Trending

    Move to Jagran APP
    pixelcheck
    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    चिंतन धरोहर: कर्मयोग और भक्तियोग का मधुर मिश्रण है राजयोग

    By Pravin KumarEdited By: Pravin Kumar
    Updated: Sun, 10 Dec 2023 11:03 AM (IST)

    चिंतन धरोहर राजयोग कहता है-तुम्हारे कर्म का फल किसी न किसी को तो मिलेगा ही तो उसे भगवान को ही दे डालो। उसी को अर्पण कर दो। राजयोग उचित स्थान बता रहा है। यहां फल त्याग रूपी निषेधात्मक कर्म भी नहीं है और सब कुछ भगवान को ही अर्पण करना है इसलिए पात्रता-अपात्रता का प्रश्न भी हल हो जाता है।

    Hero Image
    चिंतन धरोहर: कर्मयोग और भक्तियोग का मधुर मिश्रण है राजयोग

    आचार्य विनोबा भावे। श्रीमद्भागवत गीता के नौवें अध्याय में विशेष बात कही गई है। इसमें कर्म योग और भक्ति योग का मधुर मिलाप है। कर्म योग का अर्थ है, कर्म तो करना है, परंतु फल का त्याग कर देना है। कर्म इस तरह करो कि फल की वासना चित्त को न छुए। यह अखरोट के पेड़ लगाने जैसा है। अखरोट के वृक्ष में 25 वर्ष में फल लगते हैं। लगाने वाले को अपने जीवन में शायद ही उसके फल चखने को मिलें। फिर भी पेड़ लगाना है और उसे बहुत प्रेम से पानी पिलाना है।

    विज्ञापन हटाएं सिर्फ खबर पढ़ें

    कर्म योग का अर्थ है-पेड़ लगाना और फल की अपेक्षा न करना। वहीं भक्ति योग, भावपूर्वक ईश्वर के साथ जुड़ जाने को कहते हैं। राज योग में कर्मयोग और भक्तियोग दोनों इकट्ठे हो जाते हैं। राजयोग की कई लोगों ने कई व्याख्याएं की हैं, परंतु मेरी थोड़े में व्याख्या यह है कि कर्मयोग और भक्तियोग का मधुर मिश्रण है राजयोग।

    यह भी पढ़ें: जीवन आश्चर्य और सुनिश्चितता दोनों का मिश्रण है

    कर्म तो करना है, पर फल फेंकना नहीं है, प्रभु को अर्पण कर देना है। फल फेंक देने का अर्थ होता है फल का निषेध, किंतु अर्पण में ऐसा नहीं होता। बहुत सुंदर व्यवस्था है यह। बड़ी मिठास है इसमें। फल छोड़ने का यह अर्थ नहीं कि फल कोई लेगा ही नहीं। किसी न किसी को तो वह मिलेगा ही।

    फिर ऐसे तर्क खड़े हो सकते हैं कि जो इस फल को पाएगा, वह इसका अधिकारी है भी या नहीं? कोई भिखारी घर आ जाता है तो हम झट से कहते हैं-अरे तू खासा मोटा-ताजा है, भीख मांगना तुझे शोभा नहीं देता। चला जा। हम यह देखते हैं कि उसका भीख मांगना उचित है या नहीं। बचपन में एक बार मैंने अपनी मां से यही कहा-यह भिखारी तो हट्टा-कट्टा दिखाई देता है, इसको भिक्षा देने से तो व्यसन और आलस्य ही बढ़ेंगे।

    गीता का देशे काले च पात्रे च, यह श्लोक भी मैंने उन्हें सुनाया, तो वह बोलीं-जो भिखारी आया था, वह परमेश्वर ही था, अब पात्र-अपात्र का विचार कर। भगवान क्या अपात्र हैं? यह विचार करने का तुझे और मुझे क्या अधिकार है? मेरे लिए वह भगवान ही है।

    दूसरों को भोजन कराते समय मैं उनकी पात्रता-अपात्रता का विचार करता हूं, परंतु अपने पेट में रोटी डालते समय मुझे यह ख्याल नहीं आता कि मुझे भी इसका कोई अधिकार है या नहीं? जो हमारे दरवाजे आ जाता है, उसे अभद्र भिखारी ही क्यों समझा जाए, जिसे हम देते हैं, वह भगवान ही है, ऐसा हम क्यों न समझें?

    राजयोग कहता है-तुम्हारे कर्म का फल किसी न किसी को तो मिलेगा ही, तो उसे भगवान को ही दे डालो। उसी को अर्पण कर दो। राजयोग उचित स्थान बता रहा है। यहां फल त्याग रूपी निषेधात्मक कर्म भी नहीं है और सब कुछ भगवान को ही अर्पण करना है, इसलिए पात्रता-अपात्रता का प्रश्न भी हल हो जाता है। भगवान को जो दान दिया गया है, वह सदा सर्वदा शुद्ध ही है। तुम्हारे कर्म में यदि दोष भी रहा तो उसके हाथों में पड़ते ही वह पवित्र हो जाएगा।

    यह भी पढ़ें: जीवन आश्चर्य और सुनिश्चितता दोनों का मिश्रण है

    हम दोष दूर करने का कितना ही उपाय करें, तो भी दोष बाकी रहता ही है। फिर भी हम जितने शुद्ध होकर कर्म कर सकें, करें। बुद्धि ईश्वर की देन है। उसका जितना शुद्धता से उपयोग किया जा सकता है, करना हमारा कर्तव्य ही है। अत: पात्रापात्र-विवेक तो करना ही चाहिए, किंतु भगवद्भाव रखने से वह सुलभ हो जाता है।

    फल का विनियोग चित्त-शुद्धि के लिए करना चाहिए। जो काम जैसा हो जाए, वैसा ही भगवान को अर्पण कर दो। प्रत्यक्ष क्रिया जैसे-जैसे होती जाए, वैसे-वैसे उसे भगवान को अर्पण करके मन की पुष्टि प्राप्त करते रहना चाहिए। यह तो क्या, मन में उत्पन्न होने वाली वासनाएं और काम-क्रोधादि विकार भी परमेश्वर को अर्पण करके छुट्टी पाना है। काम-क्रोध आम्हीं वाहिले विट्ठलीं- काम क्रोध मैंने प्रभु के चरणों में अर्पित कर दिए हैं। यहां न तो संयमाग्नि में जलना है, न झुलसना। चट अर्पण किया और छूटे। न किसी को दबाना है, न मारना।

    इंद्रियां भी साधन हैं। सुनो जरूर, पर हरि कथा ही सुनो। न सुनना कठिन है, परंतु हरि कथा रूपी श्रवण का विषय देकर कान का उपयोग करना अधिक सुलभ, मधुर और हितकर है। अपने कान तुम राम को दे दो। मुख से राम नाम लेते रहो। इंद्रियां शत्रु नहीं हैं। वे अच्छी हैं। उनमें बड़ी सामर्थ्य है। अत: ईश्वरार्पण बुद्धि से प्रत्येक इंद्रिय से काम लेना, यही राजयोग है।