Maratha Reservation: मराठा आरक्षण आंदोलन ने बढ़ाया सियासी पारा, दूसरे वर्गों में भी बढ़ी बेचैनी
महाराष्ट्र की शिंदे सरकार द्वारा विधान मंडल में मराठा समाज के लिए शिक्षा और नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय किया गया है। इस फैसले के बाद से मराठा समाज ऊपर से तो शांत नजर आ रहा है। लेकिन पिछले छह माह से चल रहे मराठा आरक्षण आंदोलन ने महाराष्ट्र के गांव-गांव में एक खाई खोद दी है।

ऑनलाइन डेस्क, नई दिल्ली। महाराष्ट्र की शिंदे सरकार द्वारा विधान मंडल में मराठा समाज के लिए शिक्षा और नौकरियों में 10 प्रतिशत आरक्षण देने का निर्णय करने के बाद से मराठा समाज ऊपर से तो शांत नजर आ रहा है। लेकिन, पिछले छह माह से चल रहे मराठा आरक्षण आंदोलन ने महाराष्ट्र के गांव-गांव में ऐसी खाई खोद दी है। जैसी इससे पहले कभी भी अनेक सामाजिक आंदोलनों के अगुआ रहे महाराष्ट्र में नहीं दिखी।
महाराष्ट्र में मराठों को आरक्षण देने की मांग तो कई वर्षों से चली आ रही है क्योंकि इस समाज के कुछ दर्जन परिवारों के हाथ में भले राज्य की सारी सत्ता और संपत्ति रही हो पर बड़ा वर्ग निर्धनता से ही पीड़ित रहा है।
84% परिवार प्रगतिशील श्रेणी में नहीं आते
मराठा समाज को आरक्षण देने के लिए इसी वर्ष 20 फरवरी को बुलाए गए विधानमंडल के विशेष सत्र से ठीक पहले सरकार को मिली महाराष्ट्र राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग की रिपोर्ट में इस आयोग के अध्यक्ष सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति सुनील शुक्रे द्वारा कहा गया कि मराठा समुदाय के लगभग 84 प्रतिशत परिवार प्रगतिशील श्रेणी में नहीं आते हैं। इसलिए वे इंदिरा साहनी मामले के अनुसार आरक्षण के लिए पात्र हैं।
विधेयक में कहा गया है कि महाराष्ट्र में किसानों की कुल आत्महत्याओं में से 94 प्रतिशत मराठा परिवारों से हैं। यह रिपोर्ट लगभग ढाई करोड़ परिवारों का सर्वेक्षण कर तैयार की गई है। अर्थात इस रिपोर्ट के आधार पर तो मराठा समाज को आरक्षण मिलना तर्कसंगत लगता है। सरकार ने आयोग की सिफारिशों के अनुसार मराठों को 10 प्रतिशत आरक्षण दिया भी। लेकिन, भेद पैदा हो रहा है मराठा आरक्षण की मांग ओबीसी कोटे के तहत किए जाने को लेकर।
जरांगे कर रहे मराठा समाज को आरक्षण देने की मांग
पिछले छह माह से बार-बार अपनी मांगें बदलते हुए मराठा आरक्षण के लिए आंदोलन कर रहे मनोज जरांगे पाटिल ओबीसी समाज के लिए पहले से लागू 19 प्रतिशत आरक्षण के अंतर्गत ही मराठा समाज को आरक्षण देने की मांग कर रहे हैं। वह भी पूरे मराठा समाज को। यानी जरांगे की मांग पूरी करने का अर्थ होगा, राज्य की 28 प्रतिशत मराठा आबादी को ओबीसी कोटे में ही सेंध लगाने की अनुमति दे देना। जबकि, ओबीसी नेता छगन भुजबल की मानें तो राज्य में ओबीसी वर्ग के तहत आनेवाली जातियों की कुल आबादी लगभग 40 प्रतिशत है।
जरांगे की यही मांग महाराष्ट्र के मराठा व ओबीसी समाज में टकराव का कारण और सरकार के लिए मुसीबत बन रही है। ये टकराव गांव-गांव, कस्बे-कस्बे में दिखाई दे रहा है। एक ही दल के कार्यकर्ताओं के बीच दिखाई दे रहा है।
मराठा कांग्रेस-राकांपा का रहा है वोटबैंक
मराठा कांग्रेस-राकांपा का प्रतिबद्ध वोटबैंक रहा है। 1980 में भाजपा की स्थापना के बाद से ही इसके नेताओं ने राज्य के ओबीसी वर्ग पर ध्यान केंद्रित किया था। भाजपा नेताओं ने माली, धनगर और वंजारी समाज के तीन नेताओं क्रमशः ना.सा. फरांदे, अन्ना डांगे और गोपीनाथ मुंडे को आगे कर 'माधव' समीकरण की रचना की थी।
शुरुआत में छगन भुजबल जैसे ओबीसी नेता शिवसेना में थे, इसलिए शिवसेना का वोटबैंक भी कमोबेश ओबीसी वाला ही था, लेकिन अब तक राजनीतिक रूप से आमने-सामने होने के बावजूद मराठा और ओबीसी में टकराव की ऐसी स्थिति कभी दिखाई नहीं दी, जैसी मनोज जरांगे पाटिल के आंदोलन के बाद से दिखने लगी है।
खास बात यह कि अब यह टकराव 40 प्रतिशत ओबीसी और 28 प्रतिशत मराठा तक ही सीमित नहीं रहा है। राज्य की आबादी में करीब 8-9 प्रतिशत का हिस्सा रखनेवाला धनगर समाज भी आंदोलित दिखाई दे रहा है। शहरों में भले ये टकराव कम हो, पर गांवों में 'मनभेद' दिख रहा है। इसका असर क्या होगा, इसका अनुमान लगाना राजनीतिक दलों के लिए भी कठिन साबित हो रहा है।
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