Radha Ashtami 2020: अनन्य प्रेम के शिखर राधा-कृष्ण, जानें उनके बारे में महत्वपूर्ण बातें
Radha Ashtami 2020 श्रीकृष्ण कहते हैं कि जीवन भर मैंने कर्म किया ज्ञान दिया योग सिखाया और भक्ति दी लेकिन ये सब उस राधा के निशब्द प्रेम के समर्पण में ही जीवंत हुए।
Radha Ashtami 2020: डॉ. मयंक मुरारी। सोमनाथ के समुद्र तट पर अवस्थित जंगल। अंतिम वेला में श्रीकृष्ण टहल रहे थे। समग्र मार्ग पर दोनों ओर तमाल वृक्ष फैले हुए थे। कहीं-कहीं वृक्ष के नीचे आंखें झुकाकर बैठी गायें रंभा रही थीं। तब प्रतिध्वनि गूंजीं- जब तक तुम वापस नहीं लौटोगे, तब तक मेरी दृष्टि इस तमाल वृक्ष के बीच ही अपलक देखती रहेगी। वृंदावन की प्रकृति रूप राधा के मुख से स्वाभाविक रूप से ये शब्द निकले थे और तब कृष्ण को लगा कि राधा का अब तक का जीवन मेरे आने का इंतजार ही तो था। निश्चित ही यह सुगंध उसकी प्रतीक्षा की यादों का स्मरण है। वे कहते हैं कि मेरे दर्शन करते समय पलकें झपकने के कारण जो जरा-सा व्यवधान पड़ता है, उसे सहन न कर सकने के कारण गोपियां नयनों के देव की निंदा करती हैं। उन्हीं गोपियों का परित्याग कर आज मैं कितना दूर आ गया हूं (श्रीमद. 10.31.15)।
श्रीकृष्ण कहते हैं कि जीवन भर मैंने कर्म किया, ज्ञान दिया, योग सिखाया और भक्ति दी, लेकिन ये सब उस राधा के नि:शब्द प्रेम के समर्पण में ही जीवंत हुए। पुरुष रूप में जो भी श्रेष्ठ है, उसमें प्रकृतिनिष्ठ राधा और गोपियों का प्रेम ही आधार है। प्रकृति रूप राधा पुरुष रूप श्रीकृष्ण के साथ इतनी आबद्ध हैं कि संसार में उनकी जैसी चाहत को कोई बांध ही नहीं सकता। यह प्रेम का शिखर है।
जब प्रेम अपने उत्कर्ष को छूता है, तब देह तो स्थूल मन हो जाती है और मन सूक्ष्म देह हो जाता है। तब प्रकृति पूर्ण होती है। जहां पंचतत्व एक दूसरे में पूर्णत: विलीन हो जाते हैं। राधा और कृष्ण का मिलन प्रकृति और पुरुष का सहज और स्वाभाविक मिलन है। उनके मिलन और प्रेम का आरंभ और दूरियां संयोग नहीं है। यह बहाव है। दूर होंगे, लेकिन अलग नहीं होंगे। पूर्णता में विलीन होना ही प्रेम की समग्रता है। जीवन में कुछ पाने के लिए राधा की तरह खोना होगा। भगवती राधा के लिए कृष्ण ही संपूर्ण पुरुष हैं। उस पुरुष ने खंड-खंड में बंटी प्रकृति रूपी गोपियों को समेट कर एक कर दिया। उनको मिला कर पूर्णता प्रदान की और राधा नाम दिया।
कृष्ण के विराट को समेटने के लिए राधा ने अपने हृदय का अनंत विस्तार किया। उस अनंत प्रेम के विस्तार में ही लीलाधारी ने कर्म और धर्म की सहज यात्रएं कीं। जब उद्धव ने ब्रज की यात्र शुरू की, तो थोड़ा व्याकुल थे। उन्हें संदेह था। तब श्रीकृष्ण ने कहा कि मैं ब्रज त्यागकर कहीं नहीं जाता। मैं तो वृंदावन में ही हूं। तुम मुझसे बिछुड़ने नहीं जा रहे, बल्कि मुङो (राधारूप