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    Sawan 2025: मां पार्वती से प्राप्त करें आत्मज्ञान और परमात्मा का ज्ञान

    Updated: Mon, 21 Jul 2025 01:26 PM (IST)

    जैसे माता पार्वती ने परमात्मा शिव से आत्मज्ञान प्राप्त किया वैसे ही हम सभी उनके ज्ञान के अधिकारी हैं। हमें आत्मज्ञान और श्रेष्ठ वरदान पाने के लिए स्वयं में योग्यता विकसित करनी होगी। सृष्टि एक रंगमंच है जिसमें जीवात्मा परमात्मा और प्रकृति का खेल चलता रहता है। आत्मा एक दिव्य ज्योति बिंदु है जिसे केवल आध्यात्मिक ज्ञान से जाना जा सकता है।

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    Sawan 2025: करें परमात्मा शिव से योग।

    ब्रह्मा कुमारी शिवानी (आध्यात्मिक प्रेरक वक्ता)। जैसे माता पार्वती ने परमात्मा शिव से आत्मज्ञान, ब्रह्मविद्या व अखिल ब्रह्मांड का तत्व ज्ञान प्राप्त करने के लिए असीम त्याग, घोर तप व प्रखर साधना की थी, वैसे ही हम सभी उनके आध्यात्मिक ज्ञान, गुण, शक्ति, कृपा व सान्निध्य प्राप्त करने के अधिकारी हैं। हमें उनसे आत्मज्ञान एवं श्रेष्ठ वरदान पाने की पात्रता व योग्यता स्वयं में विकसित करनी होगी। कहा जाता है यह सृष्टि एक रंगमंच है। जड़ तत्वों के साथ जीवात्माओं का अभिनय करने का यह एक रंगमंच, जिसमें सूर्य, चंद्र व सितारे नभ को प्रकाश व अलंकरण प्रदान करने वाले प्राकृतिक संसाधन हैं।

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    जीव-जगत वाली सृष्टि

    यह जड़ और जीव-जगत वाली सृष्टि एक चक्र की भांति घूमती है, जिसमें जीवात्मा, परमात्मा और प्रकृति का खेल चलता रहता है। सृष्टि चक्र के साथ-साथ इन तीनों मुख्य अभिनेताओं के बारे में सही जानकारी प्राप्त करना संपूर्ण ज्ञान है।

    वस्तुत:, बाह्य प्रकृति पंचतत्व (जल, अग्नि, वायु, आकाश व धरती) से बनी है। इन पंचतत्व वाले शरीर को धारण करने वाले सूक्ष्म और चेतन तत्व को जीवात्मा व अंतरात्मा कहते हैं। वास्तव में, आत्मा पंचतत्व की तरह कोई स्थूल तत्व नहीं है। यह तो एक चेतन दिव्य ज्योति बिंदु स्वरूप है, अजर-अमर अविनाशी है। इस अंतरात्मा के लिए तो कहते हैं कि यह भृकुटि के बीच चमकता एक अजब सितारा है। असल में माथे पर हम जो तिलक-टीका आदि लगाते हैं, वह आत्म स्मृति का सूचक या द्योतक है।

    आत्मा अमर है

    इसलिए की आत्मा अमर है, मंदिरों में पुजारी लोग महिलाओं के माथे पर तिलक लगाते हुए कहते हैं सदा सुहागिन रहो! और पुरुषों के मस्तक पर टीके लगाने के व्यक्त आयुष्मान भव का आशीर्वाद देते हैं। इसका भाव यही है कि हमारी भृकुटि के बीच मस्तिष्क के मध्य भाग में विद्यमान आत्मा की स्मृति में हम सदा रहेंगे अथवा अंतरात्मा की याद में रहकर दैनिक कर्म करेंगे तो हम दीर्घायु रहेंगे और अकाल मृत्यु से बचे रहेंगे।

    आत्मा का रूप अति सूक्ष्म है, दिव्य ज्योति बिंदु स्वरूप है। स्थूल नेत्रों से इसे देखा नहीं जा सकता है, न ही भौतिक कर्मेंद्रियों द्वारा इसे अनुभव किया जा सकता है। केवल आध्यात्मिक ज्ञान और परमात्म योग (राजयोग) के नियमित अभ्यास से अंतरात्मा को जाना व देखा जा सकता है। उसके मूल स्वरूप एवं गुणों का अनुभव किया जा सकता है। इसलिए अंतरात्मा को आंतरिक नेत्र, ज्ञान चक्षु व तीसरी आंख भी कहा जाता है, जिसे सर्वात्माओं के आध्यात्मिक पिता स्वयं स्वयंभू परमात्मा ही धरा पर अवतरित होकर खोलते हैं।

    निराकार ज्योति बिंदु

    जैसे अंतरात्मा का रूप निराकार ज्योति बिंदु है, वैसे ही सर्वात्माओं के पिता परमात्मा भी निराकार दिव्य ज्योति स्वरूप हैं, जिन्हें शिव ज्योतिर्लिंग भी कहा जाता है। आत्माओं के सदृश परमात्मा भी रूप में दिव्य ज्योति बिंदु हैं, पर आध्यात्मिक ज्ञान, गुण और शक्तियों के सिंधु हैं, आध्यात्मिक चेतना के केंद्र बिंदु और चिरंतन व शाश्वत सागर हैं। आत्मा और परमात्मा निराकार दिव्य ज्योति स्वरूप होने के कारण उनका रहने का मूल स्थान दिव्य ज्योति धाम व परमधाम है, जो कि दिव्य प्रकाश से भरा अनंत महासागर है। इसे ब्रह्मलोक व ब्रह्मांड भी कहते हैं।

