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    Akshaya Tritiya 2025: कब और क्यों मनाया जाता है अक्षय तृतीया? यहां पढ़ें पौराणिक कथा

    By Jagran News Edited By: Pravin Kumar
    Updated: Mon, 28 Apr 2025 09:02 AM (IST)

    आदिगुरु भगवान शंकारचार्य महाभाग अक्षय तृतीया (Akshaya Tritiya 2025) के दिन ही भगवान् के श्रीविग्रह को विशालाक्षेत्र में अलकनंदा नदी में स्थित कुंड से बाहर निकालकर श्रीबद्रीनाथजी के श्रीविग्रह में उनकी प्रतिष्ठा की इसलिए अक्षय तृतीया तिथि को ही श्रीबद्रीनाथ धाम के मंदिर के कपाट जन-सामान्य के दर्शन-पूजनादि हेतु खोल दिए जाते हैं।

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    Akshaya Tritiya 2025: अक्षय तृतीया का धार्मिक महत्व

    आचार्य नारायण दास (श्रीमद्भागवत महापुराण मर्मज्ञ)। वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को "अक्षय तृतीया" कहते हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार, यह तिथि अपने नाम‌ के अनुरूप स्वयंसिद्ध और हर प्रकार से मंगलदात्री है। ज्योतिष की दृष्टि से महूर्तादि के लिए यह सर्वोत्तमा तिथि मानी गई है। पौराणिक तथ्यों के अनुसार चार युग होते हैं- सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलयुग, जिसमें सतयुग और त्रेतायुग का शुभारंभ अक्षय तृतीया के दिन से हुआ है।

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    सृष्टि के अभिवर्धन और अभिरक्षण की दृष्टि से जगन्ननियन्ता ने श्रीहरि ने धर्म की भार्या मूर्ति के गर्भ से नर-नारायण के रूप में चौथा अवतार लिया, उस दिन भी वैशाख मास की तृतीया ही थी। इस अवतार में ऋषि के रूप में मन-इंद्रिय का संयम करते हुए, बड़ी ही कठिन तपस्या की। इस अवतार के माध्यम से भगवान ने लोक को यह शिक्षा दी, तपस्या के द्वारा मनुष्य जीवन और प्रकृति के रहस्यों को समझकर, लोकहितकारी कार्यों का उत्तम प्रकार से संपादन करता और करवाता है।

    श्रीमद्भागवतमहापुराण के अनुसार, अनंतकोटि ब्रह्मांड नायक परमेश्वर श्रीहरि ने अक्षय तृतीया को हयग्रीव अवतार लेकर वेदों की रक्षा की। निरंकुश हो गई राजसत्ता को सद्गति-मति देने के लिए भगवान परशुराम जी के रूप में अवतार लिया।

    आदिगुरु भगवान शंकारचार्य महाभाग अक्षय तृतीया के दिन ही भगवान् के श्रीविग्रह को विशालाक्षेत्र में अलकनंदा नदी में स्थित कुंड से बाहर निकालकर श्रीबद्रीनाथजी के श्रीविग्रह में उनकी प्रतिष्ठा की, इसलिए अक्षय तृतीया तिथि को ही श्रीबद्रीनाथ धाम के मंदिर के कपाट जन-सामान्य के दर्शन-पूजनादि हेतु खोल दिए जाते हैं।

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    कौरव-पांडव के मध्य जो धर्म-अधर्म को लेकर महायुद्ध हुआ, जिसे महाभारत की संज्ञा दी गई, उसका विराम अक्षय तृतीया के दिन ही हुआ तथा द्वापरयुग का समापन भी इसी तिथि को ही हुआ माना गया है।

    वेदशास्त्र में वर्णित वैदिक और पौराणिक मान्यताओं में परस्पर कर्मकांड विषयों को तर्क की कसौटी पर मान्यता देने वाले दो सद्ग्रंथ धर्मसिंधु और निर्णयसिंधु के अनुसार, इस दिन से जिस भी कार्य का शुभारंभ किया जाता है, वह सिद्ध और अक्षय हो जाता है। इसलिए इस दिन लोग तीर्थों में जाकर, दर्शन दानादि के द्वारा पुण्यलाभ प्राप्त करते हैं, जो कि अक्षय हो जाता है।

    मथुरा-वृंदावन में संगीत सम्राट और भगवद्भक्त स्वामी हरिदास जी ने अक्षय तृतीया के दिन भगवान् बांके बिहारी जी के प्राचीन काष्ठ के विग्रह को प्राप्त किया और उनकी प्रतिष्ठा की, इसलिए केवल अक्षय तृतीता के दिन ही श्रीबांके बिहारी जी के चरणकमलों का दर्शन सुलभ होता है, अन्य दिनों वस्त्र से ढका रहता है।

    स्कंद पुराण और भविष्य पुराण में समुल्लिखित है कि वैशाख शुक्ल पक्ष की तृतीया को महर्षि जमदग्नि की धर्मभार्या रेणुका जी के गर्भ से भगवान नारायण ने अपने अंशावतर के रूप में परशुराम जी के रूप में प्रकट हुए, जो जन्म से ब्राह्मण थे, किंतु कर्म से उन्होंने क्षत्रियोचित कार्य किए। पथभ्रष्ट और निरंकुश हो गई राजसत्ता पर अंकुश लगाकर उसे लोकहित में समुचित दिशा दी।

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    पौराणिक मान्यतानुसार एक कथा प्रचलित है कि परशुराम जी की माता रेणुका जी और विश्वामित्र की माता सत्यवती जी ने पुत्र प्राप्ति की कामना से व्रतोपवास किया। व्रत के पूर्ण होने के बाद प्रसाद देते समय ऋषि ने जो प्रसाद दिया, वह संयोग से परिवर्तित हो गया, जिसके प्रभाव से परशुराम ब्राह्मण होते हुए भी क्षत्रिय स्वभाव के थे और क्षत्रिय पुत्र होने पर भी विश्वामित्र ब्रह्मर्षि कहलाए।