'चुकानी होगी कीमत', क्यों खफा हैं भाजपा के सहयोगी; संजय निषाद के तेवर दिखाने का क्या है मतलब?
उत्तर प्रदेश की राजनीति में 2027 के विधानसभा चुनाव के लिए नैरेटिव सेट करने का प्रयास जारी है। राजग के सहयोगी दल जातीय आधार वाले मतदाताओं के लिए सक्रिय हैं। मंत्री संजय निषाद ने छोटे दलों के फायदे पर सवाल उठाकर राजनीतिक माहौल को गरमा दिया है। अपना दल (एस) निषाद पार्टी और सुभासपा जैसे दल गठबंधन में अपना महत्व बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं।

भारतीय बसंत कुमार, राज्य ब्यूरो। उत्तर प्रदेश की राजनीतिक भूमि में क्षेत्रीय दलों के चुनावी दबाव का बीज अंखुआ रहा है तो 2027 के विधानसभा चुनाव के लिए नैरेटिव सेट करने का जोर भी दम भर रहा है। इस चुनाव से पहले पंचायत चुनाव में अपनी दखल के लिए भाजपा की आगुआई वाले राजग (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन) के सहयोगी क्षेत्रीय दल अपने जातीय आधार वाले वोटरों के लिए एजेंडा की तलाश में जुटे हैं। सरकार के साथ बिताए गए मंत्री पद के कार्यकाल में अपनों के लिए क्या किया, यह हिसाब लेने-देने का वक्त धीरे-धीरे नजदीक आ रहा है।
पहले मछुआ समाज की मांग पूरी नहीं होने और अनुसूचित जाति आरक्षण के मुद्दे पर विधान भवन घेरने की बात कह चुके योगी सरकार के मंत्री संजय निषाद ने हाल में ही यह बयान देकर राजनीतिक तपिश तेज की है कि-‘यदि उसे लगता है कि छोटे दलों से फायदा नहीं है तो वह (भाजपा) गठबंधन तोड़ दे।’
यूपी में कौन-कौन मुखर?
इसी माह दिल्ली में पार्टी के स्थापना दिवस समारोह (16 अगस्त को) में अपना दल (एस) और सुभासपा नेताओं को जुटाने के बाद निषाद पार्टी के मुखिया संजय निषाद का छोटे दलों के सापेक्ष अगुआपन ज्यादा मुखर दिख रहा है। बाकी छोटे दल भी गठबंधन में अपने महत्व का पारा बढ़ाने की कवायद में हैं।
अपना दल (एस), निषाद पार्टी और सुभासपा जैसे जाति-आधारित छोटे दल विशिष्ट जाति समुदायों (कुर्मी, निषाद, राजभर) का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी राज्य के जाति-आधारित चुनावी समीकरण में महत्वपूर्ण भूमिका है। पूर्वांचल की राजनीति में इन तीनों दलों की मजबूत दखल भी है।
निषादों को किया दरकिनार तो चुकानी होगी कीमत
निषाद पार्टी ने साफ संकेत दिए हैं कि यदि भाजपा निषादों की मांगों को दरकिनार करती रही तो उसे इसकी कीमत चुकानी पड़ सकती है। निषाद पार्टी का यह भी दावा है कि वह प्रदेश में चुनावी परिणामों को प्रभावित करने की स्थिति में है।
प्रदेश में करीब पांच दर्जन सीटें ऐसी हैं, जिन पर निषाद समाज का प्रभाव है। बीते विधानसभा चुनाव में छह सीट भी हासिल हुई थीं। निषादों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिलाने के वादे को लेकर संजय खुद को घिरा महसूस करते हैं। यह अभी अधूरा है। सामने पंचायत चुनाव, फिर विधानसभा चुनाव है। इस स्थिति से नुकसान का उन्हें डर है।
संजय निषाद का क्या है दांव?
