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    Vaikuntha Chaturdashi 2025: इस आरती के बिना अधूरी है वैकुंठ चतुर्दशी की पूजा, बरसेगी मां लक्ष्मी की कृपा

    Updated: Tue, 04 Nov 2025 07:00 AM (IST)

    आज, 4 नवंबर को वैकुंठ चतुर्दशी है, जिस पर भक्त स्नान-ध्यान कर भगवान शिव और लक्ष्मी नारायण की पूजा करते हैं तथा मनचाहा वरदान पाने के लिए व्रत रखते हैं। कार्तिक माह की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी पर दिन में शिव और निशा काल में भगवान विष्णु की पूजा का विधान है। इस अवसर पर विष्णु चालीसा का पाठ और 'ॐ जय जगदीश हरे' आरती का समापन करना शुभ माना जाता है।

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    Vaikuntha Chaturdashi 2025: वैकुंठ चतुर्दशी का धार्मिक महत्व

    धर्म डेस्क, नई दिल्ली। वैदिक पंचांग की गणना अनुसार, मंगलवार 04 नवंबर यानी आज वैकुंठ चतुर्दशी है। इस शुभ अवसर पर साधक स्नान-ध्यान कर भक्ति भाव से भगवान शिव और लक्ष्मी नारायण जी की पूजा कर रहे हैं। वहीं, मनचाहा वरदान पाने के लिए व्रत रखा जाता है।

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    सनातन शास्त्रों में वर्णित है कि कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि पर दिन के समय में भगवान शिव की पूजा की जाती है। वहीं, निशा काल में भगवान विष्णु की पूजा की जाती है। हालांकि, सामान्य साधक अपनी सुविधा अनुसार समय पर स्नान-ध्यान के बाद भक्ति भाव से लक्ष्मी नारायण जी की पूजा करें। वहीं, पूजा के समय विष्णु चालीसा का पाठ करें। और ॐ जय जगदीश हरे से आरती का समापन करें।