    अतिसूक्ष्म लाल प्रकाश का महातत्व

    क्योंकि, 'ब्रह्म' एक अतिसूक्ष्म लाल प्रकाश का महातत्व है, जो कि प्रकृति के पांच तत्वों वाले जगत, यानी सूर्य चंद्र व सितारों के जगत से भी परे परमधाम में चारों ओर व्याप्त है। भक्तों की पुकार सुनकर परमधाम से परमात्मा पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। वे अज्ञान, अंधकार, विकार, व्यभिचार, भ्रष्टाचार एवं अधर्म आचरण में भटके हुए आत्माओं को अपनी दिव्य ज्ञान व राजयोग की शिक्षा प्रदान करते हैं, आत्माओं की मुक्ति, जीवन मुक्ति व संसार की गति सद्गति का मार्ग प्रशस्त करते हैं। तभी सावन में शिवजी के लिए भक्तजन गाते हैं, ज्ञान सूर्य प्रगटा, अज्ञान अंधेर विनाश।

    भौतिक प्रकृति

    केवल सर्वात्माओं के सदा कल्याणकारी सदाशिव भगवान ही आत्मा, परमात्मा, विश्व ब्रह्मांड, भौतिक प्रकृति, सृष्टि चक्र, तीनों कालों तथा तीनों लोक का ज्ञान प्रदान कर सकते हैं। क्योंकि, वे सदा निराकार, निराधार, निर्विकार, त्रिनेत्री, त्रिकालदर्शी व त्रिभुवनेश्वर है। वे अंतरात्मा, परमात्मा, परमधाम, प्रकृति व पूरे सृष्टि-चक्र के तत्व ज्ञान के वे शाश्वत स्रोत हैं। कहते हैं, परमेश्वर शिव ने यह तत्व ज्ञान तपस्विनी पार्वती को दिया था और उनकी दिव्य संतानों द्वारा पूरी सृष्टि पर शुभता, श्रेष्ठता, पवित्रता एवं सुख शांतिमय समृद्धि भरी मानव सभ्यता की पुनः स्थापना की थी। उन्होंने आसुरी व दानवी तत्वों का, असभ्यता व अपसंस्कृति का विनाश किया था।

    अखिल ब्रह्मांड का तत्व

    जैसे माता पार्वती ने परमात्मा शिव से आत्मज्ञान, ब्रह्मविद्या व अखिल ब्रह्मांड का तत्व ज्ञान प्राप्त करने के लिए असीम त्याग, घोर तप व प्रखर साधना की थी, वैसे ही हम सभी उनके आध्यात्मिक ज्ञान, गुण, शक्ति, कृपा व सान्निध्य प्राप्त करने के अधिकारी हैं। हमें उनसे आत्मज्ञान एवं श्रेष्ठ वरदान पाने की पात्रता व योग्यता स्वयं में विकसित करनी होगी। देवी पार्वती की तरह हमें अपनी देह का मोह, सांसारिक प्राप्तियों से आसक्ति, लोभ, लालच, क्रोध व अहंकार आदि मनोविकारों को त्याग करने की आवश्यकता है। भगवान शिव के वरदानों को प्राप्त करने के मार्ग में सबसे बड़ा बाधक है काम विकार एवं अहंकार।

    विकार और अहंकार का त्याग

    इसलिए, देहाभिमान से उत्पन्न काम विकार और अहंकार का त्याग सबसे बड़ा त्याग माना जाता है, जो कि माता पार्वती ने भगवान शिव के प्रेम और सान्निध्य को पाने के लिए किया था। हमें यदि मन-बुद्धि से परमात्मा शिव से योग करना है और भगवान से सुख, शांति व समृद्धि का आशीर्वाद पाना है तो हमें भी देहाभिमान का त्याग करना होगा। देह के अभिमान को दूर करने का सहज उपाय है, आत्मा-परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करना एवं सदा आत्माभिमानी होना व उस स्थिति में स्थित होकर कर्म करने का नियमित अभ्यास करना।

    सहज और सदा हम

    यह अभ्यास भी स्वतः, सहज और सदा हम तब कर सकते हैं, जब हम आध्यात्मिक पढ़ाई के आधार पर अंतरात्मा के मौलिक गुण जैसे कि आत्मिक शांति, सुख, प्रेम, पवित्रता, प्रसन्नता व शक्ति आदि का सतत मनन-चिंतन के साथ, उन्हें व्यावहारिक जीवन में धारण, प्रयोग व अनुभव करने का प्रयास करेंगे। इसके लिए हमें सांसारिक कर्म, व्यवहार व कारोबार करने के साथ-साथ आत्मा- परमात्मा ज्ञान, योग विद्या, सादा व सात्विक जीवन शैली को रोज की दिनचर्या में शामिल करना होगा। इससे ही हम अपनी वर्तमान व भविष्य को श्रेष्ठ, सफल, सुखमय व प्रसन्नचित बना सकते हैं।

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