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    पुरुषार्थ सिद्धि: मानव जीवन का परम उद्देश्य भोगों की पूर्ति है

    By Bhupendra SinghEdited By:
    Updated: Sun, 11 Jul 2021 04:18 AM (IST)

    धर्म वह है जो अभ्युदय और निश्रेयस की प्राप्ति कराए। अभ्युदय इह लोक में उन्नति की बात करता है तो निश्रेयस पारलौकिक उन्नति की। अत धर्म दोनों लोकों में कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। मानव जीवन का परम उद्देश्य भोगों की पूर्ति है।

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    मानव जीवन का परम उद्देश्य भोगों की पूर्ति है, जिसके लिए न धर्म की जरूरत है, न मोक्ष की।

    मानव जीवन के प्रयोजन की सिद्धि जिनके द्वारा होती है, पुरुषार्थ कहलाते हैं। पुरुषार्थ चार हैं-धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। यह मानव शरीर सभी योनियों में इसीलिए श्रेष्ठ है, क्योंकि इनकी सिद्धि इसी शरीर से संभव है। प्रथम तीन पुरुषार्थ तो प्राय: सभी दर्शन स्वीकार करते हैं, क्योंकि वे चतुर्थ की सिद्धि प्रथम तीन से ही मानते हैं। भोगवादी दर्शन दो ही पुरुषार्थ स्वीकार करता है अर्थ और काम। उसके अनुसार मानव जीवन का परम उद्देश्य भोगों की पूर्ति है, जिसके लिए न धर्म की जरूरत है, न मोक्ष की।

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    धर्म वह है, जो अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति कराए

    धर्म वह है, जो अभ्युदय और नि:श्रेयस की प्राप्ति कराए। अभ्युदय इह लोक में उन्नति की बात करता है तो नि:श्रेयस पारलौकिक उन्नति की। अत: धर्म दोनों लोकों में कल्याण का मार्ग प्रशस्त करता है। अर्थ से तात्पर्य धनादि द्रव्य से है, जिसके बिना न धर्म की प्राप्ति संभव है, न कामनाओं की र्पूित। विविध कामनाओं एवं इच्छाओं को काम की संज्ञा दी जाती है, जिसके बिना भी यह जीवन पूर्ण नहीं होता। मोक्ष का तात्पर्य मुक्ति से है। अधिकांश लोगों की अवधारणा है कि यह मृत्यु के बाद की स्थिति है, पर ऐसा है नहीं। वस्तुत: जागतिक प्रपंचों से मुक्ति ही मोक्ष है। यदि मनुष्य चाहे तो इनसे मुक्त रहकर इस जीवन में ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

    पुरुषार्थों का क्रम वैज्ञानिक है

    इन पुरुषार्थों का क्रम अत्यंत वैज्ञानिक है। प्रथम स्थान पर धर्म को रखने का प्रयोजन इसके प्रतिपादक ऋषि की दूरदर्शिता को प्रकट करता है। भ्रष्टाचार मुक्त सामाजिक संरचना के लिए यह क्रम महत्वपूर्ण है। यदि धर्म पालन करते हुए अर्थ और काम की प्राप्ति की जाए तो मानव जीवन का प्रयोजन और लोकतंत्र की सिद्धि, दोनों स्वत: हो जाते हैं। दुर्भाग्यवश जब लोग धर्म छोड़कर अर्थ और काम की प्राप्ति में लग जाते हैं तभी अनीति और भ्रष्टाचार पनपते हैं। अत: लोकहित में धर्म का पालन करते हुए अर्थ और काम की र्पूित के लिए यत्न करना चाहिए। तभी लोकतंत्र का निहितार्थ सफल हो सकेगा और पुरुषार्थ की सिद्धि भी।

    - डॉ. सत्य प्रकाश मिश्र