जीवन में होना चाहते हैं सफल, तो जरूर अपनाएं ये 4 बातें
गणतंत्र दिवस पर हमें अपने गौरवशाली अतीत को भविष्य की संभावनाओं के रूप में देखना चाहिए। हमें पाश्चात्य संस्कृति को छोड़ भारतीय संस्कृति का संवर्धन करना चाहिए। कुछ ही दिनों में फिर हम एक बार गणतंत्र दिवस मनाने जा रहे हैं। जिस गणतंत्र के लिए हमारे कई पूर्वजों ने अपना जीवन लगा दिया। आज उसी राष्ट्र को हम फिर से अतीत का गौरव वापिस लौटाने में लगे हुए हैं

डा. प्रणव पण्ड्या (प्रमुख, अखिल विश्व गायत्री परिवार)। कुछ ही दिनों में फिर हम एक बार गणतंत्र दिवस मनाने जा रहे हैं। जिस गणतंत्र के लिए हमारे कई पूर्वजों ने अपना जीवन लगा दिया। आज उसी राष्ट्र को हम फिर से अतीत का गौरव वापिस लौटाने में लगे हुए हैं, क्योंकि कहा गया है ‘जो राष्ट्र केवल अपने समय में वर्तमान में ही जीता है, वह सदा हीन होता है। यथार्थ में समुन्नत वही होता है, जो अपने आपको अतीत की उपलब्धियों तथा भविष्यत की संभावनाओं के साथ जोड़कर रखता है।’
देश में सनातन संस्कृति के विरुद्ध जिस अपसंस्कृति की माया का बोलबाला है, उसे निष्फल करने हेतु कुछ सार्थक प्रभावी उपाय करने होंगे। इसके लिए युगद्रष्टा पं. श्रीराम शर्मा आचार्य जी द्वारा घोषित युग निर्माण हेतु वैचारिक क्रांति द्वारा देवसंस्कृति के शाश्वत मूल्यों को पुनः जाग्रत करना होगा और न केवल अपने राष्ट्रीय जीवन में अपितु संपूर्ण मानव जीवन में उनको अभिव्यक्ति देनी होगी, ताकि राष्ट्र समर्थ एवं सशक्त बन सके। इस निमित्त दिया गया हमारा अकिंचन-सा भी किंतु ईमानदार प्रयास आज के राष्ट्रीय धरातल पर सर्वोपरि एवं सार्थक सिद्ध होगा।
देवसंस्कृति के सार्वभौम, प्रगतिशील एवं लोकोपयोगी निर्धारण ही राष्ट्र को ऊंचा उठाने के लिए आशा की एक किरण के रूप में आभासित हो रहे हैं। इन्हीं मौलिक विशेषताओं के आधार पर राष्ट्र जगद्गुरु बन सकता है। ऐसे महत्वपूर्ण क्षणों में प्रत्येक भारतीय का यह पावन कर्तव्य बन जाता है कि वह देवसंस्कृति के आदर्शों को गढ़ने में कोई कसर न छोड़े, जिससे कि ऋषि संस्कृति का प्रचार-प्रसार मात्र शब्दों एवं बाह्याडंबर तक ही सीमित न रहकर व्यक्तित्व की समर्थ भाषा बने।
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आज पाश्चात्य संस्कृति की तरह ही हमारे देश के अधिकांश नागरिक भी उपभोक्तावादी संस्कृति में आकंठ डूबे दिखाई देते हैं। संकीर्ण स्वार्थपरता ने सारे मानव मूल्यों को ध्वस्त कर दिया है। जबकि हमारी देवसंस्कृति ने तेन त्यक्तेन भुंजीथा (पहले त्याग, फिर उपयोग) का मंत्र दिया है। मानव समाज, धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष, रूप में मानव के सर्वांगीण विकास हेतु समन्वय की प्रतीक प्राचीन भारतीय संस्कृति को अपनाए। अपने प्रति राग और पराए के प्रति द्वेष के भाव को त्यागकर केवल आत्मकल्याण का अनुसंधान करते हुए हमें अपनी दिशा निश्चित करनी चाहिए, क्योंकि व्यक्ति निर्माण से ही परिवार निर्माण और परिवार निर्माण से राष्ट्र निर्माण हो सकता है। इसके लिए ऋषि प्रणीत महत्वपूर्ण सूत्र साधना, स्वाध्याय, संयम व सेवा को प्रत्येक नागरिक को अपने जीवन में अनिवार्य रूप से स्थान देना होगा।
प्रत्येक भारतीय अपने राष्ट्रीय मिशन के प्रति जीवंत एवं जाग्रत हो। ऋषियों द्वारा राष्ट्र को समर्थ एवं सशक्त बनाने के निर्धारित सूत्रों को आत्मसात कर सकें, तो राष्ट्र को समर्थ एवं शक्तिशाली बनने से कोई ताकत रोक नहीं सकती, क्योंकि किसी भी राष्ट्र की उन्नति, प्रगति एवं विकास उसके नागरिकों के उन्नति, प्रगति एवं विकास पर ही निर्भर है।
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