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श्री गुरु नानक देव जी के चरण जहां पड़े वहां बने ऐतिहासिक गुरुद्वारे, जानें कौन से हैं वे गुरुद्वारे

श्री गुरु नानक देव जी महान आध्यात्मिक चिंतक व समाज सुधारक थे। गुरु जी विश्व के अनेक भागों में गए और मानवता के घर्म का प्रचार किया।

By Kamlesh BhattEdited By: Published: Sat, 04 Nov 2017 10:47 AM (IST)Updated: Sat, 04 Nov 2017 09:02 PM (IST)
श्री गुरु नानक देव जी के चरण जहां पड़े वहां बने ऐतिहासिक गुरुद्वारे, जानें कौन से हैं वे गुरुद्वारे
श्री गुरु नानक देव जी के चरण जहां पड़े वहां बने ऐतिहासिक गुरुद्वारे, जानें कौन से हैं वे गुरुद्वारे

सिख धर्म के संस्थापक प्रथम पातशाह साहिब श्री गुरु नानक देव जी महान आध्यात्मिक चिंतक व समाज सुधारक थे। आपका जन्म राय भोईं की तलवंडी में पिता महिता कालू एवं माता तृप्ता के घर सन् 1469 ई. में हुआ। वास्तव में आपका अवतरण बैसाख शुक्ल पक्ष तृतीया को हुआ परन्तु सिख जगत में परंपरा अनुसार आपका अवतार पर्व कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। अपनी चार उदादियों के दौरान आप विश्व के अनेक भागों में गए और मानवता के घर्म का प्रचार किया। पंजाब में आपके चरण जहां-जहां पड़े वहां आज ऐतिहासिक गुरुद्वारे सुशोभित हैं जिनकी संक्षिप्त जानकारी प्रस्तुत है...

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ननकाना साहिब

पाकिस्तान के पंजाब प्रान्त में स्थित शहर ननकाना साहिब का नाम ही गुरु नानक देव जी के नाम पर पड़ा है। इसका पुराना नाम 'राय भोई दी तलवंडी' था। यह लाहौर से 80 किमी दक्षिण-पश्‍िचम में स्थित है और भारत में गुदासपुर स्थित  डेरा बाबा नानक से भी दिखाई देता है। गुरु नानक देव जी का जन्मस्थान होने के कारण यह विश्व भर के सिखों का प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। महाराजा रणजीत सिंह ने गुरु नानक देव के जन्म स्थान पर गुरुद्वारे का निर्माण करवाया था।

यहां गुरुग्रंथ साहिब के प्रकाश स्थान के चारों ओर लंबी चौड़ी परिक्रमा है, जहां गुरु नानकदेव जी से संबंधित कई सुन्दर पेंटिग्स लगी हुई हैं। ननकाना साहिब में सुबह तीन बजे से ही श्रद्धालुओं का तांता लग जाता है। रंग-बिरंगी रोशनियों से जगमग करता ननकाना साहिब एक स्वर्गिक नजारा प्रस्तुत करता है। दुनियाभर से हजारों हिन्दू, सिख गुरु पर्व से कुछ दिन पहले ननकाना साहिब पहुंचते हैं और दस दिन यहां रहकर विभिन्न समारोहों में भाग लेते हैं।


गुरु नानक देव के जन्म के समय इस जगह को 'रायपुर' के नाम से भी जाना जाता था। उस समय राय बुलर भट़टी इस इलाके का शासक था और बाबा नानक के पिता उसके कर्मचारी थे। गुरु नानक देव की आध्यात्मिक रुचियों को सबसे पहले उनकी बहन नानकी और राय बुलर भट़टी ने ही पहचाना। राय बुलर ने तलवंडी शहर के आसपास की 20 हजार एकड़ जमीन गुरु नानकदेव को उपहार में दी थी, जिसे 'ननकाना साहिब' कहा जाने लगा। ननकाना साहिब के आसपास 'गुरुद्वारा जन्मस्थान' सहित नौ गुरुद्वारे हैं। ये सभी गुरु नानकदेव जी के जीवन के महत्वपूर्ण पहलुओं से संबंधित हैं।

