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    Margashirsha Amavasya पर तर्पण के समय करें इस खास स्तोत्र का पाठ, बरसेगी पितरों की कृपा

    Updated: Sun, 16 Nov 2025 08:03 PM (IST)

    मार्गशीर्ष अमावस्या 20 नवंबर को है, जिस दिन गंगा स्नान और पितरों के तर्पण, श्राद्ध व पिंडदान का विशेष महत्व है। गरुड़ पुराण के अनुसार, ऐसा करने से पूर्वजों को मोक्ष मिलता है और व्यक्ति सभी संकटों से मुक्त होता है। पितरों की कृपा पाने के लिए स्नान के बाद तर्पण करते समय गंगा स्तोत्र का पाठ करना चाहिए।  

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    Margashirsha Amavasya 2025: मार्गशीर्ष अमावस्या का धार्मिक महत्व

    धर्म डेस्क, नई दिल्ली। गुरुवार 20 नवंबर को मार्गशीर्ष अमावस्या है। इस शुभ अवसर पर बड़ी संख्या में साधक गंगा समेत उनकी सहायक नदियों में आस्था की डुबकी लगाते हैं। साथ ही पूजा, जप-तप और आर्थिक स्थिति अनुसार दान करते हैं।

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    गरुड़ पुराण में निहित है कि अमावस्या तिथि पर पितरों का तर्पण, श्राद्ध और पिंडदान करने से पूर्वजों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। साथ ही सभी प्रकार के संकटों से व्यक्ति को मुक्ति मिलती है। अगर आप भी पितरों की कृपा पाना चाहते हैं, तो मार्गशीर्ष अमावस्या के दिन स्नान-ध्यान के बाद पितरों का तर्पण करें। वहीं, तर्पण के समय इस खास स्तोत्र का पाठ करें।

    गंगा स्तोत्र

    देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे त्रिभुवनतारिणि तरल तरंगे।

    शंकर मौलिविहारिणि विमले मम मति रास्तां तव पद कमले ॥

    भागीरथिसुखदायिनि मातस्तव जलमहिमा निगमे ख्यातः ।

    नाहं जाने तव महिमानं पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥

    हरिपदपाद्यतरंगिणि गंगे हिमविधुमुक्ताधवलतरंगे ।

    दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥

    तव जलममलं येन निपीतं परमपदं खलु तेन गृहीतम् ।

    मातर्गंगे त्वयि यो भक्तः किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥

    पतितोद्धारिणि जाह्नवि गंगे खंडित गिरिवरमंडित भंगे ।

    भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये पतितनिवारिणि त्रिभुवन धन्ये ॥

    कल्पलतामिव फलदां लोके प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके ।

    पारावारविहारिणि गंगे विमुखयुवति कृततरलापांगे ॥

    तव चेन्मातः स्रोतः स्नातः पुनरपि जठरे सोपि न जातः ।

    नरकनिवारिणि जाह्नवि गंगे कलुषविनाशिनि महिमोत्तुंगे ॥

    पुनरसदंगे पुण्यतरंगे जय जय जाह्नवि करुणापांगे ।

    इंद्रमुकुटमणिराजितचरणे सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥

    रोगं शोकं तापं पापं हर मे भगवति कुमतिकलापम् ।

    त्रिभुवनसारे वसुधाहारे त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे ॥

    अलकानंदे परमानंदे कुरु करुणामयि कातरवंद्ये ।

    तव तटनिकटे यस्य निवासः खलु वैकुंठे तस्य निवासः ॥

    वरमिह नीरे कमठो मीनः किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।

    अथवाश्वपचो मलिनो दीनस्तव न हि दूरे नृपतिकुलीनः ॥

    भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।

    गंगास्तवमिमममलं नित्यं पठति नरो यः स जयति सत्यम् ॥

    येषां हृदये गंगा भक्तिस्तेषां भवति सदा सुखमुक्तिः ।

    मधुराकंता पंझटिकाभिः परमानंदकलितललिताभिः ॥

    गंगास्तोत्रमिदं भवसारं वांछितफलदं विमलं सारम् ।

    शंकरसेवक शंकर रचितं पठति सुखीः त्व ॥

     

