कौन थे अष्टावक्र ऋषि और कैसे शास्त्रार्थ के जरिए उन्होंने अपने पिता को जीवित कर दिया था ?
महान ऋषि अष्टावक्र (Rishi Ashtavakra) ने अपने जीवनकाल में कई महत्वपूर्ण रचनाएं की हैं। इनमें अष्टावक्र गीता प्रमुख हैं। अष्टावक्र गीता के पाठ से व्यक्ति को जीवन के सार का पता चलता है। स्वयं अष्टावक्र ऋषि ने भी अपने पिता को आत्म ज्ञान हासिल करने की सलाह दी थी। इस वाक्य को लेकर ही अष्टावक्र ऋषि के पिता उनसे अप्रसन्न थे।

धर्म डेस्क, नई दिल्ली। अष्टावक्र गीता की रचना उद्दालक ऋषि के शिष्य के पुत्र ने की थी। यह ग्रंथ उपनिषद और ब्रह्मसूत्र के समतुल्य है। इतिहासकारों की मानें तो यह एक अमूल्य ग्रंथ है। इस ग्रंथ में भगवद्गीता समान ईश्वर भक्ति, ज्ञान, वैराग्य और मुक्ति का वर्णन है। साथ ही सिद्ध पुरुष यानी योगी की अवचेतना और दशा का भी विस्तारपूर्वक वर्णन है। वर्तमान समय में भी अष्टावक्र गीता उपलब्ध है। सामान्य मनुष्य अष्टावक्र गीता का ज्ञान ग्रहण कर जीवन में अपना उद्धार कर सकता है। लेकिन क्या आपको पता है कि अष्टावक्र गीता के रचनाकार ने शास्त्रार्थ के माध्यम से अपने मृत पिता को जीवित कर दिया था ? साथ ही श्राप से भी मुक्ति पाई थी। आइए, इसके बारे में सबकुछ जानते हैं-
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कौन थे अष्टावक्र ? (The great sage Ashtavakra)
अष्टावक्र गीता के रचनाकार कहोड़ ऋषि के पुत्र थे। कहोड़ तत्कालीन समय में महान ऋषि उद्दालक के शिष्य थे। ऋषि उद्दालक बहुत बड़े ज्ञानी थे। अन्य शिष्यों की तुलना में कहोड़ सर्वश्रेष्ठ थे। अतः ऋषि उद्दालक ने उन्हें सभी वेदों का ज्ञान दिया। शिक्षा पूर्ण होने के बाद कहोड़ के दूरस्थ होने का भय ऋषि उद्दालक को होने लगा।
इसी चिंता में ऋषि उद्दालक रहने लगे। एक दिन उनकी धर्म पत्नी ने उनके मनोभाव को पढ़ लिया। उस समय उन्होंने भय और चिंता का कारण पूछा। तब उन्होंने कहा कि कहोड़ का आंखों से ओझल होना बर्दाश्त नहीं कर पाऊंगा। यह जान उनकी पत्नी सुशीला ने उन्हें पुत्री का विवाह शिष्य कहोड़ से करने की सलाह दी।
धर्मपत्नी सुशीला की राय ऋषि उद्दालक को पसंद आया। कालांतर में कहोड़ की शादी ऋषि उद्दालक की पुत्री सुजाता से हुई। कहोड़ सपरिवार ऋषि उद्दालक के साथ आश्रम में रहने लगे। इसी दौरान सुजाता ने कहोड़ को पिता बनने की सूचना दी। इस सूचना से आश्रम में खुशहाली छा गई।
एक दिन कहोड़ वेदपाठ कर रहे थे। उस समय किसी स्थान पर ऋषि कहोड़ ने गलत उच्चारण किया। यह जान गर्भ में पल रहे पुत्र ने कहा-पिताजी आप वेदपाठ का उच्चारण गलत कर रहे हैं। इसे स्पष्ट और शुद्ध श्रवण करें। साथ ही आत्मा और परमात्मा को जानने की कोशिश करें। वेद पढ़ने से केवल ज्ञान अर्जन हो सकता है। यह सुन कहोड़ अति क्रोधित हो उठा। तत्काल ही कहोड़ को अष्टावक्र पैदा होने का श्राप दे दिया।
कालांतर में सुजाता के गर्भ से अष्टावक्र का जन्म हुआ था। अष्टावक्र का शरीर आठ जगहों से टेढ़ा था। कालांतर में राजा जनक के दरबार में कहोड़ को बंदी से शास्त्रार्थ में पराजय मिली थी। इस पराजय के बाद शर्त के तहत ऋषि कहोड़ को जल समाधि लेनी पड़ी। इसी दौरान अष्टावक्र का जन्म हुआ था। पिता की अनुपस्थिति में ऋषि उद्दालक को अष्टावक्र अपना पिता मानने लगे थे।
हालांकि, एक दिन सुजाता के भाई श्वेतकेतु ने अष्टावक्र को बताया कि ऋषि उद्दालक उनके पिता नहीं, बल्कि नाना जी हैं। तब अष्टावक्र अपनी मां सुजाता के पास जाकर अपने पिता के बारे में पूछा। उस समय अष्टावक्र को पता चला कि उनके पिता को शास्त्रार्थ में पराजय मिली थी। इसके लिए उन्हें जल समाधि लेने पड़ी।
यह जान अष्टावक्र शास्त्रार्थ हेतु राजा जनक के दरबार जा पहुंचे और बंदी को शास्त्रार्थ के लिए ललकारा। इस समय राजा जनक ने अष्टावक्र से कई सवाल पूछे। इन सवालों के सही जबाव देने के बाद बंदी को शास्त्रार्थ के लिए बुलाया। शास्त्रार्थ शुरू हुई। इसमें 13 बार प्रश्नोत्तर किया गया।
हालांकि, एक स्थान पर बंदी श्लोक भूल गया। उस समय अष्टावक्र ने श्लोक सुनाकर पूरा किया था। यह देख राजा जनक ने अष्टावक्र को विजेता घोषित कर दिया। उस समय अष्टावक्र ने बंदी को जल समाधि देने की याचना राजा जनक से की। शर्त के तहत बंदी को जल समाधि लेना ही पड़ता।
यह जान बंदी ने राजा जनक से क्षमा करने की याचना की। साथ ही यह भी कहा कि वह वरुण देव का पुत्र है और अब तक जितने लोगों ने जल समाधि ली है। उन्हें जीवित कर देगा। राजा जनक ने ऋषि कहोड़ समेत सभी पंडितों को जीवित करने के शर्त पर क्षमा कर दिया। बंदी ने तपोबल से सभी को पुनर्जीवित कर दिया।
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