प्रकृति का दर्पण है संवत्सर
ग्रंथों में प्रकृति की समस्त ऋतुओं के चक्र को संवत्सर कहा गया है। चंद्रमा को ऋतुओं का कारक कहा गया है, इसलिए चंद्र संबंधी संवत्सर प्रकृति की छवि को ही प्रस्तुत करता है। नवसंवत्सरोत्सव (31 मार्च) पर विशेष.. पर्व, उत्सव अथवा त्योहार किसी नियत काल (समय) पर किए जाते हैं।
ग्रंथों में प्रकृति की समस्त ऋतुओं के चक्र को संवत्सर कहा गया है। चंद्रमा को ऋतुओं का कारक कहा गया है, इसलिए चंद्र संबंधी संवत्सर प्रकृति की छवि को ही प्रस्तुत करता है। नवसंवत्सरोत्सव (31 मार्च) पर विशेष..
पर्व, उत्सव अथवा त्योहार किसी नियत काल (समय) पर किए जाते हैं। इसीलिए विश्व की प्रत्येक संस्कृति में स्थानीय परंपरा के अनुरूप काल-गणना की पद्धति मिलती है। इनमें संवत्सर का कैलेंडर सर्वाधिक सूक्ष्म और सटीक होने के साथ प्रकृति के साथ पूर्ण सामंजस्य भी रखता है। इसमें जब जिस ऋतु का उल्लेख होता है, उस समय वैसा ही मौसम दिखाई देता है।
भारतीय संवत्सर पांच प्रकार के हैं- सावन, चांद्र (चंद्र संबंधी), सौर (सूर्य संबंधी), नाक्षत्र (नक्षत्र संबंधी) और बार्हस्पत्य (बृहस्पति संबंधी), लेकिन इनमें से भारत में अधिकांशत: 'चांद्र संवत्सर' का प्रयोग होता है। इस संवत्सर (वर्ष) में सामान्यत: 12 मास होते हैं। प्रत्येक मास का पूर्वार्द्ध कृष्णपक्ष कहलाता है, जिसमें चंद्रबिंब नित्यप्रति घटता है और इस पक्ष का समापन अमावस्या को होता है। मास के उत्तरार्द्ध को शुक्ल पक्ष कहते हैं, जिसमें चंद्रमा की आकृति में नित्य वृद्धि होती है और यह पक्ष पूर्णिमा को पूर्ण होता है। चंद्रमा की सोलह कलाओं के अनुरूप 16 तिथियां होती हैं। प्रतिपदा (परीवा) से चतुर्दशी तक 14 तिथियां दोनों पक्षों में होती हैं। कृष्णपक्ष में अमावस्या तथा शुक्लपक्ष में पूर्णिमा, ये दोनों तिथियां मात्र इन्हीं पक्षों में होती हैं। उत्तर भारत में मास के अंतर्गत पहले कृष्णपक्ष तथा बाद में शुक्लपक्ष आता है, जबकि दक्षिण भारत, गुजरात और महाराष्ट्र में मास के पूर्वार्द्ध में शुक्लपक्ष और उत्तरार्द्ध में कृष्णपक्ष होने की मान्यता है। ऋक्संहिता (1-7-23) में चंद्रमा को ही मास का निर्माता कहा गया है। भारतीय काल-गणना में चंद्र संबंधी संवत्सर का पक्ष (पखवारा) तिथि-वृद्धि के कारण 15 की बजाय 16 दिनों का तथा तिथि-क्षय (हानि) के कारण 14 दिनों का भी हो सकता है। कभी-कभी दो तिथियों का क्षय हो जाने पर पक्ष 13 दिनों का भी हो जाता है। प्राय: हर तीसरे वर्ष संवत्सर में अधिक (मल) मास होने पर वह 13 मासों वाला हो जाता है। अधिक मास को सनातन धर्म में पुरुषोत्तम मास का नाम देकर इसे अतिशय आध्यात्मिक महत्व का मास माना गया है।
