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    श्री रामनवमी विशेष: राष्ट्र की एकता के सूत्रधार भगवान श्रीराम

    By Shivani SinghEdited By:
    Updated: Tue, 05 Apr 2022 03:37 PM (IST)

    Ram Navami 2022 सहनशीलता एवं धैर्य भगवान श्रीराम के विशेष गुण थे। 14 वर्ष वन में संन्यासी की भांति जीवन बिताना उनकी सहनशीलता की पराकाष्ठा है। राज्याभिषेक के अवसर पर 14 वर्ष के वनवास का समाचार सुनकर श्रीराम के मुखमंडल पर किंचित मात्र भी प्रभाव न पड़ा।

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    श्री रामनवमी विशेष: चैत्र शुक्ल नवमी प्रभु श्रीराम के जन्मोत्सव के रूप में विख्यात है

     नई दिल्ली, आध्यात्मिक विषयों के अध्येता आचार्य दीप चन्द भारद्वाज: हिंदू धर्म में रामनवमी का विशेष महत्व है। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को भगवान श्रीराम का राजा दशरथ के घर में जन्म हुआ था। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, धरती पर असुरों का संहार करने के लिए भगवान विष्णु ने त्रेतायुग में श्रीराम के रूप में अवतार लिया। श्रीराम रघुकुल की शाश्वत परंपराओं के पोषक एवं संरक्षक थे। चैत्र शुक्ल नवमी प्रभु श्रीराम के जन्मोत्सव के रूप में विख्यात है। गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस में तथा महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में प्रभु श्रीराम की दिव्य स्वर्णिम गाथा का वर्णन किया है।

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    त्रेता युग में श्रीराम ने राक्षसों के आतंक से इस धरती को मुक्त करके सुख, शांति और समृद्धि के राज्य की नींव रखी थी। श्रीराम दृढ़ संकल्प के धनी थे। अपने संपूर्ण जीवन में उन्होंने मनसा, वाचा, कर्मणा जो भी प्रतिज्ञा की, उसे मनोयोग से पूर्ण किया। ‘रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाई पर वचन न जाई।’ तुलसी ने मानस में इस दोहे के माध्यम से श्रीराम की अद्भुत विशेषता का वर्णन किया है। श्रीराम का पूरा जीवन त्याग, मर्यादा, संयम और धैर्य का परिचायक है। विषम परिस्थितियों में भी वे नीति सम्मत रहे। स्वयं की भावना एवं सुखों से समझौता कर सदा धर्म एवं सत्य का साथ दिया।

    सहनशीलता एवं धैर्य भगवान श्रीराम के विशेष गुण थे। 14 वर्ष वन में संन्यासी की भांति जीवन बिताना उनकी सहनशीलता की पराकाष्ठा है। राज्याभिषेक के अवसर पर 14 वर्ष के वनवास का समाचार सुनकर श्रीराम के मुखमंडल पर किंचित मात्र भी प्रभाव न पड़ा। उन्होंने बड़ी विनम्रता से पिता की आज्ञा को शिरोधार्य किया। आदि कवि वाल्मीकि ने उनके विषय में कहा है कि, ‘श्रीराम गांभीर्य में सागर के समान और धैर्य में हिमालय के समान हैं।’ महर्षि वाल्मीकि ने श्रीराम को कुशल प्रशासक एवं श्रेष्ठ न्यायप्रिय राजा के रूप में वर्णित करते हुए कहा है कि उपलब्ध संसाधनों का समुचित प्रयोग श्रीराम के व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषता है। एक-एक पत्थर जोड़कर समुद्र पर पुल बनाना तथा दुर्जेय लंका नगरी तक वानरों के माध्यम से पहुंचना उनकी कुशल प्रबंधन क्षमता एवं नीति निपुणता का परिचायक है।

