Hindu New Year 2025: प्रकृति में जीने का अभ्यास करें, खुशियों से भर जाएगा जीवन
पारंपरिक रूप से भारत में नव वर्ष (Hindu New Year 2025) को ‘नव संवत्सर’ कह कर मनाया जाता है। जिसमें ऋतुएं बसती हैं उसे संवत्सर कहते हैं। संवत्सर शब्द का अर्थ इसकी अंतक्रिया को व्यक्त करता हुआ इसकी चरितार्थता को भी स्पष्ट करता है। संवत्सर के प्रथम ऋतु के रूप में वसंत का आगमन होता है। यह मधुऋतु है मधु अर्थात जीवन का सत्त्व।
आचार्य मिथिलेशनन्दिनीशरण (सिद्धपीठ श्रीहनुमन्निवास,अयोध्या)। नव संवत्सर का प्रवेश हो रहा है। नूतनता का चतुर्दिक प्रसार दिखाई देता है। रस-राग और सुगंध से भरी हुई प्रकृति में तितलियां, भ्रमर और कोयलें अपने उन्मुक्त उल्लास के द्वारा मानो समृद्धि का संकेत कर रहे हैं। भारत देश इस अर्थ में विलक्षण है। यहां वर्ष का नवीकरण मात्र आंकिक गणनाओं के अधीन नहीं है, अपितु संपूर्ण पर्यावरण नवीनता को अंगीकार कर नए संवत्सर के आगमन का उत्सव मनाता सा प्रतीत होता है।
पारंपरिक रूप से भारत में नव वर्ष को ‘नव संवत्सर’ कह कर मनाया जाता है। जिसमें ऋतुएं बसती हैं, उसे संवत्सर कहते हैं। संवत्सर शब्द का अर्थ इसकी अंत:क्रिया को व्यक्त करता हुआ इसकी चरितार्थता को भी स्पष्ट करता है। संवत्सर के प्रथम ऋतु के रूप में वसंत का आगमन होता है। वसंत ऋतु के चैत्र और वैशाख नामक दो महीने हैं, जिन्हें क्रमशः मधुमास और माधवमास कहा जाता है- ‘वसंतौ मधुमाधवौ’।
यह मधुऋतु है, मधु अर्थात जीवन का सत्त्व। इसी से जीवन की गति है। इसी मधु की न्यूनता, इसका सूख जाना शिशिर ऋतु के रूप में दिखाई पड़ता है। पत्ते वृक्षों से गिर जाते हैं। वनस्पतियां अपने रस-राग से रहित प्रतीत होने लगती हैं। इन दोनों के बीच ग्रीष्म, वर्षा, शरद और हेमंत ऋतु का क्रम रहता है।
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इसी वसंत से प्रारंभ होता है हमारा नव संवत्सर। यह कालपुरुष के अनवरत चंक्रमण का ही प्रतिफल है। महाभारत में राजा जनक एवं ऋषि अष्टावक्र के संवाद के क्रम में अष्टावक्र ने कहा है -“चौबीस पर्व, छः नाभि, बारह अंश और तीन सौ साठ अरे वाला संवत्सर रूप कालचक्र आप की रक्षा करे।” यह संवाद संवत्सर में निहित भारतीय विज्ञान को प्रकट करता है। इस कालचक्र को समझने चलेंगे तो हमें अपने जीवन के गहरे संदेश अनुभव होंगे। नव संवत्सर अपने आगमन से ही हमारा ध्यान मधु की ओर ले जाता है।
सारा जीवन अंतर्निहित मधु का ही विलास है, तो हमारे जीवन का मधु क्या है? क्या है जिसे हमें सुदीर्घ जीवन में भोगते और चुकाते जाते हैं। वेद कहते हैं - मधु। भूयासं मधु सदृशः - हम मधु सदृश हो जाएं। यही मधु हमारे जीवन में ‘आनंद’ कहलाता है। यह आनंद जीवन का मधु है। इसी से परमात्मा ने सृष्टि को रचा है। अपने सत और चित से असावधान होकर भी जीव की लालसा इस आनंद के प्रति कम नहीं होती। इस आनंद तत्त्व को स्वयं में पहचानने का अवसर है नव संवत्सर। बदलते जाते ऋतुचक्र में हमारा आनंद क्षरित होता जाता है, शुष्कता आती जाती है। ग्रीष्म, वर्षा और शरद जीवन की ऋतु बनकर बीत जाते हैं।
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नव संवत्सर का स्वागत करते हुए हम अपने आनंद तत्त्व को पहचानने का यत्न करें। अपना मधु खोजने में लगें। देखें कि जागा हुआ मधु प्रसादन करता है, यह हमें खिलाता है। यह हमारे भीतर की दिव्यताओं को रूप-आकार देता है, हमें सुरभित करता है। नव संवत्सर अपनी नवीनता को प्रकृति के माध्यम से व्यक्त करता है। हम भी अपनी प्रकृति में जीने का अभ्यास करें। कृत्रिमता के छल से उबरकर अपने मधु का अनुसंधान करते हुए हम अपने भीतर सूख रहे रस-रुचि-राग को जगाने का संकल्प ले सकें तो संवत्सर की नवीनता हमारे जीवन में भी खिल सकेगी।
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