क्या बिहार में अकेले चुनाव लड़ेगी कांग्रेस, राजद से दूरी के बाद कन्हैया कुमार बनेंगे तेजस्वी की काट?
बिहार विधानसभा के चुनाव होने हैं। यहां आगामी विधानसभा चुनावों को लेकर कांग्रेस की रणनीति चर्चा का विषय बनी हुई है। पार्टी के हालिया नेतृत्व परिवर्तनों और राजनीतिक गतिविधियों ने अकेले चुनाव लड़ने की अटकलों को बल दिया है। यह देखना दिलचस्प होगा कि कांग्रेस अपने पुराने जनाधार को वापस पाने और राज्य की राजनीति में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए कौन सा रास्ता अपनाती है।

अरुण अशेष, पटना। बिहार में इस विधानसभा के चुनाव होने हैं। मतदाताओं की कम पूंजी और अन्य प्रमुख दलों की तुलना में कमजोर जनाधार के बावजूद बिहार में कांग्रेस अभी चर्चा में है। चर्चा कई बिंदुओं पर हो रही है, लेकिन सबसे अधिक चर्चा यह कि क्या कांग्रेस अकेले विधानसभा चुनाव लड़ेगी? यह अनुमान केंद्रीय नेतृत्व के हाल के कुछ निर्णयों के आधार पर लगाया जा रहा है। इसमें राजद के साथ तकरार के पहलुओं की खोज हो रही है।
पहला निर्णय बिहार प्रभारी के पद से मोहन प्रकाश की विदाई और उनकी जगह कृष्णा अल्लावारू की पदस्थापना है। दूसरा- जेएनयू छात्र संघ के पूर्व अध्यक्ष और भाकपा से कांग्रेस में आए नेता कन्हैया कुमार को रोजगार के प्रश्न पर राज्य की पदयात्रा की अनुमति देना है। तीसरा- राज्यसभा के सदस्य डॉ. अखिलेश प्रसाद सिंह की जगह विधायक राजेश कुमार को प्रदेश अध्यक्ष पद पर बिठाना है।
कांग्रेस के इन तीनों फैसलों का क्या अर्थ है?
इन तीनों निर्णयों की व्याख्या इस रूप में की जा रही है कि कांग्रेस राजद की छाया से निकल कर अपने पुराने जनाधार को हासिल करना चाह रही है। बताया जा रहा है कि मोहन प्रकाश राजद से मोलभाव के समय आक्रामक नहीं हो सकते थे। कन्हैया विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव की काट के रूप में काम करेंगे, क्योंकि रोजगार और सरकारी नौकरी का वादा ही राजद का मुख्य चुनावी मुद्दा है।
डॉ. अखिलेश प्रसाद सिंह की पृष्ठभूमि राजद की रही है। इसलिए वह लालू प्रसाद के सामने बैठकर सीटों पर मोलभाव नहीं कर सकते हैं। एक पक्ष निर्दलीय सांसद पप्पू यादव का भी है।
इनके बारे में चर्चा है कि कांग्रेस इन्हें पूर्णिया लोकसभा क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाना चाहती थी, लेकिन लालू प्रसाद और विशेष कर तेजस्वी यादव की सहमति न मिलने के कारण पप्पू को निर्दलीय चुनाव लड़ना पड़ा। उनकी जीत भी हुई। कांग्रेस की नई संरचना में यह भी जोड़ा जा रहा है कि अब पप्पू यादव भी सहयोग करेंगे।
क्या ये प्रयास कांग्रेस को करेंगे मजबूत?
प्रश्न पूछा जा रहा है क्या इन प्रयासों से कांग्रेस मजबूत होने जा रही है? व्यावहारिक पक्ष यह है कि 1990 में बिहार की सत्ता से अलग होने के बाद हरेक विधानसभा से पहले कांग्रेस कुछ नया प्रयोग करती रही है। परिणाम यह बता रहा है कि तमाम प्रयासों के बावजूद 2015 को छोड़ दें तो हर विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की कुछ सीटें कम ही होती गईं।
कांग्रेस ने राजद से अलग होकर चुनाव लड़ने का भी टोटका आजमाया। वर्ष 2010 में यह फलदायी साबित नहीं हुआ। सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने के बावजूद उसे केवल चार सीटों पर सफलता मिली। अंतत: 2015 में वह राजद गठबंधन में शामिल हुई। उसे 27 सीटों पर सफलता मिली।
उसे गठबंधन में चुनाव लड़ने के लिए 41 सीटें दी गई थीं। यह 1995 के विधानसभा चुनाव से दो कम था, जब कांग्रेस मुख्य विपक्षी पार्टी के रूप में चुनाव लड़ी थी। 2020 में कांग्रेस 70 सीटों पर चुनाव लड़ी और 19 पर जीती।
क्या बिहार में अकेले चुनाव जीतने की स्थिति में है कांग्रेस?
इस पृष्ठभूमि को और बीते पांच वर्षों में राज्य कांग्रेस की जमीनी गतिविधियों को देखें तो कहीं से यह नहीं कहा जा सकता है कि कांग्रेस इतनी मजबूत हो गई है कि वह अकेले चुनाव लड़े और इतनी सीटें जीत जाए, जिससे उसके सहयोग के बिना किसी की सरकार नहीं बनेगी।
यह ऐसा सच है, जिसे सच्चे कांग्रेसी भी स्वीकार कर रहे हैं कि सत्ता से अलग होने के साथ ही वह जनाधार भी गंवाती चली गई और उसे फिर से जोड़ने के लिए कोई सार्थक प्रयास नहीं किया गया। बहुलता में उसके सवर्ण वोटर एनडीए के साथ चले गए। मुसलमानों और पिछड़ों ने समाजवादी पृष्ठभूमि के दलों को पकड़ लिया। अनुसूचित जाति के वोटर प्रसाद की तरह दलों में बंटते चले गए।
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सबसे अधिक दल-बदल करने वाले कांग्रेसी नेता
दुखद यह रहा कि इन वर्षों में किसी भी प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का कार्यकाल निश्चिंत भाव से काम करने वाला नहीं रहा। कांग्रेस राज्य की पहली ऐसी पार्टी है, जिसके प्रदेश अध्यक्षों ने सबसे अधिक दल बदल किया।
तारिक अनवर, चौधरी महबूब अली कैसर, अशोक चौधरी, अनिल शर्मा, रामजतन सिन्हा आदि का नाम इस सूची में शामिल किया जा सकता है। इनमें तारिक अनवर और रामजतन सिन्हा फिर कांग्रेस में लौट आए हैं। पार्टी छोड़ते समय इन सबने तत्कालीन आलाकमान पर यह आरोप लगाया कि उनके काम में अकारण दखल दिया जा रहा था।
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कांग्रेस के नए प्रदेश अध्यक्ष राजेश कुमार इस समय सबको साथ लेकर चलने का दावा कर रहे हैं, लेकिन उनके समर्थक अभी से ही निवर्तमान प्रदेश अध्यक्ष अखिलेश सिंह के विरुद्ध मोर्चा खोलकर बैठे नजर आ रहे हैं। कुल मिलाकर स्थितियां कांग्रेस के किसी समर्थक को इस हद तक उत्साहित नहीं होने दे रही हैं कि वह अकेले चुनाव लड़कर सम्मानजनक सीटें हासिल करने के बारे में सोचे। निश्चित रूप से राजद भी अकेले चुनाव लड़ने की खुशफहमी नहीं पाल सकता है।
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