Analysis: लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका हंगामा करना भर नहीं है
किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता पक्ष तथा विपक्ष एक गाड़ी के दो पहियों के समान होते हैं
सुधीर कुमार। संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण का सारा समय विपक्ष की अनावश्यक, अशोभनीय व अनियंत्रित हंगामे की भेंट चढ़ गया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विपक्षी दलों के नकारात्मक रवैये की आलोचना करते हुए कहा कि संसदीय लोकतंत्र न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया है। वहीं सत्र के दौरान विपक्षी दलों द्वारा रचनात्मक भूमिका न निभाए जाने के खिलाफ भाजपा सांसदों ने 12 अप्रैल को देशभर में अनशन करने का निर्णय लिया है। वर्ष 2000 के बाद यह अब तक का सबसे कम कामकाज वाला सत्र रहा। इस तरह संसद सत्र के निर्थक रहने से देश की जनता के 190 करोड़ रुपये भी अकारण बरबाद हो गए। एक विकासशील देश में पानी की तरह बहाए गए ये रुपये लाखों गरीबों, बेरोजगारों और जरूरतमंदों का कल्याण करने में सक्षम थे, लेकिन दुर्भाग्यवश उचित प्रबंधन के अभाव में यह विपक्ष की हठधर्मिता की भेंट चढ़ गया। सवाल यह है कि आखिर कौन देगा इस मोटी रकम का हिसाब?
यह देश हित में नहीं
स्पष्ट है संसद सत्र के बेनतीजा रहने से एक बार फिर आम जनता की आशाओं और अपेक्षाओं पर तुषारापात हुआ है। जनादेश का अपमान कर राजनीतिक लाभ के लिए संसद सत्र को बाधित करना देशहित में नहीं है। जिस तरह कुछ सांसद संसद सत्र को बाधित करने में लगे थे, उससे नहीं लगता कि बेहतर शासन के प्रति हमारे माननीय गंभीर हैं। जनप्रतिनिधि लोकतंत्र की रीढ़ माने जाते हैं, लेकिन विडंबना है कि सदन में वे अपनी साधारण-सी नैतिकता भी खोते जा रहे हैं।
विपक्ष में रहते हुए सभी पार्टियां ऐसा करती हैं
भले ही हमारा देश विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश की उपमा से अलंकृत है, लेकिन वास्तव में हमारी संसदीय राजनीति में ‘विपक्ष’ की परंपरागत परिभाषा दिन-ब-दिन बदलती जा रही है। प्रतीत होता है कि मौजूदा परिदृश्य में विपक्ष का एकमात्र अर्थ रह गया है-सत्ता पक्ष के किसी भी नीति या सिद्धांत का ऐसा पुरजोर विरोध कि खबर ‘ब्रेकिंग न्यूज’ से नीचे न बने। मेरा इशारा किसी एक पार्टी की ओर नहीं है, क्योंकि सभी पार्टियों के नेतागण विपक्ष में रहने पर इसी तरह के व्यवहार का अनुकरण करते नजर आते हैं। स्वस्थ लोकतंत्र के लिए सत्ता पक्ष की कमियों का संवैधानिक तरीके से विरोध करना निहायत जरूरी है, लेकिन संसदीय मर्यादा का उल्लंघन कर अपनी दबंगई साबित करना कौन सी बहादुरी है?
सत्ता सुख न भोग पाने की भड़ास
दरअसल पिछले कई दशकों से भारतीय लोकतंत्र में एक गलत परंपरा की शुरुआत हुई है। यहां केंद्रीय और राज्य स्तर पर सत्ता पक्ष में बैठे लोग चाहे कितनी भी अच्छी नीतियां देशहित में बना लें, विपक्ष उनके विरोध में सत्र में हो-हल्ला करने से बाज नहीं आता! गलत नीतियों, विचारों पर विरोध तो जरूरी है, परंतु हितकारी नीतियों पर जबर्दस्ती विरोध कर सत्र का समय व्यर्थ करना समझ से परे है! भाजपा, कांग्रेस हो या अन्य छोटी-बड़ी पार्टियां सभी का रुख प्राय: ऐसा ही होता है। जनप्रतिनिधियों का सत्र के समय शोर मचाना और वेल की तरफ बढ़ने की तत्परता देख ऐसा महसूस होता है, मानो वे सत्ता सुख न भोग पाने की अपनी भड़ास निकाल रहे हों!
ऐसे कृत्य से लोकतंत्र की परपक्वता संदेह के घेरे में
बहरहाल किसी भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में सत्ता पक्ष और विपक्ष एक गाड़ी के दो पहिये के समान होते हैं। लोकतंत्र की जीत के लिए इसके दोनों पहियों का स्वस्थ और सही दिशा में गतिमान होना निहायत जरूरी है। लोकतंत्र की सफलता दोनों पक्षों की सक्रियता पर निर्भर करती है, लेकिन आजादी के सात दशक बाद भी आज संसद और विधानसभाओं में जो कुछ देखने को मिल रहा है, वह हमारे लोकतंत्र की परिपक्वता और विश्वसनीयता पर अंगुली उठाने के लिए काफी है! लोकतंत्र में विपक्ष की उपस्थिति संजीवनी के समान है। यह सत्ता पक्ष को उचित दिशा में कार्य करने को मजबूर तो करता ही है, साथ ही लोकतंत्र राजतंत्र का रूप न ले ले, इसकी भी गारंटी देता है। लेकिन ध्यान रहे बहस और आलोचनाएं केवल सकारात्मक दिशा में हों। देश और समाज के निर्माण में सदन की जो रचनात्मक भूमिका है, उसे बाधित नहीं किया जाना चाहिए।
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