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    Samudra Manthan: मन की स्थिरता मंदराचल पर्वत और प्रेम की डोर शेषनाग हैं

    By Pravin KumarEdited By: Pravin Kumar
    Updated: Sun, 25 Aug 2024 01:29 PM (IST)

    अश्व मन की गति का प्रतीक है। मन की गति को सबसे तेज माना गया है। यदि हमें अमृत रूपी परमात्मा को प्राप्त करना है तो अपने मन की गति को नियंत्रित करना होगा। यह मन ही मनुष्य को संसार के मोह सागर में डुबा देता है और यही मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करता है। मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्ष्योः।

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    Samudra Manthan: धर्मग्रंथों में अश्व को इंद्रियों का रूपक दिया गया है

    आचार्य नारायण दास (श्रीभरतमिलाप आश्रम, ऋषिकेश)। समुद्र मंथन के तीसरे क्रम में श्वेत वर्ण का उच्चैश्रवा अश्व निकला, जिसे राजा बलि ने अपने पास रख लिया। लोक में जिस व्यक्ति को अपने मान-सम्मान का बहुत ध्यान रहता है, उसके पुण्य कर्मों का क्षय हो जाता है। मन की हलचल का शांत हो जाना ही भगवत्साधना की निधि है। जैसे ही मन शांत हो जाता है, उसमें सकारात्मक और परमार्थिक विचार उठने लगते हैं, जिससे लोक-परलोक दोनों का कल्याण होता है।

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    अश्व मन की गति का प्रतीक है। मन की गति को सबसे तेज माना गया है। यदि हमें अमृत रूपी परमात्मा को प्राप्त करना है, तो अपने मन की गति को नियंत्रित करना होगा। यह मन ही मनुष्य को संसार के मोह सागर में डुबा देता है और यही मोक्ष के मार्ग को प्रशस्त करता है। 'मन एव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्ष्योः'। मन की स्थिरता ही मंदराचल पर्वत है, प्रेम की डोर ही शेषनाग हैं और कच्छप रूप भगवान ही उसके आधार हैं। जो व्यक्ति प्रत्येक इंद्रिय से भगवान की भक्ति करता है, उसे ही भक्तिरूपी अमृत प्राप्त होता है।

    धर्मग्रंथों में अश्व को इंद्रियों का रूपक दिया गया है। मन का निरोध ही शम है। इंद्रियों का निरोध ही दम है। देह-गेह में आसक्ति ही मन है। देह-गेह से उपराम भक्ति है। भक्ति ही सत्य है और सत्य ही ईश्वर है। जब तक व्यक्ति इंद्रियों का दास रहेगा, तब तक वह भगवद्भक्ति रूपी अमृतपान से वंचित रहेगा। उच्चैश्रवा अश्व को असुराधिपति बलि ने तो ले लिया, किंतु वह अमृत से वंचित रह गए। अमृत है आत्मबोध की उपलब्धि। संसार में जो लोग-कीर्ति-वैभव आदि को ही प्रमुख मानकर जीवन जीते हैं, वे शाश्वत शांति को नहीं प्राप्त कर सकते।

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    मानव जीवन भोग भोगने के लिए नहीं, अपितु भगवद्भक्ति रूपी अमृत पान कर मोक्ष के लिए है। इंद्रियां भोग भोगते हुए कभी तृप्त नहीं होती हैं। विषयभोग जीवन को विनष्ट कर देता है। महाराज भर्तृहरि भोग से जब योग की ओर चले तो उन्होंने लिखा-'भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः' अर्थात हमने भोगों को नहीं भोगा अपितु भोगों ने हमें भोग लिया। जो व्यक्तिगत कीर्ति और प्रसिद्धि के लिए लालायित रहता है, वह राष्ट्र व समाज का समुत्थान और कल्याण नहीं कर सकता है। जिसकी इंद्रियां उसके वश में हैं, वही भगवद्भक्ति रूपी अमृत का पान करने का अधिकारी है। नश्वर विषय भोग की ओर भागती हुई इंद्रियों का दमन है, जीवन के समुत्थान का हेतु है।