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    Sanskrit Shlokas: जीवन में उतारेंगे इन श्लोकों का अर्थ, तो कभी नहीं होगी निराशा

    Updated: Thu, 31 Jul 2025 11:01 AM (IST)

    सफलता और असफलता दोनों ही व्यक्ति की मेहनत पर निर्भर करती हैं। कई लोग एक बार असफल होने के बाद प्रयास करना छोड़ देते हैं तो कुछ लोग तब तक कोशिश करते रहते हैं जब तक कि वह सफल नहीं हो जाते। संस्कृत के कई ऐसे श्लोक (Sanskrit Shlokas in Hindi) हैं जो व्यक्ति को निरंतर प्रयास करने के लिए प्रेरित करते हैं। चलिए जानते हैं उनके बारे में।

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    मार्गदेशन के लिए संस्कृत के कुछ श्लोक।

    धर्म डेस्क, नई दिल्ली। संस्कृत न केवल भारत बल्कि दुनिया की सबसे प्राचीन भाषाओं में से एक मानी गई है। यह भाषा जितनी प्राचीन है उनती ही वैज्ञानिक भी है। संस्कृत ग्रंथों में ऐसे कई श्लोक मौजूद हैं, जो व्यक्ति को प्रेरणा देते हैं।

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    आइए पढ़ते हैं संस्कृत के कुछ ऐसे ही श्लोक, जिनके अर्थ को यदि आप जीवन में उतारते हैं, तो इससे आपके लिए सफलता (Sanskrit Shlokas for Success) की राह और भी आसान हो सकती है।

    1. काक चेष्टा, बको ध्यानं, स्वान निद्रा तथैव च।

    अल्पाहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणं॥

    इस श्लोक में बताया गया है कि एक विद्यार्थी में क्या-क्या गुण होने चाहिए। श्लोक के अनुसार, कौवे जैसी चेष्टा यानी प्रयास, बगुले जैसा ध्यान, स्वान अर्था कुत्ते जैसी नींद, साथ ही कम खाने वाला और गृहत्यागी (घर से दूर रहने वाला) - ये पांच गुण एक विद्यार्थी में जरूर होने चाहिए।

    2. “योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय ।

    सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥

    यह श्लोक श्रीमद्भगवद्गीता का है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि हे धनंजय! तू आसक्ति को त्यागकर, सफलताओं और विफलताओं में समान भाव से सभी कर्मों को कर। ऐसी समता ही योग कहलाती है। अर्थात सफलता और असफलता में समान भाव रखना ही योग कहलाता है।"

    3. “उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।

    क्षुरासन्नधारा निशिता दुरत्यद्दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥”

    इस श्लोक का अर्थ है कि उठो, जागो, और तब तक मत रुको जब तक कि तुम अपने लक्ष्य को प्राप्त न कर लो। सफलता का रास्ता अत्यन्त दुर्गम भी हो सकते हैं, लेकिन विद्वानों का कहना हैं कि कठिन रास्तों पर चलकर ही सफलता को प्राप्त किया जा सकता है।

    (Picture Credit: Freepik)

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    4. न चोरहार्य न राजहार्य न भ्रतृभाज्यं न च भारकारि।

    व्यये कृते वर्धति एव नित्यं विद्याधनं सर्वधनप्रधानम्।।

    इस श्लोक में विद्या के महत्व को दर्शाया गया है। विद्या एक ऐसा धन जिसे चुराया नहीं जा सकता, न ही इसे छीना जा सकता है और न ही भाइयों के बीच इसका बंटवारा किया जा सकता है। विद्या रूपी धन को संभलना बिल्कुल भी मुश्किल नहीं है और यह खर्च करने पर और अधिक बढ़ता है।

    5. “उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः।

    न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगा:।”

    सिर्फ इच्छा करने से कार्य पूरे नहीं हो सकते, बल्कि इसके लिए मेहनत भी करनी पड़ती है। जैसे सोये हुए शेर के मुंह में हिरण खुद चलकर नहीं आता, उसके लिए शेर को परिश्रम करना पड़ता है।

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    अस्वीकरण: इस लेख में बताए गए उपाय/लाभ/सलाह और कथन केवल सामान्य सूचना के लिए हैं। दैनिक जागरण तथा जागरण न्यू मीडिया यहां इस लेख फीचर में लिखी गई बातों का समर्थन नहीं करता है। इस लेख में निहित जानकारी विभिन्न माध्यमों/ज्योतिषियों/पंचांग/प्रवचनों/मान्यताओं/धर्मग्रंथों/दंतकथाओं से संग्रहित की गई हैं। पाठकों से अनुरोध है कि लेख को अंतिम सत्य अथवा दावा न मानें एवं अपने विवेक का उपयोग करें। दैनिक जागरण तथा जागरण न्यू मीडिया अंधविश्वास के खिलाफ है।