सीता-हरण से लेकर रावण वध तक, यहां पढ़ें संपूर्ण कथा
इस आर्टिकल में श्रीराम के जीवन और दर्शन पर प्रकाश डाला है। कि कैसे श्रीराम ने विपरीत परिस्थितियों में भी विवेक बनाए रखा? गणेश स्थापना से शुरू होकर दीपावली तक के पर्वों की शृंखला भारतीय संस्कृति का अभिन्न अंग है। श्रीराम का चरित्र पूर्णता व्यापकता और अखंडता का प्रतीक है। भगवान की कृपा से प्राप्त संपत्ति कभी विपत्ति नहीं लाती। रामत्व ही आदि मध्य और विलय है।

स्वामी मैथिलीशरण (संस्थापक अध्यक्ष, श्रीरामकिंकर विचार मिशन)। गणपति स्थापना से प्रारंभ होकर पितृपक्ष, नवरात्र, विजयादशमी के पश्चात दीपावली तक पर्वों की शृंखला सामाजिक भावनाओं को अपने मूल से जोड़े रहने का संकेत देती है। विवेक के देवता श्रीगणेश ने संपूर्ण प्रकृति और ब्रह्मांड के मूल में राम नाम पर आस्था कर प्रथम पूजा का आशीर्वाद प्राप्त किया। उन्हीं भगवान श्रीराम के वनवास के 14 वर्ष पूर्ण होने तथा रावण वध के पश्चात दीपावली का उत्सव हमारी भारतीयता का सनातन दर्शन है।
इस माह में ग्रीष्म, वर्षा के पश्चात शरद के प्रवेश से सभी ऋतुओं का अनुभव हो जाता है। श्रीराम के इस लीला काल का प्रमुख संदेश यह है कि विवेक इसी में है कि हमें प्रतिकूल और अनुकूल सभी ऋतुओं के साथ व्यवहार करना आए।
अकर्मण्य व्यक्ति के लक्षण
अनुकूलता की चाह तो अकर्मण्य व्यक्ति के लक्षण हैं। भगवान राम ने जन्म के समय रुदन भी किया, माता कौशल्या को अपना विराट रूप भी दिखाया, मित्र बच्चों के साथ सरयू जी के तट पर गेंद भी खेले, विवाह भी किया, वनवास में चित्रकूट में भी निवास किया, पर उनके चरित्र में जिस पूर्णता, व्यापकता और अखंडता का दिव्य दर्शन होता है, वह अश्रुतपूर्व तथा अकल्पनीय है।
लंका से लौटते समय पुष्पक विमान में अयोध्या के निकट आते ही प्रभु के नेत्रों से प्रेमाश्रु टपकने लगे। अयोध्या से उनका प्रेम, माताएं, अयोध्यावासी, मित्र, गुरुजन, सबकी स्मृति उनको विह्वल कर देती है।
सर्वदा विवेक की दृढ़ता
चित्रकूट में भी प्रभु जब-जब अयोध्या की स्मृति करते हैं तो उनके नेत्र प्रेमाश्रुओं की वर्षा करने लग जाते हैं, पर जब प्रभु अपने अश्रुओं का प्रभाव श्रीसीता और लक्ष्मण पर देखते थे तो अपनी भावनाओं का संवरण कर लेते थे। श्रीराम की अनासक्ति में आंसुओं के मध्य भी सर्वदा विवेक की दृढ़ता की अलौकिकता का अद्भुत दर्शन होता है। जो भगवान अयोध्यावासियों से इतना प्रेम करते हैं, वे ही राम वनवास की दिशा में अग्रसर होते हुए नहीं रोए। यही श्रीराम का ईश्वरत्व है, व्यवहार में सत, चित, आनंद की निरंतरता-अविरलता ही उनका स्व-स्वरूप है। श्रीराम ममता में भी वैभव और आसक्ति से कोसों दूर रहते हैं। उनके हृदय की प्रीति के कारण वे सबके हृदय-सिंहासन पर विराजमान हैं।
