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    Shree Bhimashankar Jyotirling Mandir: जानें कैसे हुई भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग की स्थापना, पढ़ें कथा

    By Shilpa SrivastavaEdited By:
    Updated: Sun, 26 Jul 2020 09:59 AM (IST)

    Shree Bhimashankar Jyotirling Mandir आज हम स्वयंभू शिवशंकर के छठे ज्योतिर्लिंग की बात करेंगे।

    Shree Bhimashankar Jyotirling Mandir: जानें कैसे हुई भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग की स्थापना, पढ़ें कथा

    Shree Bhimashankar Jyotirling Mandir: आज हम स्वयंभू शिवशंकर के छठे ज्योतिर्लिंग की बात करेंगे। शिव का यह प्रसिद्ध भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग महाराष्ट्र के पुणे से लगभग 110 किलोमीटर दूर सह्याद्रि पर्वत पर स्थित है। इस मंदिर में स्थित शिवलिंग काफी बड़ा और मोटा है इसी के चलते यह मंदिर मोटेश्वर महादेव के नाम से भी विख्यात है। इसकी स्थापना के पीछे भी एक पौराणिक कथा जिसका वर्णन हम यहां कर रहे हैं।

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    जानें कैसे स्थापित हुआ भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग:

    इस ज्योतिर्लिंग का वर्णन शिवपुराण में किया गया है। इसके अनुसार, कुंभकर्ण के पुत्र का नाम भीम था जो एक राक्षस था। भीम का जन्म उसके पिता की मृत्यु के बाद हुआ था। उसकी पिता की मृत्यु भगवान राम के हाथों हुई है उसकी जानकारी उसे नहीं थी। लेकिन बाद में उसकी माता ने उसकी पिता की मृत्यु के बारे में सब बता दिया। सब जानने के बाद वो भगवान राम की हत्या के लिए आतुर हो गया। वह हर हाल में राम जी को मारना चाहता था। ऐसे में उसने अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए कई वर्षों तक कठोर तपस्या की।

    उसकी तपस्या से खुश होकर ब्रह्मा जी ने उसे विजयी होने का वरदान दिया। जैसे ही उसे वरदान मिला वो राक्षस तानाशाह यानी निरंकुश हो गया। वह मनुष्यों के साथ-साथ सभी देवी-देवताओं को भी डराने लगा और सभी उससे भयभीत रहने लगे। उसके आतंक की चर्चा हर ओर होने लगी। युद्ध के दौरान उसने देवताओं का हराना शुरू कर दिया। उसने अपना आतंक इतना फैलाया कि उसने पूजा पाठ बंद करा दिए।

    इससे सभी देवगण परेशान थे और इस परेशानी का हल लेने के लिए वो भगवान शिव की शरण में गए। शिवजी ने उन्हें आश्वासन दिया कि वो इस समस्या का हल निकालेंगे। शिवजी ने राक्षस से युद्ध करने का निर्णय लिया। इस युद्ध में शिवजी ने भीम राक्षस को हरा दिया और उसे राख कर दिया। उस राक्षस के अंत के साथ सभी देवों ने शिवजी से आग्रह किया कि वो शिवलिंग के रूप में इसी स्थान पर विराजित रहें। भोलेनाथ ने इस प्रार्थना को स्वीकार किया और भीमाशंकर ज्योतिर्लिंग के रूप में यहां विराजित हुए।