में) प्राप्त करने जा रहे हो। मनुष्य कहीं जाए तो कार्य समाप्ति के बाद लौट आता है। लेकिन जहां केवल प्रीतिरस का आस्वाद है, उसमें कोई निमग्न हो जाए, तो लौटना मुश्किल है। ब्रज श्रीकृष्ण की कर्म नहीं, रसभूमि है। मथुरा के कृष्ण को लोग परदेवता (वृष्णीनां) मानते हैं, लेकिन वृंदावन के मोहन को स्वजन (गोपानां स्वजन:)। इसलिए श्रीकृष्ण भी बार-बार पूछते है कि- बूझत श्याम कौन तू गोरी। किंतु राधा और उनके प्रेम की थाह पाना संभव ही नहीं।
माता राधारानी खुद ही प्रकृति हैं। उनमें अनन्य प्रेम है, जो सभी के ईष्र्या का कारण है। लोककथा है कि राधा प्रेम की थाह पाने के लिए रुक्मिणी गर्म दूध के साथ राधा को अपनी जलन देती हैं। कृष्ण स्मरण कर राधा एक सांस में पी जाती हैं। रुक्मिणी देखती हैं कि श्रीकृष्ण के पैरों में छाले हैं, मानों गर्म खौलते तेल से उनके तलवे जल गए हों। वे पूछती हैं कि ये फफोले कैसे हो गए? कृष्ण कहते है कि प्रिये! मैं राधा के हृदय में वास करता हूं। तुम्हारे मन की जिस जलन को राधा ने चुपचाप पी लिया, वही मेरे तन से फूटी है।
बांसुरी बज रही है, प्रकृति का नृत्य जारी है, लेकिन हमारा ध्यान कहीं दूसरी ओर होता है। मानव को उसका स्वर सुनाई तो पड़ता है, लेकिन इंद्रियों के सुख में हमने सबकुछ विस्मृत कर दिया है। जब हमारे भीतर के केंद्र पर बांसुरी के स्वर बजेंगे और हमारी इंद्रियां उस स्वर के साथ नृत्य करेंगी, तभी उस परम पुरुष के साथ रास हो सकेगा। राधा इस महारास की स्थिति में सदैव अवस्थित हैं, क्योंकि वह खुद प्रकृति हैं। गोपियां उस प्रकृति की अभिव्यक्तियां हैं, जिन्होंने परमात्मा के प्रति प्रेम में सब कुछ मिट दिया। जहां न प्रकृति और न ही पुरुष का अस्तित्व बचे, वह राधा का प्रेम होता है। राधा के इस अद्वैत प्रेम की अभिव्यक्तियां ही कृष्ण के विराट स्वरूप और सद्कर्मो एवं ज्ञान के संदेश में प्रस्फुटित होती हैं। राधा के अनन्य प्रेम की विशालता ही श्रीकृष्ण को धर्म की स्थापना का आधार देती है।
राधा नाम की प्रेम की शक्ति, वायु, जल और अग्नि की तरह वास्तविक है। राधा उस सक्रिय और गतिशील शक्ति का नाम है, जिसने हजारों साल की समय की धारा में सृजन और संबंध के कई आयामों को स्पर्श किया है। साहित्य, संगीत, नृत्य, इतिहास, संस्कृति, कला, साधना और कर्म के शिखर पर राधा नाम की छाप है। बांसुरी की धुन में, नृत्य की थिरकन में, संगीत की लय में और कर्म की साधना में श्रीराधा हैं। उनका प्रकृति रूप समावेशित है। जीवन की आपाधापी में राधा-कृष्ण हैं, जीवन की शांति में राधा हैं। संकट में, निर्णय के सोपान पर शक्ति रूप में वह खड़ी हैं। यह राधारूपी प्रकृति का ही प्रभाव है कि पृथ्वी पर वनस्पतियां, जीव-जंतु और मानव खुद को सक्रिय रखते हैं।
[चिंतक और आध्यात्मिक लेखक]