जिस स्थान पर नानकजी को पढ़ने के लिए पाठशाला भेजा गया, वहां आज पट़टी साहिब गुरुद्वारा शोभायमान है। गुरु जी करतारपुर साहिब (अब पाकिस्तान में) में आकर बस गए और 17 साल यहीं रहे। वह खेती का कार्य करने लगे। यहीं सन् 1532 ई. में भाई लहिणा आपकी सेवा में हाजिर हुए और सात वर्ष की समर्पित सेवा के बाद गुरु नानक देव जी के उत्तराधिकारी के रूप में गुरगद्दी पर शोभायमान हुए और इन्हें गुरु अर्जुन देव का नाम दिया गया। गुरु नानक देव जी 22 सितंबर 1539 ई. को ज्योति जोत समाए।

बटाला में श्री कंध साहिब

बटाला स्थित श्री कंध साहिब में गुरु जी की बारात का ठहराव हुआ था। इतिहासकारों के अनुसार सम्वत 1544 यानी 1487 ईस्वी में गुरु जी की बारात जहां ठहरी थी वह एक कच्चा घर था, जिसकी एक दीवार का हिस्सा आज भी शीशे के फ्रेम में गुरुद्वारा श्री कंध साहिब में सुरक्षित है। इसके अलावा आज यहां गुरुद्वारा डेरा साहिब है, जहां श्री मूल राज खत्री जी की बेटी सुलक्खनी देवी को गुरु नानक देव जी सुल्तानपुर लोधी से बारात लेकर ब्याहने आए थे।

गुरुद्वारा डेरा साहिब  मेंं आज भी एक थड़ा साहिब है, जिस पर माता सुलक्खनी देवी जी तथा श्री गुरुनानक देव जी की शादी की रस्में पूरी हुई थीं। इन गुरुघरों की सेवा संभाल का काम शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी कर रही है। हर साल उनके विवाह की सालगिरह पर सुल्तानपुर लोधी से नगरकीर्तन यहां पहुंचता है।

लुधियाना में गुरुद्वारा गऊ घाट 
गुरु नानक देव साहिब 1515 ईस्वी में इस स्थान पर विराजमान हुए थे। उस समय यह सतलुज दरिया के किनारे पर स्थित था। उस समय लुधियाना के नवाब जलाल खां लोधी अपने दरबारियों सहित गुरु जी के शरण में आए व गुरु चरणों में आग्रह किया है हे सच्चे पातशाह, यह शहर सतलुज दरियां किनारे स्थित है, इसके तूफान से शहरवासियों को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। आप इस पर कृपा करें। उनके जबाव में गुरु महाराज ने कहा कि आप सभी सच्चे मन से पूजा अर्चना करें।

एक समय ऐसा आएगा, सतलुज दरिया यहां से 7 कोस दूर हो जाएगा। वह इसी जगह से बुड्ढा होकर चलेगा। इसके साथ ही जैसे जैसे समय बीतेगा, दुनिया में लुधियाना नाम का डंका दुनिया में बजेगा। गुरु साहिब के कहे अनुसार लुधियाना शहर घनी आबादी में बसा है और सतलुज दरिया जहां से 7 कोस दूर है। इसी कारण उनका गुरुद्वारा, जो पहले दरिया घाट पर बना हुआ था, उसका नाम गऊ घाट पड़ गया। यह जीवा राम घाटी, डिवीजन नं. 3 के नजदीक है। इतिहास से संबंधित होने के कारण इसका प्रबंध शिरोमणि गुरुद्वारा लोक प्रबंधक कमेटी व लोकल गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी के पास है।

संगरूर में गुरुद्वारा नानकियाना साहिब
संगरूर से 4 किलोमीटर दूर  गुरुद्वारा नानकियाणा साहिब को गुरु नानक देव और गुरु हरगोबिंद जी की चरण छोह प्राप्त है। सोलहवीं शताब्दी की शुरुआत में श्री गुरु नानक देव जी यहां आए थे।  उस समय मंगवाल गांव वर्तमान गुरुद्वारा साहिब के करीब एक तालाब था जहां गुरु जी ने ग्रामीणों को उपदेश दिया था।

