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    Jharkhand Election 2024: झारखंड में न मरांडी चले न मुंडा न उरांव, भाजपा की करारी हार का जिम्मेदार कौन?

    Updated: Tue, 26 Nov 2024 09:40 PM (IST)

    Jharkhand Election 2024 झारखंड विधानसभा चुनाव में करारी हार की समीक्षा के लिए भाजपा ने 30 नवंबर को प्रदेश स्तर पर वृहद समीक्षा बैठक बुलाई है। किंतु परत दर परत सच्चाई अभी से बाहर आने लगी है। झारखंड में आदिवासी वोटरों में भाजपा की कभी ऐसी दमदार पकड़ होती थी कि शिबू सोरेन को भी जीत के लिए तरसना पड़ता था।

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    झारखंड में भाजपा ने बुलाई समीक्षा बैठक।

    अरविंद शर्मा, नई दिल्ली। झारखंड विधानसभा चुनाव में करारी हार की समीक्षा के लिए भाजपा ने 30 नवंबर को प्रदेश स्तर पर वृहद समीक्षा बैठक बुलाई है। किंतु परत दर परत सच्चाई अभी से बाहर आने लगी है। झारखंड में आदिवासी वोटरों में भाजपा की कभी ऐसी दमदार पकड़ होती थी कि शिबू सोरेन को भी जीत के लिए तरसना पड़ता था। भाजपा के पास जमीनी पकड़ रखने वाले कड़िया मुंडा जैसा आदिवासी नेता हुआ करते थे लेकिन अब सब उलट गया है।

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    परिणाम के बाद कहा जा रहा कि सारी चालें बाहर से आए दो-तीन नेताओं की ओर से चली जा रही थीं, किंतु सीएम पद के दावेदार इसकी ओट में जिम्मेवारियों से पीछा नहीं छुड़ा सकते। सुस्त कप्तान से युद्ध नहीं जीता जा सकता। झारखंड भाजपा में शुरू से ही सारी तैयारी भगवान भरोसे थी। पिछले वर्ष चार जुलाई को प्रदेश भाजपा की कमान बाबूलाल मरांडी को सौंपी गई थी। डेढ़ वर्ष बीत गए, लेकिन उन्होंने नई कमेटी नहीं बनाई।

    लोकसभा चुनाव में हार के बाद नहीं बरती सतर्कता

    पूर्व अध्यक्ष दीपक प्रकाश की कमेटी से ही काम चलाते रह गए। इसके 90 प्रतिशत सदस्य रांची के आसपास के थे। मतलब प्रदेश भाजपा में जिलों का समान प्रतिनिधित्व नहीं था। मरांडी को इतने दिनों तक किसने रोका था संगठन में धार देने से? क्या प्रदेश कमेटी भी बाहर के लोग ही बनाते? लोकसभा चुनाव में पांचों आदिवासी सीटों पर हार के बाद भी सतर्कता नहीं बरती गई तो इसकी जिम्मेवारी कौन लेगा?

    संगठन को बर्बाद करने का जिम्मेदार कौन?

    प्रभारी लक्ष्मीकांत वाजपेयी कहते रहे कि संगठन को बर्बाद करने में तीन लोग जिम्मेवार हैं-संगठन मंत्री कर्मवीर सिंह, बाबूलाल मरांडी और दीपक प्रकाश, मगर उनकी नहीं सुनी गई। शुरू में मरांडी एवं दीपक प्रकाश की टीम में छत्तीस का आंकड़ा रहा, किंतु बाद में आत्महित में मरांडी ने सुलह कर लिया। समर्पित हो गए। अब बात आदिवासी सीटों पर दुर्गति की।

    भाजपा ने जिस बाबूलाल को प्रदेश की कमान सौंपी और मुख्यमंत्री का चेहरा बनाया, उन्होंने भी आदिवासी सीट से लड़ने का साहस नहीं दिखाया। चुनाव जीतने के लिए उन्होंने भी सामान्य सीट को ही चुना। फिर आदिवासी सीटों से कौन होता प्रत्याशी? एक और महारथी हैं अर्जुन मुंडा। तीन बार मुख्यमंत्री रहे और पांच वर्षों तक केंद्रीय कैबिनेट की भी शोभा बढ़ाए।

    लोकसभा चुनाव में हारकर स्वयं के पराक्रम पर तो बट्टा लगाया ही, विधानसभा चुनाव में भी नाम के अनुरूप लक्ष्य नहीं साध पाए। पत्नी को टिकट दिलाने में तो सफल हो गए, पर उन्हें हार से बचा नहीं पाए। अर्जुन अगर भाजपा के किसी कोर कार्यकर्ता को टिकट दिलाते तो उनकी इतनी फजीहत नहीं होती।

    भाजपा में उरांव आदिवासी का प्रतिनिधितिव समीर उरांव करते थे। वह भी एक सीट नहीं दिला सके। दिलाते भी कैसे। वह खुद उरांव बहुल सिसई और बिशुनपुर से कई बार हार चुके थे। लोहरदगा से लोकसभा चुनाव भी हारे लेकिन उरांव के नेता बने बैठे रहे।

    कथनी-करनी में फर्क दिखा

    आदिवासियों के लिए रिजर्व 28 विधानसभा सीटों पर भाजपा का प्रदर्शन।

    • वर्ष     सीटें
    • 2000- 14
    • 2005 - 09
    • 2009 - 08
    • 2014- 11
    • 2019-02
    • 2024- 01

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