Mauni Amavasya पर गंगा स्नान के समय करें इस स्तोत्र का पाठ, पितृ दोष की समस्या होगी छूमंतर
माघ महीने की अमावस्या को (Mauni Amavasya 2025) मौनी अमावस्या के रूप में मनाया जाता है। इस बार की मौनी अमावस्या बेहद खास है क्योंकि मौनी अमावस्या के दिन महाकुंभ का दूसरा अमृत स्नान है। ऐसे में संगम में स्नान करें और पितरों की पूजा करें। इस दौरान पितृ स्त्रोत और पितृ कवच का पाठ करें। इससे पितृ देव प्रसन्न होंगे।
धर्म डेस्क, नई दिल्ली। पंचांग के अनुसार, 29 जनवरी (Mauni Amavasya 2025) को मौनी अमावस्या है। इसी दिन महाकुंभ का दूसरा अमृत स्नान है। मौनी अमावस्या के दिन पवित्र नदी में स्नान और दान करने का विशेष महत्व है। धार्मिक मान्यता है कि मौनी अमावस्या पर पितरों की उपासना करने से पितृ दोष से छुटकारा मिलता है। साथ ही पितरों की कृपा से रुके हुए काम पूरे होते हैं।
।।पितृ स्तोत्र।
अर्चितानाममूर्तानां पितृणां दीप्ततेजसाम् ।
नमस्यामि सदा तेषां ध्यानिनां दिव्यचक्षुषाम् ।।
इन्द्रादीनां च नेतारो दक्षमारीचयोस्तथा ।
सप्तर्षीणां तथान्येषां तान् नमस्यामि कामदान् । ।
मन्वादीनां च नेतार: सूर्याचन्दमसोस्तथा ।
तान् नमस्यामहं सर्वान् पितृनप्युदधावपि ।।
नक्षत्राणां ग्रहाणां च वाय्वग्न्योर्नभसस्तथा ।
द्यावापृथिवोव्योश्च तथा नमस्यामि कृताञ्जलि: ।।
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देवर्षीणां जनितृंश्च सर्वलोकनमस्कृतान् ।
अक्षय्यस्य सदा दातृन् नमस्येहं कृताञ्जलि: ।।
प्रजापते: कश्पाय सोमाय वरुणाय च ।
मौनी अमावस्या के अवसर पर काले तिल का दान करना उत्तम माना जाता है। मान्यता है कि अमावस्या पर तिल का दान करने से पितरों को मोक्ष मिलता है और धन लाभ के योग बनते हैं।
योगेश्वरेभ्यश्च सदा नमस्यामि कृताञ्जलि: ।।
नमो गणेभ्य: सप्तभ्यस्तथा लोकेषु सप्तसु ।
स्वयम्भुवे नमस्यामि ब्रह्मणे योगचक्षुषे ।।
सोमाधारान् पितृगणान् योगमूर्तिधरांस्तथा ।
नमस्यामि तथा सोमं पितरं जगतामहम् ।।
(Pic Credit-AI)
अग्रिरूपांस्तथैवान्यान् नमस्यामि पितृनहम् ।
अग्रीषोममयं विश्वं यत एतदशेषत: ।।
ये तु तेजसि ये चैते सोमसूर्याग्रिमूर्तय: ।
जगत्स्वरूपिणश्चैव तथा ब्रह्मस्वरूपिण: ।।
तेभ्योखिलेभ्यो योगिभ्य: पितृभ्यो यतामनस: ।
नमो नमो नमस्तेस्तु प्रसीदन्तु स्वधाभुज ।।
।।पितृ कवच।।
पितृ दोष निवारण के लिए इस कवच का रोजाना जाप करना चाहिए।
कृणुष्व पाजः प्रसितिम् न पृथ्वीम् याही राजेव अमवान् इभेन।
तृष्वीम् अनु प्रसितिम् द्रूणानो अस्ता असि विध्य रक्षसः तपिष्ठैः॥
तव भ्रमासऽ आशुया पतन्त्यनु स्पृश धृषता शोशुचानः।
तपूंष्यग्ने जुह्वा पतंगान् सन्दितो विसृज विष्व-गुल्काः॥
प्रति स्पशो विसृज तूर्णितमो भवा पायु-र्विशोऽ अस्या अदब्धः।
यो ना दूरेऽ अघशंसो योऽ अन्त्यग्ने माकिष्टे व्यथिरा दधर्षीत्॥
उदग्ने तिष्ठ प्रत्या-तनुष्व न्यमित्रान् ऽओषतात् तिग्महेते।
यो नोऽ अरातिम् समिधान चक्रे नीचा तं धक्ष्यत सं न शुष्कम्॥
ऊर्ध्वो भव प्रति विध्याधि अस्मत् आविः कृणुष्व दैव्यान्यग्ने।
अव स्थिरा तनुहि यातु-जूनाम् जामिम् अजामिम् प्रमृणीहि शत्रून्।
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