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    संकटों से मुक्ति पाने के लिए Devshayani Ekadashi पर करें इस स्तोत्र का पाठ, पितृ दोष से मिलेगी राहत

    धार्मिक मत है कि एकादशी व्रत (Devshayani Ekadashi 2025) करने से निंसतान दंपती को पुत्र रत्न की प्राप्ति होती है। साथ ही पुत्र दीर्घायु और ओजस्वी होता है। इसके लिए साधक एकादशी के दिन लक्ष्मी नारायण जी की भक्ति भाव से पूजा करते हैं। इस शुभ अवसर पर मंदिरों में भगवान विष्णु और मां लक्ष्मी की विशेष पूजा की जाती है।

    By Pravin KumarEdited By: Pravin KumarUpdated: Thu, 03 Jul 2025 12:42 PM (IST)
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    Devshayani Ekadashi 2025: एकादशी व्रत का धार्मिक महत्व

    धर्म डेस्क, नई दिल्ली। सनातन धर्म में देवशयनी एकादशी पर्व का खास महत्व है। यह पर्व आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को मनाया जाता है। इस साल 06 जुलाई को देवशयनी एकादशी मनाई जाएगी। इस दिन से भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं। वहीं, देवउठनी एकादशी के दिन जागृत होते हैं। इस अवधि में सृष्टि का संचालन देवों के देव महादेव करते हैं।

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    धार्मिक मत है कि भगवान विष्णु की पूजा करने से सकल मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। साथ ही सभी संकटों से भी साधक को मुक्ति मिलती है। साधक श्रद्धा भाव से एकादशी के दिन भगवान विष्णु की पूजा एवं भक्ति करते हैं। अगर आप भी कुंडली में व्याप्त अशुभ ग्रहों के प्रभाव से मुक्त होना चाहते हैं, तो देवशयनी एकादशी के दिन पूजा के समय गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का पाठ अवश्य करें।

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    गजेन्द्र मोक्ष स्तोत्र

    ऊं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम ।

    पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ॥

    यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयं ।

    योस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ॥

    यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं

    क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम ।

    अविद्धदृक साक्ष्युभयं तदीक्षते

    स आत्म मूलोsवत् मां परात्परः ॥

    कालेन पंचत्वमितेषु कृत्स्नशो

    लोकेषु पालेषु च सर्व हेतुषु ।

    तमस्तदाऽऽऽसीद गहनं गभीरं

    यस्तस्य पारेsभिविराजते विभुः ॥

    न यस्य देवा ऋषयः पदं विदु-

    र्जन्तुः पुनः कोsर्हति गन्तुमीरितुम ।

    यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो

    दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ॥

    दिदृक्षवो यस्य पदं सुमंगलम

    विमुक्त संगा मुनयः सुसाधवः ।

    चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने

    भूतात्मभूता सुहृदः स मे गतिः ॥

    न विद्यते यस्य न जन्म कर्म वा

    न नाम रूपे गुणदोष एव वा ।

    तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः

    स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ॥

    तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेsनन्तशक्तये ।

    अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्य कर्मणे ॥

    नम आत्म प्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने ।

    नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ॥

    सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता ।

    नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ॥

    नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुण धर्मिणे ।

    निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ॥

    क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे ।

    पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ॥

    सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे ।

    असताच्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ॥

    नमो नमस्तेsखिल कारणाय

    निष्कारणायाद्भुत कारणाय ।

    सर्वागमान्मायमहार्णवाय

    नमोपवर्गाय परायणाय ॥

    गुणारणिच्छन्न चिदूष्मपाय

    तत्क्षोभविस्फूर्जित मानसाय ।

    नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम-

    स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ॥

    मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय

    मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोsलयाय ।

    स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत-

    प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ॥

    आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तै-

    र्दुष्प्रापणाय गुणसंगविवर्जिताय ।

    मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय

    ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ॥

    यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा

    भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति ।

    किं त्वाशिषो रात्यपि देहमव्ययं

    करोतु मेsदभ्रदयो विमोक्षणम् ॥

    एकान्तिनो यस्य न कंचनार्थ

    वांछन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः ।

    अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमंगलं

    गायन्त आनन्द समुद्रमग्नाः ॥

    तमक्षरं ब्रह्म परं परेश-

    मव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम ।

    अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूर-

    मनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ॥

    यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः ।

    नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ॥

    यथार्चिषोsग्नेः सवितुर्गभस्तयो

    निर्यान्ति संयान्त्यसकृत् स्वरोचिषः ।

    तथा यतोsयं गुणसंप्रवाहो

    बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ॥

    स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यंग

    न स्त्री न षण्डो न पुमान न जन्तुः ।

    नायं गुणः कर्म न सन्न चासन

    निषेधशेषो जयतादशेषः ॥

    जिजीविषे नाहमिहामुया कि-

    मन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या ।

    इच्छामि कालेन न यस्य विप्लव-

    स्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ॥

    सोsहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम ।

    विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोsस्मि परं पदम् ॥

    योगरन्धित कर्माणो हृदि योगविभाविते ।

    योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोsस्म्यहम् ॥

    नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग-

    शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय ।

    प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये

    कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ॥

    नायं वेद स्वमात्मानं यच्छ्क्त्याहंधिया हतम् ।

    तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोsस्म्यहम् ॥

    श्री शुकदेव उवाच -

    एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं

    ब्रह्मादयो विविधलिंगभिदाभिमानाः ।

    नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात

    तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत् ॥

    तं तद्वदार्त्तमुपलभ्य जगन्निवासः

    स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भि :।

    छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमान –

    श्चक्रायुधोsभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ॥

    सोsन्तस्सरस्युरुबलेन गृहीत आर्त्तो

    दृष्ट्वा गरुत्मति हरिम् ख उपात्तचक्रम ।

    उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छा –

    नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ॥

    तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य

    सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार ।

    ग्राहाद् विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं

    सम्पश्यतां हरिरमूमुच दुस्त्रियाणाम् ॥

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