करीब एक सदी बाद जब 1616 में गुरु हरगोबिन्द साहिब ने गांव का दौरा किया, तब गुरु नानक देव जी द्वारा पवित्र किए गए सरोवर की पवित्रता बनाए रखने के लिए यहां गुरुद्वारा साहिब का निर्माण कर वचन किए। यहां बीचोंबीच मंजी साहिब तथा थड़ा साहिब हैं।  यहां एक पवित्र हथियार भी संरक्षित है, जिसे 1724 के साथ फारसी अंकों में गुर्जिताबार नाम दिया गया है।

फाजिल्‍का में गुरुद्वारा बड़ तीर्थ
श्री गुरु नानक देव जी उदासियों के दौरान फाजिल्का के गांव हरिपुरा में रुके थे। उनके वहां आगमन के दौरान उनके पैरों की छाप आज भी यहां मौजूद है। जहां गुरुनानक देव जी ठहरे थे, वहां आज एक भव्य गुरुद्वारा बड़ साहिब बना हुआ है। देश के विभाजन से पूर्व बने इस गुरुद्वारे में हर अमावस्या और गुरुनानक देव जी के जन्मोत्सव व अन्य गुरुपर्व श्रद्धा व हर्षोल्लास के साथ मनाए जाते हैं।

इतिहासकार लछमन दोस्त से मिली जानकारी के अनुसार गुरुनानक देव जी अपनी उदासियों के दौरान मथुरा से पाकपटन जाते हुए वरिंदावन, गोकल, रिवाड़ी, हिसार, सिरसा से होते हुए  फाजिल्का तहसील के गांव हरिपुरा में पहुंऐ थे। यहां गांव के बाहरी इलाके में एक बड़ वृक्ष के नीचे बैठकर ईश्वर भक्ति में लीन हो गए। उनके साथ उनके शिष्य भाई बाला जी और मरदाना जी भी थे।

ग्रामीणों को गुरु जी के आगमण का पता चला तो उन्होंने गुरु जी के कदमों में शीश झुकाया। ग्रामीणों का दुख सुनने के बाद गुरु जी ने फरमाया कि तुम परमपिता परमात्मा के सिख बनो, सतनाम का जाप जपो। गुरु जी ने उन्हें  एक सुंदर धर्मशाला बनाने और यहां पहुंचने वाले प्रत्येक भक्त को लंगर छकाने, सुबह-शाम सतनाम का जाप करने, सच्ची किरत करने और बांटकर छकने का आज्जन किया। वरदान देने के बाद गुरु जी, बाला और मरदाना के साथ तलवंडी की ओर रवाना हो गए।

सुल्‍तानपुर लोधी में श्री बेर साहिब

गुरु नानक देव जी ने अपने भक्ति काल का सबसे अधिक समय सुल्तानपुर लोधी में बिताया। यहां उनसे संबंधित अनेक गुरुद्वारे सुशोभित हैं। इनमें से प्रमुख हैं श्री बेर साबिह जहां आपका भक्ति स्थल था।  गुरु जी ने यहां 14 साल 9 महीने 13 दिन तक भक्ति की। यहीं उनके बैठने के स्थल को भोरा साहिब कहते हैं।  भोरा साहिब के निकट ही बेरी का एक पेड़ है जिसके बारे में मान्यता है कि गुरु जी ने अपने भक्त खरबूजे शाह के निवेदन पर उसे यहां लगाया था। 550 साल बाद भी यह हरीभरी है और अब काफी बड़े क्षेत्र  में फैल गई है।