    विष्णु चालीसा

    ॥ दोहा ॥

    विष्णु सुनिए विनय,सेवक की चितलाय।
    कीरत कुछ वर्णन करूँ,दीजै ज्ञान बताय॥

    ॥ चौपाई ॥

    नमो विष्णु भगवान खरारी। कष्ट नशावन अखिल बिहारी॥
    प्रबल जगत में शक्ति तुम्हारी। त्रिभुवन फैल रही उजियारी॥
    सुन्दर रूप मनोहर सूरत। सरल स्वभाव मोहनी मूरत॥
    तन पर पीताम्बर अति सोहत। बैजन्ती माला मन मोहत॥
    शंख चक्र कर गदा बिराजे। देखत दैत्य असुर दल भाजे॥
    सत्य धर्म मद लोभ न गाजे। काम क्रोध मद लोभ न छाजे॥
    सन्तभक्त सज्जन मनरंजन। दनुज असुर दुष्टन दल गंजन॥
    सुख उपजाय कष्ट सब भंजन। दोष मिटाय करत जन सज्जन॥
    पाप काट भव सिन्धु उतारण। कष्ट नाशकर भक्त उबारण॥
    करत अनेक रूप प्रभु धारण। केवल आप भक्ति के कारण॥
    धरणि धेनु बन तुमहिं पुकारा। तब तुम रूप राम का धारा॥
    भार उतार असुर दल मारा। रावण आदिक को संहारा॥
    आप वाराह रूप बनाया। हिरण्याक्ष को मार गिराया॥
    धर मत्स्य तन सिन्धु बनाया। चौदह रतनन को निकलाया॥
    अमिलख असुरन द्वन्द मचाया। रूप मोहनी आप दिखाया॥
    देवन को अमृत पान कराया। असुरन को छबि से बहलाया॥
    कूर्म रूप धर सिन्धु मझाया। मन्द्राचल गिरि तुरत उठाया॥
    शंकर का तुम फन्द छुड़ाया। भस्मासुर को रूप दिखाया॥
    वेदन को जब असुर डुबाया। कर प्रबन्ध उन्हें ढुँढवाया॥
    मोहित बनकर खलहि नचाया। उसही कर से भस्म कराया॥
    असुर जलंधर अति बलदाई। शंकर से उन कीन्ह लड़ाई॥
    हार पार शिव सकल बनाई। कीन सती से छल खल जाई॥
    सुमिरन कीन तुम्हें शिवरानी। बतलाई सब विपत कहानी॥
    तब तुम बने मुनीश्वर ज्ञानी। वृन्दा की सब सुरति भुलानी॥
    देखत तीन दनुज शैतानी। वृन्दा आय तुम्हें लपटानी॥
    हो स्पर्श धर्म क्षति मानी। हना असुर उर शिव शैतानी॥
    तुमने धुरू प्रहलाद उबारे। हिरणाकुश आदिक खल मारे॥
    गणिका और अजामिल तारे। बहुत भक्त भव सिन्धु उतारे॥
    हरहु सकल संताप हमारे। कृपा करहु हरि सिरजन हारे॥
    देखहुँ मैं निज दरश तुम्हारे। दीन बन्धु भक्तन हितकारे॥
    चहत आपका सेवक दर्शन। करहु दया अपनी मधुसूदन॥
    जानूं नहीं योग्य जप पूजन। होय यज्ञ स्तुति अनुमोदन॥
    शीलदया सन्तोष सुलक्षण। विदित नहीं व्रतबोध विलक्षण॥
    करहुँ आपका किस विधि पूजन। कुमति विलोक होत दुख भीषण॥
    करहुँ प्रणाम कौन विधिसुमिरण। कौन भाँति मैं करहुँ समर्पण॥
    सुर मुनि करत सदा सिवकाई। हर्षित रहत परम गति पाई॥
    दीन दुखिन पर सदा सहाई। निज जन जान लेव अपनाई॥
    पाप दोष संताप नशाओ। भवबन्धन से मुक्त कराओ॥
    सुत सम्पति दे सुख उपजाओ। निज चरनन का दास बनाओ॥
    निगम सदा ये विनय सुनावै। पढ़ै सुनै सो जन सुख पावै॥

    ॐ जय जगदीश हरे आरती

    ॐ जय जगदीश हरे...
    ॐ जय जगदीश हरे, स्वामी! जय जगदीश हरे।
    भक्त जनों के संकट, क्षण में दूर करे॥
    ॐ जय जगदीश हरे...

    जो ध्यावे फल पावे, दुःख विनसे मन का।
    स्वामी दुःख विनसे मन का।
    सुख सम्पत्ति घर आवे, कष्ट मिटे तन का॥
    ॐ जय जगदीश हरे...

    मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूं मैं किसकी।
    स्वामी शरण गहूं मैं किसकी।
    तुम बिन और न दूजा, आस करूं जिसकी॥
    ॐ जय जगदीश हरे...

    तुम पूरण परमात्मा, तुम अन्तर्यामी।
    स्वामी तुम अन्तर्यामी।
    पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी॥
    ॐ जय जगदीश हरे...

    तुम करुणा के सागर, तुम पालन-कर्ता।
    स्वामी तुम पालन-कर्ता।
    मैं मूरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥
    ॐ जय जगदीश हरे...

    तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।
    स्वामी सबके प्राणपति।
    किस विधि मिलूं दयामय, तुमको मैं कुमति॥
    ॐ जय जगदीश हरे...

    दीनबन्धु दुखहर्ता, तुम ठाकुर मेरे।
    स्वामी तुम ठाकुर मेरे।
    अपने हाथ उठा‌ओ, द्वार पड़ा तेरे॥
    ॐ जय जगदीश हरे...

    विषय-विकार मिटा‌ओ, पाप हरो देवा।
    स्वामी पाप हरो देवा।
    श्रद्धा-भक्ति बढ़ा‌ओ, संतन की सेवा॥
    ॐ जय जगदीश हरे...

    श्री जगदीशजी की आरती, जो कोई नर गावे।
    स्वामी जो कोई नर गावे।
    कहत शिवानन्द स्वामी, सुख संपत्ति पावे॥
    ॐ जय जगदीश हरे...

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