    श्रीगङ्गाष्टकम्

     

    भगवति तव तीरे नीरमात्राशनोऽहं

    विगतविषयतृष्णः कृष्णमाराधयामि।

    सकलकलुषभङ्गे स्वर्गसोपानसङ्गे

    तरलतरतरङ्गे देवि गङ्गे प्रसीद॥

    भगवति भवलीलामौलिमाले तवाम्भः

    कणमणुपरिमाणं प्राणिनो ये स्पृशन्ति।

    अमरनगरनारीचामरग्राहिणीनां

    विगतकलिकलङ्कातङ्कमङ्के लुठन्ति॥

    ब्रह्माण्डं खण्डयन्ती हरशिरसि जटावल्लिमुल्लासयन्ती

    स्वर्लोकादापतन्ती कनकगिरिगुहागण्डशैलात्स्खलन्ती।

    क्षोणीपृष्ठे लुठन्ती दुरितचयचमूनिर्भरं भर्त्सयन्ती

    पाथोधिं पुरयन्ती सुरनगरसरित्पावनी नः पुनातु॥3॥

    मज्जन्मातङ्गकुम्भच्युतमदमदिरामोदमत्तालिजालं

    स्नानैः सिद्धाङ्गनानां कुचयुगविगलत्कुङ्कुमासङ्गपिङ्गम्।

    सायंप्रातर्मुनीनां कुशकुसुमचयैश्छन्नतीरस्थनीरं

    पायान्नो गाङ्गमम्भः करिकलभकराक्रान्तरंहस्तरङ्गम्॥4॥

    आदावादिपितामहस्य नियमव्यापारपात्रे जलं

    पश्चात्पन्नगशायिनो भगवतः पादोदकं पावनम्।

    भूयः शम्भुजटाविभूषणमणिर्जह्नोर्महर्षेरियं

    कन्या कल्मषनाशिनी भगवती भागीरथी दृश्यते॥

    शैलेन्द्रादवतारिणी निजजले मज्जज्जनोत्तारिणी

    पारावारविहारिणी भवभयश्रेणीसमुत्सारिणी।

    शेषाहेरनुकारिणी हरशिरोवल्लीदलाकारिणी

    काशीप्रान्तविहारिणी विजयते गङ्गा मनोहारिणी॥

    कुतो वीचिर्वीचिस्तव यदि गता लोचनपथं

    त्वमापीता पीताम्बरपुरनिवासं वितरसि।

    त्वदुत्सङ्गे गङ्गे पतति यदि कायस्तनुभृतां

    तदा मातः शातक्रतवपदलाभोऽप्यतिलघुः॥

    गङ्गे त्रैलोक्यसारे सकलसुरवधूधौतविस्तीर्णतोये

    पूर्णब्रह्मस्वरूपे हरिचरणरजोहारिणि स्वर्गमार्गे।

    प्रायश्चित्तं यदि स्यात्तव जलकणिका ब्रह्महत्यादिपापे

    कस्त्वां स्तोतुं समर्थस्त्रिजगदघहरे देवि गङ्गे प्रसीद॥

    मातर्जाह्नवि शम्भुसङ्गवलिते मौलौ निधायाञ्जलिं

    त्वत्तीरे वपुषोऽवसानसमये नारायणाङ्घ्रिद्वयम्।

    सानन्दं स्मरतो भविष्यति मम प्राणप्रयाणोत्सवे

    भूयाद्भक्तिरविच्युताहरिहराद्वैतात्मिका शाश्वती॥

    गङ्गाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत्प्रयतो नरः।

    सर्वपापविनिर्मुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति॥

    गंगा स्तोत्र

    ॐ नमः शिवायै गंगायै, शिवदायै नमो नमः।

    नमस्ते विष्णु-रुपिण्यै, ब्रह्म-मूर्त्यै नमोऽस्तु ते।।

