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    जानें, गीता दृष्टिकोण से योग के कितने प्रकार होते हैं और क्या हैं इसके फायदे

    By Umanath SinghEdited By:
    Updated: Wed, 17 Jun 2020 04:36 PM (IST)

    भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं कि जीवन में सबसे बड़ा योग कर्म योग है। इस बंधन से कोई मुक्त नहीं हो सकता है अपितु भगवान भी कर्म बंधन के पाश में बंधे हैं।

    जानें, गीता दृष्टिकोण से योग के कितने प्रकार होते हैं और क्या हैं इसके फायदे

    योग की उत्पत्ति अति प्राचीन है। चिरकाल से इस क्रिया को किया जा रहा है। स्वयं भगवान शिव भी योग मुद्रा में कैलाश पर विराजमान हैं। ऐसा कहा जाता है कि सबसे बड़े तपस्वी भगवान शिव हैं, जो हर समय ध्यान योग करते रहते हैं। द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता उपदेश दिया। इस उपदेश में उन्होंने योग के 18 प्रकार बताए हैं। आइए, योग के 18 मुद्राओं और उनके फायदे के बारे में जानते हैं -

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    विषाद योग

    इसका अर्थ है-कालांतर में जब अर्जुन के मन में भी भय और निराशा पैदा हो गया था। उस समय भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें गीता उपदेश देकर उनका मार्ग प्रशस्त किया।

    सांख्य योग

    इसका अर्थ है-पुरुष प्रकृति की विवेचना अथवा पुरुष तत्व का विश्लेषण करना है। जब व्यक्ति किसी अवसाद से गुजरता है तो उसे सांख्य योग अर्थात पुरुष प्रकृति का विश्लेषण करना चाहिए।

    कर्म योग

    भगवान श्रीकृष्ण गीता में अर्जुन से कहते हैं कि जीवन में सबसे बड़ा योग कर्म योग है। इस बंधन से कोई मुक्त नहीं हो सकता है, अपितु भगवान भी कर्म बंधन के पाश में बंधे हैं। सूर्य और चंद्रमा अपने कर्म मार्ग पर निरंतर प्रशस्त हैं। अतः तुम्हें भी कर्मशील बनना चाहिए।

    ज्ञान योग

    भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि ज्ञान से बढ़कर इस दुनिया में कोई चीज़ नहीं है। इससे न केवल अमृत की प्राप्ति होती है, बल्कि व्यक्ति कर्म बंधनों में रहकर भी भौतिक संसर्ग से विमुक्त रहता है।

    कर्म वैराग्य योग

    यह योग बताता है कि व्यक्ति को कर्म के फलों की चिंता नहीं करनी चाहिए। अपितु कर्मशील रहना चाहिए। ईश्वर बुरे कर्मों का बुरा फल और अच्छे कर्मों का अच्छा फल देते हैं।

    ध्यान योग

    इस योग की महत्ता आधुनिक समय में सबसे अधिक है। इसे करने से मन और मस्तिष्क दोनों ही विचलित नहीं होता है।

    विज्ञान योग

    इस योग में व्यक्ति को सत्य मार्ग पर अविचल भाव से चलते रहना है। इसमें सत्य अर्थात ज्ञान की खोज की जाती है। इसमें साधक को तपस्वी बनना पड़ता है।

    अक्षर ब्रह्म योग

    गीता के आठवें अध्याय में भगवान मधुसूदन ने अर्जुन को ब्रह्मा, अधिदेव, अध्यात्म और आत्म संयमी के बारे में बताया है। व्यक्ति को भौतिक जीवन का निर्वाह शून्य में स्थित रहकर करना चाहिए। इस योग के साधक भक्ति काल में निर्गुण विचारधारा के थे।

    राज विद्या गुह्य योग

    इस योग में स्थिर रहकर व्यक्ति परम ब्रह्म के सर्वश्रेष्ठ ज्ञान को हासिल करने की कोशिश करता है। व्यक्ति को परम ज्ञान प्राप्ति के लिए राज विद्या गुह्य योग करना चाहिए।

    विभूति विस्तारा योग

    इस योग में साधक परम ब्रह्म के सानिध्य ध्यान केंद्रित कर ईश्वर मार्ग पर प्रशस्त  रहता है।

    विश्वरूप दर्शन योग

    इस योग को परम और अनंत माना गया है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान ने यह विराट रूप योग के माध्यम से प्राप्त की है।

    भक्ति योग

    यह योग ईश्वर प्राप्ति के लिए सबसे सर्वश्रेष्ठ योग है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में विस्तार से इसका वर्णन किया है कि कैसे कोई भक्ति के माध्यम से भगवद्धाम प्राप्त कर सकता है।

    क्षेत्र विभाग योग

    इस योग के माध्यम से साधक आत्मा, परमात्मा और ज्ञान को जान पाता है। इस योग में रमने वाले साधक योगी कहलाते हैं।