गुरुद्वारा संत घाट : बेर साहिब से तीन किलोमीटर क दूंरी पर है गुरुद्वारा संत घाट। गुरु जी यहां प्रतिदिन स्नान करने आते थे और एक दिन डुबकी लगा कर 72 घंटे के लिए आलोप हो गए। कहा जाता है कि इसी दौरान उन्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और उन्होंने एक ओंकार के मूल मंत्र का उच्चारण किया।
श्री हट़ट साहिब  :  सुल्तानपुर लोढी में अपने ठहरकाव के दौरान नवाब दौलत खान लोधी के मोदी खाने में नौकरी की और लोगों को राशन की बिक्री करते समय इसी स्थान पर उन्होंने 'तेरा-तेरा' का उच्चारण किया था। उनके समय के 14 पवित्र बत्र्े आज भी यहां सुशोभित हैं।
श्री कोठड़ी साहिब :  मोदीखाना के हिसाब में कुछ गड़बड़ी के आरोपों के बाद गुरु साहिब को इसी स्थान पर हिसाब के लिए बुलाया गया, जहां लोगों के लगाए इल्जाम बेबुनियाद साबित हुए और हिसाब कम की जगह ज्यादा निकला था।
श्री अंतरयाम्ता साहिब :  यह वह स्थान है जहां मस्जिद में श्री गुरु नानक देव जी ने नवाब दौलत खान व उसके मौलवी को नमाज की अस्लियत बताई थी और उनसे कहा था कि भक्ति में तन के साथ मन का शामिल होना भी जरूरी है।
गुरु का बाग : गुरु  जी अपने विवाह के बाद परिवार के साथ इस स्थान पर रहे। इस  स्थान पर ही गुुरु साहिब जी के पुत्र बाबा श्री चंद एवं बाबा लख्मी दास का जन्म हुआ। इसी वजह से इस स्थान को गुरु का बाग कहते है।
ज्ञान प्राप्‍ित के बाद पहले शब्‍द थे एक ओंकार सतनाम
माना जाता है कि नानक जब काली बईं में उतरे, तो तीन दिन बाद प्रभु से साक्षात्कार करने पर ही बाहर निकले। 'ज्ञान' प्राप्ति के बाद उनके पहले शब्द थे 'एक ओंकार सतनाम'। विद्वानों के अनुसार, 'ओंकार' शब्द तीन अक्षरों - 'अ', 'उ' और 'म' का संयुक्त रूप है। 'अ' का अर्थ है जाग्रत अवस्था, 'उ' का स्वप्नावस्था और 'म' का अर्थ है सुप्तावस्था। तीनों अवस्थाएं मिलकर ओंकार में एकाकार हो जाती हैं।
बचपन में ही चढ़ गया था आध्यात्मिक रंग
गुरु नानक देव जी के पिता महिता कालू खेतीबाड़ी और व्यापार करते थे और साथ ही इलाके के जागीरदार राय बुलार के द्वारा नियुक्त गांव के पटवारी भी थे। पिता की इच्छा थी कि पुत्र उनका खानदानी कारोबार संभाले सो बचपन में गुरु जी को गोपाल पंडित के पास भाषा, पंडित बृज लाल के पास संस्कृत एवं मौलवी कुतबुद्दीन के पास फारसी पढ़ने के लिए भेजा।

पठन-पाठन के समय में गुरु जी की आध्यात्मिक प्रवृत्तियों को पहचान कर गुरु-जन नतमस्तक हुए बिना न रह सके। सांसारिक कार्य-व्यवहारों से उदासीनता और आध्यात्मिक रंग में रचे रहने की आपकी रुचि 'सच्चे सौदे' जैसे प्रसंगों से और मुखर हुई जब आपने व्यापार के लिए पिता से मिले बीस रुपये साधु-संतों को भोजन कराने में खर्च कर दिए। इसी प्रकार 'सर्प की छाया' और 'चरे खेत का हरा होना' जैसे प्रसंगों ने भी गुरु जी की आध्यात्मिक क्षमता को जनता पर प्रकट किया।
मोदीखाने में नौकरी
पुश्तैनी धंधे में लगाने पर असफल रहने पर पिता ने आपको बहन बेबे नानकी और बहनोई जै राम के पास सुल्तानपुर लोधी भेज दिया। यहां गुरु जी को नवाब के मोदीखाने में नौकरी मिल गई। गुरु जी मोदीखाने में पूरी कर्तव्यनिष्ठा के साथ सामान बेचते और साथ ही जरूरतमंदों को मुफ्त में सामान बांटते रहते। ईष्र्यालुओं ने नवाब दौलत खां से शिकायत की। मोदीखाने का हिसाब-किताब जंचवाया गया तो सब कुछ दुरुस्त निकला।

गुरु साहिब की उदासियां

13 वर्ष तक मोदीखाने में नौकरी करने के बाद गुरु नानक देव जी ने लोक कल्याण  केलिए चारों दिशाओं में चार यात्राएं करने का निश्चय किया जो चार उदासियों के नाम से प्रसिद्ध हुईं। सन् 1499 ई. में आरंभ हुई इन यात्राओं में गुरु जी भाई मरदाना के साथ पूर्व में कामाख्या, पश्चिम में मकका-मदीना, उत्तर में तिब्बत और दक्षिण में श्रीलंका तक गए। मार्ग में अनगिनत प्रसंग घटित हुए जो विभिन्न साखियों के रूप में लोक-संस्कार का अंग बन चुके हैैं। सन् 1522 ई. में उदासियां समाप्त करके आपने करतारपुर साहिब को अपना निवास स्थान बनाया।

