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एक साथ चुनाव के निहितार्थ,बदलाव की राह आसान नहीं

देश में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने के संबंध में बीते कुछ वर्षों के दौरान लगातार चर्चा हो रही है।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 30 Aug 2018 09:25 AM (IST)Updated: Thu, 30 Aug 2018 09:37 AM (IST)
एक साथ चुनाव के निहितार्थ,बदलाव की राह आसान नहीं
एक साथ चुनाव के निहितार्थ,बदलाव की राह आसान नहीं

[गौरव कुमार]। आकाशवाणी पर मन की बात कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने लोकसभा और राज्यों की विधानसभा चुनाव एक साथ कराने की बात कर इसे फिर से चर्चा में ला दिया है। इससे पहले राष्ट्रपति भी इस मसले पर सहमति जता चुके हैं। हाल में मुख्य चुनाव आयुक्त ने इस विषय में कहा था कि किसी कानूनी ढांचे का निर्माण किए बिना एक साथ चुनाव संभव नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि इस बहस का अंत किसी ठोस वैधानिक निदान के साथ शीघ्र संभव होगा। लेकिन इस बदलाव की राह इतनी आसान भी नहीं दिख रही है। कुछ राजनीतिक दल इसके समर्थन में है जबकि कुछ इसे लोकतंत्र की भावना को कमजोर करने वाला कदम बताते हुए विरोध में हैं। एक साथ चुनाव कराने के पीछे बड़ा तर्क यह दिया जाता है कि बार-बार चुनाव होने से संसाधनों पर अधिक बोझ पड़ता है।

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 पहले भी हुए हैं लोकसभा व विधानसभाओं के चुनाव 

आजादी के बाद से लेकर 1967-68 तक लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होते थे। उसके बाद कुछ विधानसभा का समयपूर्व विघटन होने से एक साथ चुनाव कराना संभव नहीं हो पाया। उसके बाद इस दिशा में कोई ठोस पहल नहीं की गई। मौजूदा केंद्र सरकार ने इस मुद्दे पर गंभीरता से विमर्श को आगे बढ़ाया है। वर्ष 2015 में संसदीय स्थायी समिति ने चुनावों को एक साथ कराने की सिफारिश की। यूपीए शासन काल में भी इस दिशा में कदम बढ़ाए गए थे किंतु उसका प्रतिफल सकारात्मक नहीं निकला।

वित्तीय बचत व संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल की बात

एक साथ चुनाव कराए जाने को लेकर कई सकारात्मक पहलू देश के सामने दिख रहे हैं। नीति आयोग की हालिया गवर्निंग काउंसिल की चौथी बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा था कि सरकार ने लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने पर विचार कई पहलुओं को ध्यान में रखकर किया है, जिसमें वित्तीय बचत व संसाधनों के बेहतर इस्तेमाल की बात शामिल है। देखा जाए तो एक साथ चुनाव कराने से आर्थिक बचत तो होगी ही, राजनीतिक दलों के धन व्यय में कमी के कारण भ्रष्टाचार और काले धन के प्रयोग पर भी अंकुश लगेगा।

एक साथ चुनाव होने से समस्याओं से निजात

सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2014 के लोकसभा चुनावों में अघोषित तौर पर 30,000 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। चुनाव आयोग के अनुसार सभी राज्यों के विधानसभा चुनावों पर करीब 4,500 करोड़ रुपये खर्च हुए थे। वहीं केंद्र सरकार का मानना है कि यदि अब सारे चुनाव एक साथ होंगे तो इन पर केवल 4,500 करोड़ रुपये का खर्च आएगा। इसके अलावा बार-बार चुनाव होने से सरकारी मशीनरी इसी कार्य में उलझी रहती है जिससे राष्ट्रीय और जनहित के कार्य प्रभावित होते हैं। भारी मात्रा में सैन्य बलों और सरकारी कर्मियों की आवश्यकता के कारण कई अन्य उत्पादक कार्य थम जाते हैं या उनकी गति धीमी पड़ जाती है। इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण बात भ्रष्टाचार को लेकर कही जा सकती है। अक्सर होते रहने वाले चुनाव में काफी अधिक व्यय होता है। इस व्यय का अधिकांश हिस्सा काला धन का होता है। इससे राजनीतिक शह पर भ्रष्टाचार भी पनपता है। एक साथ चुनाव होने से इन समस्याओं से निजात मिलने की उम्मीद काफी हद तक की जा सकती है।