बंगाल, केरल आदि प्रांतों में सौर संवत्सर (सूर्य संबंधी संवत्सर) का प्रचलन है। इसमें मास का प्रारंभ सूर्य के राशि-परिवर्तन (संक्रांति) से होता है। लेकिन उत्तर एवं मध्य भारत में चंद्र संबंधी संवत्सर की ही मान्यता है। यहां इसी के आधार पर पंचांग निर्मित होते हैं। इस संवत्सर वर्ष का श्रीगणेश (प्रारंभ) चैत्र मास के शुक्लपक्ष की प्रतिपदा के सूर्योदय से माना जाता है। क्योंकि ब्रहमपुराण में लिखा है-चैत्रे मासि जगद् ब्रहमा ससर्ज प्रभमेवहानि। शुक्लपक्षे समग्रे तु तदा सूर्याेदये सति।। अर्थात चैत्र-शुक्ल-प्रतिपदा के दिन सूर्योदय के समय से ब्रहमाजी ने सृष्टि की रचना का कार्य प्रारंभ किया। इसी कारण इसे सृष्टि की आदितिथि माना जाता है। सृष्टि के निर्माण का शुभारंभ चैत्र-शुक्ल प्रतिपदा को होने से भविष्योत्तर पुराण में इसे 'प्रवरा' यानी सर्वोत्तम तिथि घोषित किया गया है। गुजरात, महाराष्ट्र और मालवा में इसे 'गुडी पड़वा' का नाम मिल गया है। नवसंवत्सर का श्रीगणेश इसी तिथि से होने के कारण भारतीय नववर्ष के आरंभ का उत्सव इसी दिन को मनाया जाता है।
भारतीय काल-गणना के हिसाब से सोमवार, 31 मार्च को चैत्र शुक्ल-प्रतिपदा को सूर्योदय के समय सप्तम वैवस्वत मान्वंतर के 28वें महायुग में तीन युग सत, त्रेता और द्वापर बीत जाने के उपरांत कलियुग के प्रथम चरण में वर्तमान सृष्टि के 1,95,58,85,115 वर्ष व्यतीत हो जाने पर नए संवत्सर का प्रारंभ होगा। दूसरे शब्दों में हम यह भी कह सकते हैं कि भारतीय काल गणनानुसार, सोमवार 31 मार्च 2014 को सृष्टि की 1,95,58,85,115वीं जयंती मनाई जाएगी। भारतीय इतिहास में विख्यात सम्राट विक्रमादित्य ने विक्रमी संवत् का प्रवर्तन किया था, जो आज भी अत्यंत लोकप्रिय है। सोमवार, 31 मार्च 2014 से नए विक्रम संवत् 2071 का आरंभ होगा। भारतीय पंचांग विज्ञान के अनुसार 'प्लवंग' नामक नवसंवत्सर का राजा और मंत्री, दोनों चंद्रमा ही होगा। चंद्रमा को ज्योतिष शास्त्र में स्त्री-ग्रह माना गया है। अतएव उसके अनुसार, चंद्रमा के आधिपत्य में शुरू हो रहे नए संवत्सर (वर्ष) में स्त्रियों की उन्नति होगी। नारी जागरूक होकर अधिकारों की लड़ाई खुद लड़ेगी। सामाजिक और राजनीतिक मंच पर महिलाओं का बोलबाला रहेगा।
अमरकोष में प्रकृति की समस्त ऋतुओं के पूरे एक चक्र (समयावधि) को संवत्सर कहा गया है। ऋग्वेद (10-85-10) में चंद्रमा को ऋतुओं का निर्माता बताया गया है। चंद्रमा को मन का कारक ग्रह माना गया है। खगोलीय दृष्टि से चंद्रमा हमारी पृथ्वी का निकटतम ग्रह है। इसके बढ़ने-घटने से समुद्र में ज्वार-भाटा आता है। ग्रंथों में चंद्रमा को जल का स्वामी कहा गया है और पृथ्वी पर प्राणियों और कृषि के लिए जल की अनिवार्यता सर्वविदित ही है। अस्तु चंद्र संबंधी संवत्सर की महत्ता निर्विवादित ही है।
सनातन धर्मग्रंथों में व्रत-पर्व का निर्णय इसी संवत्सर के अनुसार ही वर्णित है। ऋषि मुनियों ने इसकी प्रशंसा करते हुए इसे ही व्यवहार में लाने की संस्तुति की है-
स्मरेत् सर्वत्र कर्मादौ चांद्रं संवत्सरं सदा।
नान्यं यस्माद् वत्सरादौ प्रवृत्तिस्तस्य कीर्तिता।।
वस्तुत: भारतीय संस्कृति में धर्म-कर्म के सही समय पर संपादन में चंद्र संबंधी संवत्सर की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता। यह संवत्सर प्रकृति-सापेक्ष होने के कारण सही मायने में प्रकृति का दर्पण ही है।
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