तोड़ा कंधारी का घमंड
गुरु जी नौशहरा से होते हुआ हसन अब्दाल से बहार पहाड़ी के नीचे आकर बैठ गए। उस पहाड़ी पर एक वली कंधारी रहता था। उसे अपनी करामातों पर बहुत अहंकार था। इसके साथ की पहाड़ी पर ही पानी का एक चश्मा निकलता था। गुरु जी ने उसका अहंकार तोड़ने के लिए भाई मरदाना को उस पहाड़ी पर चश्मे का पानी लाने के लिए भेजा पर वली कंधारी ने वहां से पानी लाने को मना कर दिया। उसने कंधारी के आगे बहुत मिन्नतें कीं पर वली ने कहा अगर तेरा पीर शक्तिशाली है तो वह नया चश्मा निकालकर तुम्हें पानी दे।

जब यह बातें मरदाने ने आकर गुरु जी को बताई तो गुरु जी ने मरदाने से कहा कि सतनाम कहकर एक पत्थर उठाकर दूसरी तरफ रख दो, करतार के हुक्म से पानी का चश्मा चल पड़ेगा। जब पत्थर के नीचे से पानी का चश्मा निकला तो इसके चलने से ही पहाड़ी पर वली कंधारी का चश्मा बंद हो गया। जब वली कंधारी ने यह देखा कि उसका चश्मा बंद हो गया है और नीचे की पहाड़ी का चश्मा चल रहा है तो उसने क्रोध में आकर अपनी पूरी शक्ति के साथ पहाड़ी की एक चत्रन को गुरु जी की तरफ फेंक दिया पर गुरु जी ने उसे अपने हाथ के पंजे से रोक दिया। इन दोनों शक्तियों को देख वली कंधारी का अहंकार टूट गया और गुरु जी से अपने अपमान भरे शब्दों के लिए माफी मांगने लगा।  आज उस स्थान पर श्री पंजा साहिब गुरुद्वारा मौजूद है।
श्री गुरु नानक देव जी एक विलक्षण व्यक्तित्व
गुरु जी के महान व्यक्तित्व के विषय में भाई गुरदास ने कहा है-'सतिगुरु नानकु प्रगटिआ मिटि धुंधु जग चानणु होआ।' यानि उनके आने से संसार से अज्ञान की धुंध समाप्त होकर ज्ञान का प्रकाश फैला।
चतुर्थ पातशाह गुरु रामदास जी ने गुरु नानक देव जी की शख्सियत के विषय में फरमाया-
जिथे उह जाए तिथै उह सुरखरू
ओस कै मुहि डिठै सभि पापी तरिआ।।
अर्थात गुरु नानक देव जी जहां जाते हैैं वहां सब संपूर्ण हो जाता है। आपके दर्शन करके सब पापी तर जाते हैैं।
पंचम पातशाह श्री गुरु अर्जन देव जी गुरु नानक देव पातशाह के विषय में उच्चारण करते हैैं-
संति संग लै चडि़ओ सिकार,
मिरग पकरे बिन घोर हथिआर।।
अर्थात गुरु नानक देव जी सत्संगत के हथियार लेकर शिकार करने निकले हैैं और मृग रूपी प्राणियों सहज में ही घेर लेते हैैं।
भाई गुरदास ने गुरु नानक देव जी के अद्भुत व्यक्तित्व के बारे में लिखा है-'जिथे बाबा पैर धरे, पूजा आसण थापण सोआ' अर्थात जहां भी गुरु नानक देव जी गए वहां पूजा स्थान बन गया।
दशमेश पिता श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने 'बचित्तर नाटक' में कथन किया है कि कलियुग में श्री गुरु नानक देव जी ने ही धर्म चलाया और धर्म के खोजियों को सच्ची राह दिखाई-
तिन इह कल मो धरम चलायो।
सब साधन को राहु बतायो।।
जो ताके मारगि महि आए।
ते कबहू नहीं पाप संताए।।

-डा. राजेन्द्र साहिल

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