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Upper Caste Reservation: अगड़ी जातियों के लिए जरूरी है आरक्षण, ये कारण भी जान लें

Upper caste Reservation बेशक आम चुनाव से पहले यह केंद्र की भाजपा सरकार का चुनावी दांव हो सकता है, लेकिन यह बेहद जरूरी है। यह एक अच्छा कदम है और इसे सराहा जाना चाहिए।

By Digpal SinghEdited By: Published: Tue, 08 Jan 2019 12:44 PM (IST)Updated: Tue, 08 Jan 2019 12:55 PM (IST)
Upper Caste Reservation: अगड़ी जातियों के लिए जरूरी है आरक्षण, ये कारण भी जान लें
Upper Caste Reservation: अगड़ी जातियों के लिए जरूरी है आरक्षण, ये कारण भी जान लें

[राजेश रघुवंशी] Upper caste Reservation प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्रीय कैबिनेट ने सवर्णों के लिए 10 फीसद आरक्षण की घोषणा कर दी है। लोकसभा चुनाव से ठीक पहले यह घोषणा हुई है, इसलिए इसे चुनावी दांव भी कहा जा रहा है। बेशक आम चुनाव से पहले यह केंद्र की भाजपा सरकार का चुनावी दांव हो सकता है, लेकिन यह बेहद जरूरी है। यह एक अच्छा कदम है और इसे सराहा जाना चाहिए, मोदी सरकार का यह कदम उसके लिए मास्टरस्ट्रोक साबित हो सकता है। जातीय या सामाजिक आधार पर पिछड़े वर्ग से आने वाले लोग लंबे वक्त से आरक्षण का फायदा ले रहे हैं, लेकिन गरीब सवर्ण ऐसे अवसरों से वंचित रह जाते हैं।

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सवाल SC/ST और OBC आरक्षण को लेकर भी हैं। मांग हो रही है कि अगर सवर्णों को आरक्षण मिलता है तो फिर SC/ST और OBC के लिए भी आरक्षण को कोटा बढ़ाया जाना चाहिए, जो तर्कसंगत नहीं है। जातीय या सामाजिक आधार पर पिछड़े इन वर्गों से एक बड़ा तबका आरक्षण का लाभ ले चुका है और अब वह क्रीमी लेयर कहलाता है। इस क्रीमी लेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर किए जाने की भी जरूरत है। क्रीमी लेयर को आरक्षण के दायरे से बाहर करने का लाभ इसी वर्ग के वंचितों को मिलेगा। सवाल तो जाति के आधार पर आरक्षण को लेकर भी उठते रहे हैं, लेकिन इन सवालों को विराम देते हुए केंद्र सरकार ने अगड़ी जातियों को भी आरक्षण के दायरे में लाने का रास्ता तैयार कर दिया है।

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जाति के आधार पर आरक्षण जारी रहना चाहिए या नहीं, इसके पक्ष और विपक्ष में सोशल मीडिया से लेकर सड़क तक बहस और विरोध का माहौल बना हुआ है। मौजूदा आरक्षण व्यवस्था से सामाजिक समरसता भी प्रभावित हो रही है। जातियों में बंटे लोग अपने फायदे और नुकसान के हिसाब से इसे देख रहे हैं। कुछ का सवाल है कि आख़िर जाति के आधार पर आरक्षण कब तक जारी रहेगा। योग्यता को कब बढ़ावा मिलना शुरू होगा। जिन जातियों को आरक्षण मिल रहा है, उनका तर्क है कि आरक्षण से कुछ फ़ायदा ज़रूर हुआ है, लेकिन दलित व पिछड़ी जातियां अब भी पिछड़ी हैं।

देखा जाए तो देश में अब ऐसी कई जातियों की संख्या लगातार बढ़ रही हैं जो सामाजिक रूप से भले ही अगड़ी जातियों में शुमार हों, लेकिन आर्थिक मोर्चे पर तेजी के साथ पिछड रही हैं।

