहले वाणी होगी। हमारी सनातनता ने वाणी को श्रुति माना। इसका तात्पर्य यह है कि जो हम बोलें, व्यवहार में जिन शब्दों का प्रयोग करें, वह श्रुति बन जाए। श्रुति-सम्मत आचरण, श्रुति सम्मत क्रिया, वाणी, उद्देश्य, परिणाम... ये हमारी महानतम सनातन परंपरा है। हम विज्ञान से प्रमाणित होने की क्षुद्र वासना नहीं रखते हैं। हमारा धर्म अप्रमेय है। हमारे यहां कसाई शब्द क्रूरता का प्रतीक है। कसाई हमारा व्यवसाय नहीं हो सकता। जिस कार्य को करने से पहले मन में क्रूरता आए, हिंसा आए, क्रोध और उत्तेजना आए, वह श्रुतिसम्मत नहीं हो सकता। वह तो तामसिक अहंकार का विकृत रूप है। यह समझ तब आएगा, जब हमारे माता-पिता ने हमें वह पढ़ाया या सिखाया हो।
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हमारे यहां चंद्रमा की पूजा अमृतत्व के लिए होती है, जो धान्य में मिठास भरता है। आकाश हमें शब्द देता है। सूर्य धान्य को पकाता है। पृथ्वी के ऊपर हम पैर रखते हैं, वह हमें क्षमा सिखाती है। वायु के द्वारा हमें सुगंध और दुर्गंध का ज्ञान होता है। अग्नि में हम भोजन पकाते हैं। हम जिन पंचतत्वों का उपयोग व्यवहार के लिए करते हैं, ब्रह्म निरूपण, धर्म के विधान तथा तत्व के विभाग करके वैदिक मंत्रों में मानव मात्र के कल्याण के लिए इन सब तत्वों से अपने प्रति अनुकूल बने रहने की याचना, प्रार्थना की गई है। हमारे देवी-देवता, अलग-अलग पूजन विधि... यह आध्यात्मिक विज्ञान है। यह विभाजन नहीं है, यह धर्म की व्यापकता है।
उसी व्यापकता का प्रमाण है कि संसार का कोई भी धर्म, जाति, मान्यता या संप्रदाय का व्यक्ति हो, खट्टे को सब खट्टा कहेंगे, मीठे को सब मीठा ही कहेंगे। क्योंकि मीठे को कड़वा या खट्टा कहकर हम अपने ही घर-परिवार में अज्ञानी सिद्ध हो जाएंगे तो ज्ञान सबको सब है, कोई अज्ञानी है ही नहीं। यह जो अहंकार है, वही धर्म के ऊपर डाला हुआ आवरण या पालिश है। हम सबने मिलकर उसको रंग दिया। ईश्वर को रंगा ही नहीं जा सकता, वह तो सब रंगों में है।
उसका किसी से कोई विरोध है ही नहीं। सारी प्रकृति में सारे रंग भरे पड़े हैं। हमारे लोगों के अहंकार ने अपनी अपनी स्थापना के लिए रंगों का आरोपण कर दिया। आम में, जामुन में, पानी में, दूध, दही, घी, कड़वा-मीठा सबमें सब एक मत हैं, पर ईश्वर और धर्म के संदर्भ में सब मतभेद हैं। मतभेद ईश्वर को न जानने के कारण हैं। हम आम को जानते हैं, ईश्वर को नहीं जानते। भोगों को लेकर सब एक मत हैं, पर ईश्वर को लेकर मतभेद।
भगवान राम ने त्रेतायुग में और भगवान कृष्ण ने द्वापर में प्रकट होकर इन मतभेदों को मिटा दिया। भगवान जब प्रकट होते हैं तो सारे ग्रह, नक्षत्र, योग, लगन, वार, तिथि सब अनुकूल क्यों हो जाते हैं, क्योंकि सबको आनंद देने वाला, सबको सुख देने वाला, सबकी आवश्यकता और उनके गुणों का सम्मान करने वाला ईश्वर अवतरित हो रहा है। हर एक बंदर का सम्मान, संसार की सारी प्रकृति से प्रेम, कष्ट स्वीकार करके दूसरे को सुख देने के लिए कांटों को स्वीकार कर लेना।
धर्म और ईश्वर संसार के किसी दर्शन और दार्शनिक के मत या मतभेद का मोहताज नहीं है। वह बहुत बड़ा है। जो अनिर्वचनीय होते हुए भी गांव के आदिवासियों की भाषा सुनकर न केवल स्वयं आनंद लेता है, अपितु केवट की अटपटी वाणी को सुनकर आनंद लेने के लिए श्रीसीता और अनुज लक्ष्मण को आमंत्रित करता है। भगवान ने अपनी संपूर्ण लीला में कहीं एक बार भी अपने अहंकार को प्रकट नहीं किया, अपितु दूसरों के अहंकार का सम्मान किया। अहंकार आलोचना का पात्र होता ही तब है, जब उसका पोषण हम अपने लिए तो करना चाहते हैं, पर दूसरे के अहंकार को तोड़ना चाहते हैं।
आज का विज्ञान पदार्थ के निर्माण पर और उसकी मात्रा को बढ़ाने में अपनी विजय, वीरता और महानता मानता है, पर वह यह नहीं जानता है कि हृदय में प्रवेश किए बिना यदि किसी के घर में प्रवेश करोगे तो खिड़की तोड़कर आना पड़ेगा, दरवाजे बंद मिलेंगे, चोर कहलाओगे। जबरदस्ती घुसना, जबरदस्ती मनवाना, जबरदस्ती अपनी अनधिकृत सीमाओं को बढ़ाने का कुप्रयास हमसे धर्म के चिह्नों को तो धुलवाता है, पर धर्म के साररूप परम तत्व को न समझ पाने के कारण हम विज्ञान और प्रगति की झूठी और मिथ्या सफलता को धर्म पालक और धर्मज्ञ की उपाधि से स्वयं को अपने आप ही अभिनंदित करते रहते हैं। अपनी सीमा बना लो, दूसरे को उसकी सीमा का ज्ञान स्वयं हो जाएगा।
असीम केवल ईश्वर है। हम अपने क्षुद्र अहंकार को सीमा के अंदर रखें, ताकि सब लोग सीमित साधनों में असीम सुख और शांति का अनुभव कर सकें। राम के द्वारा सीता की कृपा प्राप्त कीजिए और सीता के द्वारा श्रीराम की करुणा को प्राप्त कर धन्य हो जाइए। विवेकी बनिए, प्रगतिशील बनने की होड़ में आंखों पर पट्टी मत बांधिए, क्योंकि वह ईश्वर सूर्य-चंद्र-तारों और सबमें बैठकर हमें देख रहा है कि कौन राम है, कौन रावण!
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