इधर, संजय निषाद को यह भी लग रहा है कि भाजपा पूर्व राज्यसभा सदस्य जयप्रकाश निषाद को महत्व दे रही जयप्रकाश निषाद का बयान भी उन्हें असहज करता रहा है। ऐसे में अपनी नाराजगी दिखाकर संजय निषाद भाजपा पर दबाव बनाने का दांव चल रहे हैं।
लोकसभा चुनाव में निषाद पार्टी का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था। भाजपा में एक स्वर यह भी है कि लोकसभा चुनाव में संत कबीर नगर सीट से संजय निषाद के बेटे प्रवीण निषाद की हार और समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार पप्पू निषाद की जीत का आकलन होना चाहिए।
निषादों का वोट भाजपा में ट्रांसफर कराने में संजय निषाद कितने प्रभावी हैं, यह सवाल उठ रहा है। संजय निषाद के लिए सपा का साथ पाना भी बहुत आसान नहीं होगा। सपा इस बात को याद करेगी कि साल 2019 लोकसभा चुनाव के पहले संजय निषाद ने दिन में अखिलेश यादव के साथ प्रेस वार्ता की थी और उसी दिन शाम होते ही भाजपा गठबंधन का हिस्सा बन गए थे।
संजय निषाद ने दिल्ली के कार्यक्रम में योगी सरकार के मंत्री ओम प्रकाश राजभर और आशीष पटेल को भी शामिल किया था।
भाजपा और रालोद का विवाद भी विधानसभा के मानसून सत्र के समय सामने आया था, जब योगी सरकार के मंत्री लक्ष्मी नारायण चौधरी ने जयन्त चौधरी के नेतृत्व वाली पार्टी के बारे में यह टिप्पणी की थी कि जो भी पार्टी जाट-बहुल रालोद के साथ गठबंधन करती है, उसका विनाश होता है और उसे चुनावों में हार का सामना करना पड़ता है। बाद में उन्होंने अपनी बात वापस ले ली थी।
सूत्रों के अनुसार, मथुरा की छाता सीट से विधायक लक्ष्मी नारायण चौधरी का स्थानीय रालोद पदाधिकारी और पूर्व विधायक तेजपाल सिंह से गहरा मतभेद है। बयान की पृष्ठभूमि में यह अदावत भी रही हो।
इससे पूर्व जुलाई में, अपना दल (एस) ने अपनी पार्टी के बागियों को सरकारी पदों पर नियुक्त किए जाने पर आपत्ति जताई थी। अपना दल (एस) के उपाध्यक्ष और मंत्री आशीष पटेल भारतीय जनता पार्टी सरकार से खफा चल ही रहे हैं।
इधर, ओम प्रकाश राजभर के नेतृत्व वाली सुभासपा भी राजभर समुदाय के लिए अनुसूचित जाति का दर्जा चाहती है। वह भी भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व के समक्ष अपनी मांग पर अडिग है। राजभर को मंत्रिमंडल में बहुत देर से दोबारा जगह मिली है।
भाजपा अध्यक्ष क्या कह रहे हैं?
भारतीय जनता पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व बिहार चुनाव में खुद को केंद्रित किए है। भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह चौधरी की एक विशेषता यह भी है कि स्वभावगत रूप से वह बहुत शांतचित्त हैं।
प्रदेश अध्यक्ष यह बार-बार दोहरा रहे हैं कि-"गठबंधन के दलों में सबका सोच एक जैसा नहीं होता। कई बार एक पार्टी नेता दूसरे के बयान से नाराज हो जाते हैं, भले ही वे सहयोगी हों। यह बात उनके गठबंधन पर भी लागू है, पर जनकल्याण, गठबंधन की मजबूती और विकास के मुद्दे पर हम सब एकजुट हो जाते हैं।"
दबाव की राजनीति की शुरुआत का अंत क्या गुल खिलाता है यह थोड़े दिन और समय के गर्भ में पड़ा रहेगा।
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