वैसे भी आधुनिक भारत की सामाजिक व्यवस्था अब जाति पर आधारित नहीं रही और देश कृषि आधारित अर्थव्यवस्था से बाहर निकल चुका है। देश का मौजूदा आर्थिक स्वरूप बाजार आधारित है। अगड़ी जातियां जो जमीन के आधार पर आर्थिक रूप से ताकतवर कही जाती थीं आज उनके हिस्से की जमीन भरण पोषण करने में नाकाम है और उनकी सामाजिक स्थिति भी दयनीय हो चुकी है। खासकर उन अगड़ी जातियों में ज्यादा असंतोष है जिनकी आय का मुख्य साधन केवल खेती है। यही वजह है कि जाट, गुर्जर, पाटीदार और मराठा जैसी जातियां भी आरक्षण के लिए आंदोलन का सहारा ले रही हैं। जैसे-जैसे आर्थिक विषमता और बढ़ेगी आरक्षण की मांग के साथ आंदोलन भी होंगे और क्षत्रिय, ब्राम्हण समेत और कई अगड़ी जातियां भी उससे जुड़ेंगी।

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यह हैरान करने वाला है कि सत्ताधारी दल से लेकर सभी राजनीतिक पार्टियां इस मसले पर कुछ भी करने के लिए तैयार नहीं है। आखिर तथाकथित अगड़ी जातियों की आर्थिक विषमता कैसे दूर होगी। आरक्षण समाप्त करके या उन्हें भी आरक्षण देकर? कुछ तो इस दिशा में सोचना ही होगा नहीं तो इसके नतीजे देश और समाज के लिए खतरनाक हो सकते हैं।

'गीता' के अनुसार, 'ममैवांशो जीवलोके अर्थात् मनुष्य भगवान का विशुद्ध अंश है जब उसमें जाति ही नहीं है तो जाति के आधार पर आरक्षण कैसा? आरक्षण देना है तो आर्थिक आधार हो सकता है। राजनीतिक दलों के लिए आरक्षण अब एक ऐसा मुद्दा बन चुका है, जो उन्हें चुनाव जितवा और हरा सकता है। आरक्षण का यह माडल सभी को भा रहा है। इस लिए कोई इस संबंध में बोलने तक को तैयार नहीं है। हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था, संख्याबल का खेल है। वोट वाली राजनीति है, इसका सीधा सा चुनावी गणित है कि समाज में फूट डालो और अपने पक्ष में गोलबंदी करो, जिसकी गोलबंदी मजबूत सत्ता उसकी। सत्ता में बैठे लोग भी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि इस रवैये से आरक्षण की समस्या और पेचीदा होती रहेगी और वे इसका राजनीतिक प्रयोग करते रहेंगे।

वर्तमान मौजूदा सरकार भी पिछड़ों की जनगणना कराने जा रही है। एक तरफ तो एजेंडा है कि भारत दोबारा विश्व गुरु बने और देश में राष्ट्रवाद फले-फूले, लेकिन दूसरी तरफ पिछड़ों- अगड़ों और दलितों, की जनगणना कर समाज को जातीय कबीले में बांटना चाहते हैं ? क्या इन तरीकों से भारत विश्व गुरु बनेगा और राष्ट्रवाद मजबूत होगा। यह विचारणीय प्रश्न है। असमानता, गैर-बराबरी सामाजिक अपमान का दर्द सह रहे समाज को देश की मुख्यधारा में जोड़ने के लिए बाबा साहब ने जिस पवित्र भावना से भारतीय संविधान में आरक्षण का प्रयोग किया आज उसकी प्रासंगिकता पर प्रश्नचिन्ह लगने लगे हैं तो इसका कारण क्या है? इस संबंध में भी विचार किया जाना चाहिए। आरक्षण के नाम पर समाज बंट रहा है तो उसके लिए कौन से कारक जिम्मेदार हैं।

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देखा जाए तो आरक्षण का प्रस्ताव पारित होते समय महात्मा गांधी ने जो आंशका जताई थी कि इससे हिंदू समाज विभाजित हो सकता है वह सच साबित हो रही है। आवश्यकता इस बात की है कि सरकार अगड़ी जातियों की विपन्नता और कमजोर जातियों को जारी आरक्षण में कोई न कोई सामंजस्य बनाए। आरक्षण का आधार आर्थिक हो या जाति। वोट बैंक से ऊपर उठकर इसके फायदे और नुकसान के बारे में सोचा जाना चाहिए। यदि इस ओर जल्दी ही ध्यान नहीं दिया गया तो समाज में जातीय खाई और चौड़ी होगी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं। )


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