शंकर जी ने राज्याभिषेक के पश्चात भगवान की स्तुति करते हुए कहा कि प्रभु, जो लोग आपकी भक्ति का निरादर करते हैं वे सब इस विपरीत भवसागर में पड़े रहकर अनेक प्रकार के कष्ट भोगते रहते हैं। साधनों को न जुटाकर जो भक्त साध्य को हृदय में विराजमान कर लेते हैं, वे राग-द्वेष-मद-मत्सर जैसी विकृतियों से बच पाते हैं। राम का भजन सब करते हैं, पर वह अपनी कृपामय संपत्ति वही देते हैं, जो उनका अभीष्ट है। भगवान की कृपा से प्राप्त सम्पत्ति, कभी विपत्ति को जन्म नहीं देती है।
भगवान की कृपा
यदि हम किसी व्यक्ति या संत के जीवन में बार-बार भौतिक संपदा की उपलब्धि को ही भगवान की कृपा बताकर उसे महिमामंडित करेंगे तो इससे भगवान और साधक दोनों की गरिमा सामान्य हो जाएगी, क्योंकि भौतिक संपदा तो न जाने कितने संसारियों के पास उनसे भी अधिक मात्रा में उपलब्ध है। तब तो शबरी, हनुमान जी, केवट, गीध, कोल भीलों को कुछ नहीं मिला! संसार के वैभव को भगवान की कृपा मानना हमारी मानसिक दरिद्रता है, जो कभी भी न रावणत्व को मार पाएगी, न ही रामत्व की स्थापना संभव होगी।
सीता-हरण से लेकर लंकेश वध तक
लंका के युद्ध में गुरु वशिष्ठ सम्मिलित नहीं हुए थे। अयोध्या लौटकर श्रीराम ने गुरुदेव का परिचय अपने प्रिय मित्र बंदरों को देते हुए कहा कि ये हमारे कुलगुरु हैं, इन्हीं की कृपा से सारे राक्षसों का संहार संभव हुआ। प्रेय को सुसंस्थापित करने के पश्चात श्रीराघवेंद्र अपने प्राणप्रिय बंदरों की ओर देखते हुए गुरुदेव को इंगित करते हैं कि हे गुरुदेव! ये जितने वानर दिखाई दे रहे हैं, ये सब वनवास काल में आपकी कृपा से हमारे संपर्क में आए और सीता-हरण से लेकर लंकेश वध तक इन लोगों ने हमारा सहयोग किया और आज हम आपके श्री चरणों तक पुन: पहुंच सके। गोस्वामी तुलसीदास जी श्रीराम के चिंतन की व्यापकता को बार-बार स्मरण दिलाते रहते हैं कि यदि रावण को राम मारते तो रावण नहीं मरता, सगुण राम में जो निर्गुण रामत्व है, वही वह मूल तत्त्व है, जो निर्गुण निर्विकार ही साकार होकर समक्ष है।
श्रीराम का राज्याभिषेक
वनवास से पूर्व जब श्रीराम का राज्याभिषेक होने का निर्णय होता है, तब भी वे अपने कक्ष के एकांत में यह चिंतन करते हैं कि सूर्य कुल में सारी परंपराएं श्रेष्ठ हैं, पर छोटे भाई भरत के होते हुए मुझे केवल बड़े होने के कारण राज्य दिया जा रहा है, यह उचित नहीं है। श्रीराम के इसी चिंतन ने रावण वध के पश्चात लंका का राज्य न तो स्वयं लिया, न ही लक्ष्मण को बैठाया, अपितु उन्होंने राजगद्दी पर विभीषण को आसीन किया। यही है राम की विजय और विजया दशमी। यही है सनातन धर्म और हमारी सनातनता, जहां न व्यक्ति होता है, न व्यक्तित्व।
राम और रामत्व ही आदि है, वही मध्य है और वही विलय भी है। उद्भव स्थिति और लय सब राम ही हैं। सनातन की दीपावली वही है, जब हमारे हृदयों में राम का राज्य हो जाए। गणेश स्थापना से आरंभ हुई पर्व शृंखला में पितृपक्ष में पूर्वजों का स्मरण, नारी शक्ति में देवी का दर्शन फिर रावणत्व का विनाश यह एक भारतीय दर्शन है।
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।