    श्रीराम श्रेष्ठ प्रजा पालक थे। प्रतिपल अपनी प्रजा के कल्याण में तत्पर। उनके श्रेष्ठ प्रशासनिक ज्ञान का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि जब भरत राम के पास पहुंचे तो राम ने पूछा, प्रजा से कर कैसे ले रहे हो? भरत ने कहा, जैसे इक्ष्वाकु वंश लेता है। इस पर राम ने कहा, हम सूर्यवंशी हैं, हमें प्रजा से ऐसे कर लेना चाहिए, जैसे सूर्य पृथ्वी से जल लेता है। सूर्य समुद्र, नदी, तालाब से जल लेता है, परंतु लेने का पता नहीं चलता। जब वह बादलों के रूप में जरूरत के स्थानों पर बरसता है, तब देने का पता चलता है। इसी तथ्य को तुलसी इस प्रकार लिखते हैं :

    ‘बरषत हरषत लोग सब करषत लखै न कोइ।

    तुलसी प्रजा सुभाग ते भूप भानु सो होइ।।’

    अर्थात राजा को सूर्य के समान होना चाहिए। प्रजा से कर ग्रहण करते समय उन्हें किसी प्रकार का शारीरिक मानसिक कष्ट नहीं होना चाहिए और उसी कर की राशि से जब कल्याणकारी कार्य प्रजा के लिए किए जाएं तो संपूर्ण प्रजा को पता चले तथा वह प्रसन्न हो।

    त्रेता में ऋषि-मुनियों को राक्षसों ने आतंकित किया हुआ था। श्रीराम ने अपने पराक्रम से ऋषियों के आध्यात्मिक स्वाभिमान की रक्षा की तथा उनके आश्रमों को राक्षसों के भय से मुक्त किया। विश्वामित्र को ताड़का, सुबाहु के आतंक से मुक्ति दिलाई। वाल्मीकि, अत्रि, ऋषि मातंग ही नहीं, सैकड़ों ऋषियों के आश्रमों को उन्होंने ज्ञान, ध्यान और साधना का पावन केंद्र बनवाने में सहयोग किया। ऋषि अत्रि को राक्षसों से मुक्ति दिलाने के पश्चात श्रीराम दंडकारण्य गए, जहां आदिवासियों को बाणासुर के अत्याचारों से मुक्त करके उनके बीच रहे। श्रीराम ने ऋषि-मुनियों के स्वाभिमान एवं उनकी आध्यात्मिक स्वाधीनता की रक्षा कर उनके जीवन एवं भविष्य को स्वावलंबन के प्रकाश से आलोकित किया। इतना ही नहीं, दंडकारण्य क्षेत्र के हताश एवं भयभीत आदिवासियों को भी स्वाधीनता एवं स्वावलंबन का मूलमंत्र प्रदान किया।

    राजा श्रीराम अपनी प्रजा के सामाजिक एवं नैतिक मूल्यों के प्रबल पक्षधर एवं संरक्षक थे। रावण को मारकर लंका पर जब श्रीराम ने विजय प्राप्त कर ली, तब लक्ष्मण ने स्वर्णमयी लंका पर शासन करने का सुझाव दिया। तब श्रीराम ने कहा-‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’। हे लक्ष्मण, रावण की सोने की लंका में मेरी बिल्कुल रुचि नहीं है। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है। श्रीराम का यह चिंतन हमें भी अपनी मातृभूमि के प्रति प्रेम को अक्षुण्ण रखने की प्रेरणा प्रदान करता है।

    भगवान श्रीराम ने दया और करुणा के माध्यम से सभी को अपनी छत्रछाया प्रदान की। उनकी सेना में पशु, मानव, दानव सभी का समान स्थान था। सुग्रीव को राज्य प्रदान करना, हनुमान, जामवंत, नल-नील को समय-समय पर नेतृत्व का अवसर प्रदान कर उन्होंने सभी के मानस पटल पर स्वावलंबन का बीजारोपण किया। सुग्रीव हों या निषादराज, या फिर विभीषण, हर जाति, वर्ग के मित्रों के प्रति श्रीराम का अपार स्नेह था। श्रीराम भरत के लिए आदर्श भाई, हनुमान के लिए स्वामी, प्रजा के लिए नीतिकुशल व न्यायप्रिय राजा, सुग्रीव और केवट के परम मित्र थे।

