जैन परंपरा में योग
जैन परंपरा में इसके प्रवर्तक प्रथम तीर्र्थंकर ऋषभदेव जी प्रथम योगी के रूप में सामने आते हैं। पुराणों में ऋषभदेव जी का उल्लेख होता है। ऋषभदेव जी ने ध्यान-योग की ऐसी कला सिखाई कि चौबीसवें तीर्थंकर महावीर तक सभी ने उन्हीं आसनों और ध्यान-मुद्राओं का पालन किया। आज तक पुरातत्व महत्व
जैन परंपरा में इसके प्रवर्तक प्रथम तीर्र्थंकर ऋषभदेव जी प्रथम योगी के रूप में सामने आते हैं। पुराणों में ऋषभदेव जी का उल्लेख होता है। ऋषभदेव जी ने ध्यान-योग की ऐसी कला सिखाई कि चौबीसवें तीर्थंकर
महावीर तक सभी ने उन्हीं आसनों और ध्यान-मुद्राओं का पालन किया। आज तक पुरातत्व महत्व की जितनी भी जैन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं, वे या तो पद्मासन की मुद्रा में हैं या खड्गासन की।
नासाग्र दृष्टि जैन योग मुद्रा की प्रमुख विशेषता है। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से कायोत्सर्ग मुद्रा में एक योगी की मूर्ति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। जैन संस्कृति में कायोत्सर्ग योग की एक प्रमुख विधा है। महावीर स्वामी ने अध्यात्म-योग की साधना की तथा ध्यान के माध्यम से आत्मानुभूति का मार्ग बताया। आचार्य
कुंदकुंद ने आत्मा को ही योग कहा है। आचार्य शुभचंद्र ने ज्ञानार्णव नामक ग्रंथ में आसन-प्राणायाम तथा ध्यान की सभी विधियों का सूक्ष्म विवेचन किया। आचार्य महाप्रज्ञ द्वारा प्रवर्तित प्रेक्षाध्यान एवं जीवन-विज्ञान योग प्रचलित है। योग की विधि ‘सामयिक’ तथा ‘प्रक्रिमण’ आज जैन उपासना में प्रचलित है।
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