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    इस गांव में दशमी नहीं, एकादशी के दिन होता है रावण का दहन; पढ़िए 163 साल पुरानी मान्यता

    Updated: Sun, 28 Sep 2025 07:51 PM (IST)

    फतेहगढ़ साहिब के गांव चनारथल कलां में दशहरा दशमी की जगह एकादशी को मनाया जाता है। 163 साल पहले दशहरे पर गांव के पशु गायब हो गए थे जो एकादशी को लौटे। तभी से यह परंपरा चली आ रही है। गांव में कुंभकर्ण का बुत भी है जो बुराई के प्रति जागरूकता का प्रतीक है।

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    एकादशी के दिन होता है रावण का दहन, पढ़िए 163 साल पुरानी मान्यता।

    दीपक सूद, फतेहगढ़ साहिब। प्रभु श्री राम द्वारा राक्षस राज रावण के वध के उपलक्ष्य में हर साल आश्विन माह में दशहरा मनाते हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में रावण के पुतले को आग लगाकर अच्छाई की जीत का जश्न मनाते हैं, लेकिन फतेहगढ़ साहिब का सबसे बड़ा गांव समझा जाता करीब 10 हजार की आबादी वाले गांव चनारथल कलां में दशहरे के अगले दिन यानि दशमी तिथि की जगह एकादशी के दिन रावण दहन होता है।

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    इसका कारण एक रोचक प्रकरण बताया जाता है। गांव के लोगों का कहना है कि करीब 163 साल पहले दशहरे के दिन खेतों में चर रहे गायब हो गए थे और एकादशी के दिन लौट आए। इसके बाद एकादशी पर रावण के पुतले का दहन होने लगे। इसके साथ ही गांव के लोगों की मान्‍यता है कि यहां भगवान राम आए थे और एक पीपल के पेड़ की छांव में आराम किया था।

    गांव में जिस जगह पर रावण दहन होता है, वहां चौक पर कुंभकर्ण का सीमेंट से बुत बना हुआ है। बताया जाता है कि यह बुत करीब 163 वर्ष पहले बनाया गया था। इसको बनाने का मकसद गांव के इतिहास को सदैव लोगों के समक्ष रखना है और लोगों को बुराई के प्रति जागरूक करना है। यह बुत दशहरा मनाने वाले स्थान की पहचान भी दिखाता है।

    लोगों की मान्यता है कि इस गांव में भगवान श्री राम आए थे। उन्होंने गांव के बाहर बने छप्पड़ के पास पीपल के पेड़ के नीचे आराम किया था। श्री राम के आराम करने के कुछ समय बाद पीपल को पतासे लगने लगे थे। समय के अनुसार पीपल का पेड़ सूख गया। अब उसका कोई नामो-निशान नहीं रहा है।

    इस कारण एकादशी पर होता है रावण दहन

    गांव चनारथल कलां के पूर्व सरपंच जगदीप सिंह ने बताया कि करीब 163 वर्ष पहले गांव में दशमी के दिन ही रावण दहन होता था। वर्ष 1861 में गांव में करीब 100 परिवार ही रहते थे। सभी लोग पशु पालक थे। उस समय पशुओं को झुंड के रूप में खेतों में चारा खाने छोड़ दिया जाता था।

    दशहरे वाले दिन गांव के करीब 400 पशुओं को खेतों में छोड़ दिया गया था। इधर, गांव में दशहरे की तैयारियां चल रही थीं। शाम को रावण दहन होना था। शाम तक एक भी पशु गांव नहीं लौटा तो खुशी का माहौल गम में बदल गया। उस दिन गांव वासियों ने रावण दहन नहीं किया।

    अगले दिन सभी पशु गांव में लौट आए तो फिर गांव वासियों ने एकादशी पर रावण दहन करके खुशी मनाई। उसी दिन से यह परंपरा चलती आ रही है।

    तैयारी सवा महीने पहले शुरू कर दी जाती है

    गांव चनारथल कलां में दशहरा पर्व मनाने की तैयारी सवा महीने पहले शुरू कर दी जाती है। गांव की श्री रामलीला कमेटी श्री हनुमान जी के झंडा मार्च से इसकी शुरूआत करती है। हनुमान मंदिर में झंडा लगाकर दशहरा पर्व की तैयारियां शुरू की जाती हैं। गांव का दशहरा मेला चार दिनों तक चलता है।

    अष्टमी के दिन इसकी शुरूआत होती है। इस रात से गांव में झांकियां निकाली जाती हैं। इन झांकियों में श्री रामायण के मुख्य अंश शामिल होते हैं। नवमी के दिन से खेल मेले की शुरूआत की जाती है। लगने वाले खेल मेले एकादशी के दिन समाप्त होते हैं और फिर रावण दहन किया जाता है।

    करीब 1200 रुपये में तैयार हो जाता है रावण का पुतला

    गांव में करीब 1200 रुपये में प्रदूषण मुक्त दशहरा मनाया जा रहा है। पक्के तौर पर लोहे का रावण तैयार किया हुआ है। उसके सिर के ऊपर मात्र रंग-बिरंगे कागजों की टोपी बनाकर बीच में एक बड़ा पटाखा लगाया जाता है।

    एकादशी के दिन श्री राम तीर चलाकर दहन करते हैं। दहन में रावण के सिर पर कागजों की टोपी जल जाती है। यह केवल रस्म अदा करने के लिए किया जाता है। हर वर्ष रावण को तैयार करने से लेकर दहन तक करीब 1200 रुपये का खर्च आता है। इससे प्रदूषण भी नहीं फैलता।

    चार पीढि़यों से लगा है एक ही परिवार

    रावण का पुतला तैयार करने और झाकियां निकालने में गांव के ही एक परिवार की चौथी पीढ़ी निश्शुल्क सेवा में लगी है। इन दिनों सेवा संभाल रहे कृष्ण गोपाल ने बताया कि उनके पड़ दादा भगत पूर्ण चंद लकड़ी के मिस्त्री थे।

    शादी के बाद उनके औलाद नहीं हुई थी तो एक विद्वान ने उन्हें गांव में झांकियां निकालने और रावण का पुतला बनाने की सेवा करने को कहा था। उनके दादा ने गांव में झाकियां निकालने की शुरूआत की। साथ ही, रावण के पुतले की सेवा शुरू की।

    कुछ समय बाद ही उनके दादा फकीर चंद का जन्म हुआ। दादा के बाद उनके पिता हरमेश कुमार ने इसी सेवा को जारी रखा। रमेश कुमार के दो बेटे थे जिनमें एक बेटा नंदलाल विदेश चला गया है जबकि दूसरा बेटा कृष्ण गोपाल यह सेवा करने लगे हैं।