इन सकारात्मक तथ्यों के अलावा इसके विरोध में भी कई मुद्दे सामने आए हैं जिन पर चर्चा करना महत्वपूर्ण है। सबसे बड़ी चिंता यह व्यक्त की जा रही है कि इससे संघीय ढांचे को नुकसान होगा। साथ ही यह लोकतंत्र के लिए खतरा है। किंतु यह चिंता निराधार प्रतीत होती है क्योंकि एक साथ चुनाव किसी भी रूप में संघीय ढांचे को विकृत करने वाला नहीं है। क्योंकि एक साथ चुनाव कराने में केंद्र की भूमिका नहीं है, यह चुनाव आयोग की जिम्मेदारी है और इससे राज्यों के अधिकारों का अतिक्रमण भी नहीं किया जा रहा है।

यहां यह अवश्य है कि इसे लागू करने के लिए किसी विधानसभा के कार्यकाल को घटाना या बढ़ाना पड़ सकता है। किंतु इसका निदान भी किया जा सकता है कि इसे एक बार में लागू नहीं कर चरणबद्ध तरीके से लागू किया जाए। कुछ राजनीतिक दल यह आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि इससे क्षेत्रीय मुद्दों की जगह राष्ट्रीय मुद्दे प्रभावी रह सकते हैं। यह चिंता भी व्यावहारिक नहीं प्रतीत होती क्योंकि देश की जनता लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में भेद करना सीख चुकी है और अब वह इतनी परिपक्व हो गई है कि इस तरह के मुद्दे को समझ सके। साथ ही यदि ऐसी स्थिति कहीं आती भी है तो जागरुकता फैला कर इस तरह की स्थिति को रोका जा सकता है। ऐसे में एक साथ चुनाव कराने के विरोध में कोई मजबूत तर्क नहीं दे पा रहा है। ऐसी दशा में केवल विरोध के लिए विरोध करना उचित नहीं है। इसके लिए देशहित में सभी राजनीतिक दलों को एकजुट होना पड़ेगा।

एक साथ चुनावों के सकारात्मक बदलाव की उम्मीद को देखते हुए यह सुखद तो लगता है किंतु लोकसभा और राज्यों की विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाने की सुखद अनुभूति के साथ एकीकृत चुनाव के कार्यान्वयन में कई बाधाएं व चुनौतियां भी हैं। सबसे महत्वपूर्ण बाधा यह है कि इस मुद्दे पर राजनीतिक पार्टियों में मतभेद है जिसे एकमत करना अत्यंत जटिल है। इसके साथ ही कई क्षेत्रीय दल तो यह भी मानते हैं कि इससे उनका अस्तित्व तक मिट सकता है क्योंकि उन्हें यह भय है कि एकीकृत चुनावों में राष्ट्रीय पार्टियां अधिक प्रभावी होंगी।

संविधान में संशोधन करना होगा

एक साथ चुनाव कराने के लिए संविधान में संशोधन करना होगा और उसे पारित करना भी एक बड़ी चुनौती है। कानून और कार्मिक मामलों की स्थायी समिति ने लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए जाने की व्यवहार्यता पर अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि यह प्रक्रिया चरणों में किया जाना संभव है। इसके लिए कुछ विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ाना या घटाना पड़ेगा। समिति ने वैकल्पिक एवं व्यावहारिक पद्धति की सिफारिश की है जिसमें दो चरणों में चुनाव कराया जाना है। इन सबके साथ एक महत्वपूर्ण दीर्घकालीन चुनौती यह पैदा होगी कि यदि भविष्य में मध्यावधि चुनाव की नौबत आती है तो यह सारी प्रक्रिया बीच में ही थम सकती है। इसे रोकना अत्यंत जटिल और मुश्किल है।

देश में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को एक साथ कराने के संबंध में बीते कुछ वर्षों के दौरान लगातार चर्चा हो रही है। चुनाव आयोग विभिन्न दलों के साथ बैठक कर रहा है, ताकि इस मसले का समुचित हल निकाला जा सके। वैसे एक साथ चुनाव कराने के कई फायदे हैं, लेकिन इसका विरोध करने वालों की आशंकाओं को भी खारिज नहीं किया जा सकता। ऐसे में सभी राजनीतिक दलों को इसके तमाम पहलुओं पर गंभीरता से विचार करना होगा। 

[स्वतंत्र टिप्पणीकार]


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