    भारतीय समाज में मर्यादा, श्रेष्ठ आदर्श, विनम्रता, विवेक, लोकतांत्रिक मूल्यों और संयम का नाम राम है। उनका महान व्यक्तित्व संयमित, संस्कारित, मर्यादित जीवन की प्रेरणा प्रदान करता है। ईश्वरीय निधि और असाधारण गुणों के स्वामी होते हुए भी उन्होंने एक सामान्य मानव का जीवन जिया। सभी संबंधों को पूर्ण तथा उत्तम रूप से निभाने की शिक्षा श्रीराम के पावन जीवन से प्राप्त होती है। यह श्रीराम के कुशल प्रशासन तथा आध्यात्मिक विज्ञान का ही प्रभाव था कि अयोध्या की संपूर्ण प्रजा शारीरिक, मानसिक और आत्मिक रूप से पूर्ण समृद्ध थी। बालकांड में महर्षि वाल्मीकि कहते हैं कि उनकी नगरी में कोई नर-नारी पापी, निष्ठुर, मूर्ख, नास्तिक नहीं था। समाज ज्ञानवान एवं शीलवान था। यही कारण है कि रामराज्य के इन आध्यात्मिक आदर्शो का अनुसरण करने की प्रेरणा हमें सदैव मिलती है।

    राम का विशाल हृदय प्रत्येक प्राणी के प्रति वात्सल्य, स्नेह, ममता व करुणा से परिपूर्ण है। शत्रुओं के प्रति भी उनमें वैरभाव नहीं है। रावण के वध के पश्चात उन्होंने पूरे विधि-विधान से उसका अंतिम संस्कार करवाया। शत्रु के प्रति ऐसे श्रेष्ठ व्यवहार का उदाहरण अन्यत्र नहीं मिलता।

    तुलसी के राम शील, शक्ति और सौंदर्य के आदर्श हैं। शरणागत वत्सल तथा लोकमंगलकारी हैं। पिता दशरथ की मृत्यु के पश्चात शोक संतप्त संपूर्ण परिवार तथा भ्राता भरत को वैराग्य का उपदेश देना श्रीराम के आध्यात्मिक ज्ञान एवं साधना का द्योतक है। वर्तमान समय की भोगवादी संस्कृति के कारण विघटित होते परिवारों के लिए श्रीराम का जीवन श्रेष्ठ पारिवारिक आदर्श को प्रस्तुत करने वाला है।

    श्रीराम प्रत्येक प्राणी में रमी हुई विराट सत्ता हैं। उनका पावन चरित्र जाति, संप्रदाय एवं पक्ष से ऊपर है। वह राष्ट्र की एकता के सूत्रधार हैं। शबरी की कुटिया में नतमस्तक होकर जाने, निषादराज का आतिथ्य स्वीकार करने, वनवासियों को अपना बना लेने से उनकी सामाजिक सद्भावना का पता चलता है। श्रीराम के जीवन के स्वर्णिम सिद्धांतों में ही राष्ट्र की स्वाधीनता एवं स्वाभिमान का सूत्र निहित है, हमें उनका अनुसरण करना चाहिए।

    भगवान श्रीराम ने ऋषि-मुनियों के स्वाभिमान एवं उनकी आध्यात्मिक स्वाधीनता की रक्षा कर उनके जीवन एवं भविष्य को स्वावलंबन के प्रकाश से आलोकित किया। इतना ही नहीं, दंडकारण्य क्षेत्र में राक्षसों के अत्याचारों से भयभीत हुए आदिवासियों को श्रीराम ने स्वाधीनता एवं स्वावलंबन का मूलमंत्र भी प्रदान किया..

    Pic Credit- Instagram/maryada_purushottam_ram