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    ज्ञान और वैराग्य से जीवन में मिलती है भक्ति और मुक्ति

    By Jagran NewsEdited By: Vaishnavi Dwivedi
    Updated: Mon, 13 Oct 2025 01:02 PM (IST)

    दृष्टि से ही सुख-दुख है, दृष्टि से ही हानि-लाभ है। जीवन-मरण भी दृष्टिभेद ही है। सत्संग और कृपा से वह दृष्टि प्राप्त हो सकती है, जो भक्ति-मुक्ति दायनी हो सकती है, तो आइए इससे जुड़ी कुछ महत्वपूर्ण बातों को जानते हैं।

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    यहां पढ़िए दृष्टि का महत्व।

    स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। दिव्य दृष्टि भगवान और गुरु के द्वारा ही प्राप्त होती है। इसके अभाव में हम सत्य का साक्षात्कार नहीं कर सकते। महाभारत के महायुद्ध में भगवान श्रीकृष्ण ने अपने प्रिय सखा अर्जुन को तथा संजय को कृष्णद्वैपायन वेदव्यास ने दृष्टि दी। परिणामस्वरूप अर्जुन और संजय दोनों के जीवन में भगवान के प्रति शरणागति हो गई, जो ज्ञान, भक्ति, कर्म का परम लक्ष्य है। श्रीमद्भगवद्गीता में 18वें अध्याय के अंतिम श्लोक संजय ने कहा कि मैं यह मानता हूं कि जहां कृष्ण हैं, वहीं अर्जुन हैं, वहीं पर संसार की सारी श्री, विजय, विभूति और अचल नीति हैं।

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    यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरा।
    तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्धुर्वा नीतिर्मतिर्मम।

    संजय को वेदव्यास ने जो दृष्टि दी थी, वह केवल नेत्रहीन धृतराष्ट्र को युद्ध का संपूर्ण समाचार बताने के लिए दी थी, पर धृतराष्ट्र के संदर्भ में विडंबना और संजय के जीवन में वही कृपा है कि धृतराष्ट्र को युद्ध के उस सजीव प्रसारण और गीता ज्ञान को सुनकर कोई लाभ नहीं हुआ, पर संजय की अंतर्दृष्टि खुल गई। यही दृष्टि भेद है, यही कृपादृष्टि है। उसने धृतराष्ट्र से कहा कि वेदव्यास जी की महती कृपा से मुझे श्रीकृष्ण और अर्जुन के बीच हुआ संवाद न केवल देखने-सुनने को मिला, अपितु मेरा सारा शरीर और मन रोमांचित हो रहा है।

    राजन्संस्मृत्य संसमृत्य संवादमिममद्भुतम्।
    केशवार्जुनयो: पुण्यं ह्रष्यामि च मुहुर्मुहु:।।


    उतने समय के लिए वेदव्यास यह दृष्टि धृतराष्ट्र को भी दे सकते थे, पर संसार का नियम है कि नेत्रहीन को नेत्रदान तो संभव है, पर जो मोह में अंधे हैं, उन्हें कोई दृष्टि नहीं दे सकता है। मैं और मेरा, तू और तेरा ही महाभारत का कारण बनता है।
    भगवान के उपदेश से पूर्व अर्जुन मोह से ग्रस्त होकर युद्ध के कर्तृत्व और भोक्तृत्व से डरकर धनुषबाण छोड़ चुके थे। भगवान ने अपने विराट रूप और उपदेश के द्वारा अर्जुन को स्वस्वरूप में स्थित कर उनके स्वरूप ज्ञान करा दिया। अंत में भगवान ने जब अर्जुन से पूछा कि क्या तूने मेरे इस उपदेश को सुना? तब भगवान के चरण पकड़कर अर्जुन ने कहा-मुझे जो भूल गया था, वह याद आ गया। जिस कारण से मैं मोहग्रस्त हो गया था, वह मोह अब नष्ट हो गया।

    नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत।
    स्थितोऽस्मि गतसंदेह: करिष्ये वचनं तव।।
    अब मैं वही करूंगा, जो आप कहेंगे।


    कर्ण का वध, दुर्योधन का वध आदि जितने भी महारथियों का अंत हुआ, गीता ज्ञान के श्रवण के बिना यह संभव नहीं था। श्रीरामचरितमानस में भी हनुमान जी ने और अंगद ने बीस आंख वाले अंधे रावण को दृष्टि देना चाहा, पर मोह रूप रावण को कुछ समझ नहीं आया। अहंकारयुक्त मान्यता किसी को भी अंधा कर सकती है। शरीर में दृष्टि ही एक ऐसा अंग है, जिसके साथ अंतर्दृष्टि शब्द जोड़कर उसे बहुत व्यापक रूप दे दिया गया। अंतर्दृष्टि के लिए सत्संग और कृपा की अपेक्षा होती है। धृतराष्ट्र की आंखें नहीं हैं, गांधारी ने आंखों पर पट्टी बांध रखी है, श्रीकृष्ण की ईश्वर नीति और विदुर की धर्म नीति सुननी नहीं है।