    नमस्ते रुद्र-रुपिण्यै, शांकर्यै ते नमो नमः।

    सर्व-देव-स्वरुपिण्यै, नमो भेषज-मूर्त्तये।।

    सर्वस्य सर्व-व्याधीनां, भिषक्-श्रेष्ठ्यै नमोऽस्तु ते।

    स्थास्नु-जंगम-सम्भूत-विष-हन्त्र्यै नमोऽस्तु ते।।

    संसार-विष-नाशिन्यै, जीवानायै नमोऽस्तु ते।

    ताप-त्रितय-संहन्त्र्यै, प्राणश्यै ते नमो नमः।।

    शन्ति-सन्तान-कारिण्यै, नमस्ते शुद्ध-मूर्त्तये।

    सर्व-संशुद्धि-कारिण्यै, नमः पापारि-मूर्त्तये।।

    भुक्ति-मुक्ति-प्रदायिन्यै, भद्रदायै नमो नमः।

    भोगोपभोग-दायिन्यै, भोग-वत्यै नमोऽस्तु ते।।

    मन्दाकिन्यै नमस्तेऽस्तु, स्वर्गदायै नमो नमः।

    नमस्त्रैलोक्य-भूषायै, त्रि-पथायै नमो नमः।।

    नमस्त्रि-शुक्ल-संस्थायै, क्षमा-वत्यै नमो नमः।

    त्रि-हुताशन-संस्थायै, तेजो-वत्यै नमो नमः।।

    नन्दायै लिंग-धारिण्यै, सुधा-धारात्मने नमः।

    नमस्ते विश्व-मुख्यायै, रेवत्यै ते नमो नमः।।

    बृहत्यै ते नमस्तेऽस्तु, लोक-धात्र्यै नमोऽस्तु ते।

    नमस्ते विश्व-मित्रायै, नन्दिन्यै ते नमो नमः।।

    पृथ्व्यै शिवामृतायै च, सु-वृषायै नमो नमः।

    परापर-शताढ्यै, तारायै ते नमो नमः।।

    पाश-जाल-निकृन्तिन्यै, अभिन्नायै नमोऽस्तु ते।

    शान्तायै च वरिष्ठायै, वरदायै नमो नमः।।

    उग्रायै सुख-जग्ध्यै च, सञ्जीविन्यै नमोऽस्तु ते।

    ब्रह्मिष्ठायै-ब्रह्मदायै, दुरितघ्न्यै नमो नमः।।

    प्रणतार्ति-प्रभञजिन्यै, जग्मात्रे नमोऽस्तु ते।

    सर्वापत्-प्रति-पक्षायै, मंगलायै नमो नमः।।

    शरणागत-दीनार्त-परित्राण-परायणे।

    सर्वस्यार्ति-हरे देवि! नारायणि ! नमोऽस्तु ते।।

    निर्लेपायै दुर्ग-हन्त्र्यै, सक्षायै ते नमो नमः।

    परापर-परायै च, गंगे निर्वाण-दायिनि।।

    गंगे ममाऽग्रतो भूया, गंगे मे तिष्ठ पृष्ठतः।

    गंगे मे पार्श्वयोरेधि, गंगे त्वय्यस्तु मे स्थितिः।।

    आदौ त्वमन्ते मध्ये च, सर्व त्वं गांगते शिवे!

    त्वमेव मूल-प्रकृतिस्त्वं पुमान् पर एव हि।।

    गंगे त्वं परमात्मा च, शिवस्तुभ्यं नमः शिवे।।

    फल-श्रुति

     

    य इदं पठते स्तोत्रं, श्रृणुयाच्छ्रद्धयाऽपि यः।

    दशधा मुच्यते पापैः, काय-वाक्-चित्त-सम्भवैः।।

    रोगस्थो रोगतो मुच्येद्, विपद्भ्यश्च विपद्-युतः।

    मुच्यते बन्धनाद् बद्धो, भीतो भीतेः प्रमुच्यते।।

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