Guru Purnima 2025: जीवन की पूरी तैयारी कराते हैं गुरु, नौकरी के लिए नहीं बनाते मशीनें
Guru Purnima 2025 गुरु पूर्णिमा के अवसर पर ऋषिकेश के योगगुरु योगऋषि विश्वकेतु आत्मा के पुनर्जागरण की बात कर रहे हैं। 150 देशों में उनके हजारों शिष्य हैं जिन्हें वे योग जीवन दर्शन और जीवन जीने की कला सिखाते हैं। डॉ. विश्वकेतु के अनुसार प्राचीन गुरुकुलों में शिक्षा नौकरी की तैयारी नहीं बल्कि जीवन की पूर्ण तैयारी थी।

धर्म डेस्क, नई दिल्ली। कल्पना कीजिए एक ऐसे समय की, जब शिक्षा का अर्थ था प्रकृति और जीवनचक्र के साथ पूर्ण समरसता में जीना। सूर्योदय के साथ उठना, अग्नि की सेवा करना, भोजन को औषधि के रूप में समझना, समुदाय की सेवा करना और आत्मरक्षा सहित सभी कलाओं में दक्ष होना।
इसके साथ ही शिक्षा का उद्देश्य उन मार्गदर्शकों के साथ बैठना भी था, जो आपकी आत्मा को स्पष्ट रूप से देख सकते थे। वो आपको आपके अद्वितीय जीवन पथ पर सशक्त करते थे। अखंड योग संस्थान के संस्थापक और ऑल इंडिया योग गोल्ड मेडलिस्ट डॉ. योगऋषि विश्वकेतु कहते हैं कि आज स्थितियां बदल गई हैं।
शिक्षक मार्गदर्शक नहीं रह गए हैं। वो बौद्धिक परीक्षा पास करने वाली मशीनें तैयार कर रहे हैं। विद्यालय छात्रों को संस्कारित नहीं कर रहे हैं, वो भी मशीनें तैयार कर रहे हैं, जो बाहर निकलकर पैसे कमा रहे हैं। समृद्ध तो हो रहे हैं, लेकिन सुखी नहीं हैं, खुश नहीं हैं, आनंदित नहीं हैं और समरसता खो रहे हैं। प्रकृति को उपयोग या दोहन नहीं, उसका शोषण कर रहे हैं।
समग्र शिक्षा की पुरानी परंपरा
प्राचीन गुरुकुल व्यवस्था में शिक्षा केवल नौकरी की तैयारी नहीं थी। वह जीवन की पूर्ण तैयारी थी। शरीर, मन, भावना और आत्मा, सभी का एक साथ पोषण होता था।
गुरु केवल शिक्षक नहीं थे, बल्कि एक दर्पण, एक दिशा-सूचक और आंतरिक स्पष्टता के मार्गदर्शक थे। गुरु पूर्णिमा इसी पावन परंपरा को समर्पित है।
पूर्व-औपनिवेशिक भारत में यानी अंग्रेजों के भारत पर शासन करने से पहले के समय में। बालक-बालिकाएं ब्रह्मचर्य काल में गुरुकुल जाते थे। ताकि वे ऐसे संपूर्ण मनुष्य बन सकें जिनका जीवन समाज और प्रकृति की समष्टि के साथ जुड़ा हो।
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गुरुकुल का गहन अभ्यास और मूल्य-आधारित शिक्षण
शिष्यों को सिखाया जाता था:
- धर्म, वेद, आयुर्वेद, खगोलशास्त्र, संगीत, आत्मरक्षा, गणित और दर्शन
- साथ ही योग, ध्यान, सेवा (सेवा भाव) और आत्म-अनुशासन
वे सीखते थे:
- नियमित दिनचर्या से अनुशासन
- सामूहिक सेवा से विनम्रता और कृतज्ञता
- चिंतन और संवाद से विवेक और दृष्टि
केवल बौद्धिक शिक्षा नहीं मिलती थी
“यह शिक्षा केवल बौद्धिक नहीं थी, बल्कि जीवंत, अनुभवात्मक और निरंतर थी, जो मन के साथ-साथ संपूर्ण अस्तित्व को ढालती थी।” प्रत्येक शिष्य को उसकी प्रकृति, संस्कार और आत्मिक स्थिति के अनुसार मार्गदर्शन मिलता था। यही कारण था कि वह केवल कार्य-कुशल नहीं, बल्कि आत्मबोध और सेवा से परिपूर्ण जीवन जीने में सक्षम होते थे।
आधुनिक शिक्षा में आत्मज्ञान का संकट
आज के तेज-तर्रार युग में शिक्षा का उद्देश्य अक्सर सृजनशीलता नहीं, बल्कि प्रदर्शन बन गया है। बच्चे परीक्षा पास करना तो सीखते हैं, लेकिन अपने आप को समझना नहीं सीख पाते हैं।
स्वामी विवेकानंद ने चेताया था, ‘चरित्र के बिना शिक्षा, शक्तिशाली मस्तिष्क तो पैदा करती है, लेकिन कमजोर हृदय के साथ।’ गुरु पूर्णिमा इस हृदयबोध, आत्म-जागरूकता और असीम संभावनाओं के पुनर्जागरण का आह्वान करती है।
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