    ज्ञान श्रुति से आता है तथा कर्म का ज्ञान नेत्र से आता है। जब दोनों ही बंद हैं तो मोहजन्य अंधत्व तो विनाश का ही कारण बनेगा। जीवन में ज्ञान और वैराग्य की दृष्टि का उपयोग आवश्यक है। ज्ञान दृष्टि से सत-असत का विवेक किया जाता है और वैराग्य दृष्टि से असत का त्याग करके सत को ग्रहण किया जाता है।

    सत्संगी बुद्धि 

    श्रीरामचरितमानस में गिद्ध संपाती ने अपनी दृष्टि का उपयोग बंदरों के हृदय में छाये नैराश्य को समाप्त कर उन्हें जीवन दान दिया। हनुमान जी ने लंका की अधिष्ठात्री देवी लंकिनी को अपनी मुष्टिका प्रहार से उसके मष्तिष्क से यह भ्रम मिटा दिया कि वास्तविक चोर कौन है। लंकिनी को भी स्वरूप की स्मृति हो गई और वह हनुमान जी को लंका में जाने में सहयोग करती है। सत्संगी बुद्धि को अंतर्दृष्टि सहजता से प्राप्त हो जाती है।

    विषाद का योग स्वरूप

    विषाद को भगवान के समक्ष रख देना विषाद का योग स्वरूप है। अपने विषाद को बताएंगे तो विषाद स्थायी हो जाएगा। विषाद को भगवान के चरणों में अर्पित करने मात्र से ही वह ज्ञान का फल देने में सोपान बन जाता है। कर्म के फल से सुख नहीं मिलता है, कर्म में जब सुख मिलने लगे, वह सुख हमारे भगवान से योग का सोपान बन जाता है। कामना ही करनी है तो भगवत्प्राप्ति की कामना ही सांख्ययोग बनकर साधक को साधन पथ में प्रेरित करता है। कर्म से विरत कोई हो ही नहीं सकता है। कर्म का नाम बदल सकता है, पर कर्म तो होगा, श्वास लेना भी तो कर्म है। सारे कर्म जब भगवान की सेवा की भावना से किए जाएं तो कर्म का योग भगवान में हो जाता है। अपने कर्म का दृष्टा बने रहना और अपने को उससे अलग रखना।

    ज्ञान कर्म संन्यास योग

    सूर्य प्रत्येक पदार्थ को अपने प्रकाश गुण से स्पर्श करता है, पर सबसे असंग रहता है, यही ज्ञान कर्म संन्यास योग है। इसी तरह कर्म संन्यास योग, आत्मसंयम योग है, ज्ञान विज्ञान, अक्षर ब्रह्म, राजगुह्य योग, संसार में जो कुछ भी दिखाई दे रहा है, वह सब भगवान की विभूति है। सभी पदार्थों में वही बिंब प्रतिबिंबित हो रहा है। भगवान से जोड़ने का और अहंशून्य होने का दिव्य विभूति योग है विश्वरूप दर्शन भक्तियोग। न भक्त कुछ शुरू करता है, न अंत करता है। न ही कुछ चाहता है। निरंतर भगवान की प्राप्ति का सुख अनुभव करना ही भक्तियोग है। अंत में ईश्वर और प्रकृति को जानना, जड़ चैतन्य को जानना, क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ को जानना योग है। सत्, रज, तम के विभाग और उनके गुणों को जानना पुरुषोत्तम योग भी योग है। दैवी संपदा और आसुरी संपदा के विभाग को जानना भी योग है। सात्विक श्रद्धा, राजसिक श्रद्धा और तामसिक श्रद्धा के स्वरूप और फलों के विभाग को जानना भी योग है। अंत में मोक्ष संन्यास योग है।

    अरथ न धरम न काम रुचि गति न चहउं निर्वान।
    जन्म जन्म रति राम पद यह बरदान न आन।।

    श्रीभरत जो चाह रहे हैं कि हमें गति भी नहीं चाहिए। भरत ने अपने सारे गुणों का योग भगवान से कर दिया है। उन्हें अर्थ का अर्थ ही नहीं पता। सारे धर्म राम में विलीन कर दिए, उन्हें धर्म का क्या पता? स्वयं के लिए संसार का कोई भोग नहीं चाहिए, पर अयोध्यावासियों के भोग की रक्षा करना, ऐसे भक्त को कौन-सा भोग चाहिए। जब कोई बंधन है ही नहीं तो मोक्ष किससे चाहिए।

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