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मुद्दों पर आम सहमति के लिए होनी चाहिए गंभीर पहल, सभी को देना होगा ध्‍यान

देश के जनजातीय इलाकों में आदिवासियों को सामाजिक-आर्थिक रूप से सशक्त बनाने के लिए विभिन्न योजनाओं के जरिये सरकार फंड तो मुहैया कराती है, लेकिन क्या उनका वाजिब इस्तेमाल हो रहा है?

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 07 Sep 2018 11:41 AM (IST)Updated: Fri, 07 Sep 2018 11:41 AM (IST)
मुद्दों पर आम सहमति के लिए होनी चाहिए गंभीर पहल, सभी को देना होगा ध्‍यान
मुद्दों पर आम सहमति के लिए होनी चाहिए गंभीर पहल, सभी को देना होगा ध्‍यान

प्रेम प्रकाश। साठ और सत्तर के दशक में देश ने दो बड़े जनांदोलन देखे- भूदान आंदोलन और नक्सलवादी जनसंघर्ष। दोनों आंदोलन के केंद्र में प्राकृतिक संसाधनों के केंद्रीकरण का विरोध था। सबसे पहला सवाल भूमि के असमान वितरण का उठा। इसके विमर्श में यह सवाल शामिल था कि विकास का मुद्दा संसाधनों के लूट से नहीं बल्कि उसके न्यायपूर्ण इस्तेमाल और वितरण से जुड़ा होना चाहिए। इन दोनों ही आंदोलनों के प्रति देश का पिछड़ा-दलित और जनजातीय समाज जुड़ा। आज विडंबना यह है कि भूमि और प्राकृतिक संसाधन का सवाल सामंती वर्चस्व से आगे सरकार की दमनकारी नीति में बदल गया है। पूरी समस्या के समाधान का भूदान के रूप में अहिंसक विकल्प ऐतिहासिक रूप से नाकाम रहा तो वहीं नक्सल हिंसा के नाम पर जारी प्रतिरोध अपने अलोकतांत्रिक चरित्र और विरोधाभासों के कारण पहले दिन से विवादित रहा।

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नहीं हुई गंभीर पहल 
बीते ढाई दशक में देश ने विकास व संपन्नता के नाम पर चाहे जितनी धरती नापी हो, इससे लोकतांत्रिक तकाजों को लेकर देश में तार्किक आम सहमति बनाने की कोई गंभीर पहल नहीं हुई है। बल्कि इस दौरान हम लोकतंत्र के जमीनी सरोकारों और तथ्यों के बजाय उसके ऊपरी असरों और सतही व्याख्याओं पर तार्किक-सैद्धांतिक बहस का पाखंड करते रहे हैं। दूसरी अहम बात यह कि सर्वागीण से सर्व-समावेशी विकास के नए जुमले तक हम भले पहुंच जाएं, पर निशाने पर लगातार गांव-गरीब, खेती-किसानी, दलित-आदिवासी ही होते हैं, उनके पास बचा जल- जंगल-जमीन का अधिकार और उनके साथ जुड़ी आजीविका और पारंपरिक सरोकार ही होते हैं। इस मामले में हर सरकार पिछली सरकार से दो कदम आगे है।

नैतिक दायित्व
दिलचस्प यह है कि सरकारें अपने नैतिक दायित्व को जैसे-तैसे निबाहने के लिए कई ऐसे कार्यक्रम चलाती हैं, जिनका लक्ष्य आदिवासियों- दलितों का कल्याण है। पर इस नाम पर होता क्या है, इसका सबसे अच्छा उदाहरण है ट्राइबल सबप्लान (टीएसपी) का फंड। आरटीआइ से मिले दस्तावेज बताते हैं कि न तो इस मद में कभी पूरे पैसे जारी किए गए और न ही मंत्रलयों ने इसका सही और पूरा इस्तेमाल किया। कम से कम कोयला और खनन मंत्रलयों ने टीएसपी का फंड आदिवासियों के कल्याण के बजाय उन कामों पर खर्च किया, जिनसे आदिवासियों के सामने मुश्किलें खड़ी होंगी। कोयला मंत्रालय ने टीएसपी का फंड कोयले के भंडार पता करने और खुदाई आदि पर व्यय किया, जबकि खान मंत्रालय ने खनिजों के भंडार पता लगाने के लिए सर्वे और मैपिंग के लिए इसका इस्तेमाल किया।

आदिवासियों का आर्थिक कल्‍याण
दिवासियों के सामाजिक-आर्थिक कल्याण के लिए टीएसपी को 1974-75 में शळ्रू किया गया था। नई सरकार में हुआ बस यह है कि योजना आयोग की जगह बने नीति आयोग ने टीएसपी का नाम बदलकर शेड्यूल्ड ट्राइब कंपोनेंट (एसटीसी) कर दिया है। जनजातीय मामलों के मंत्रालय के अनुसार, कुल 37 मंत्रालय व विभागों को इसके लिए फंड जारी किया जाता है। कुल 289 योजनाएं इसमें शामिल हैं। हैरानी की बात है कि किसी सरकार ने अब तक पूरा फंड जारी नहीं किया। वर्ष 2018-19 के केंद्र की तमाम योजनाओं के लिए बजटीय व्यय 10,14,451 करोड़ रुपये निर्धारित किया गया। तय बजटीय फामरूले के मुताबिक इस बजट का 8.6 प्रतिशत यानी 87,248 करोड़ रुपये आदिवासियों के कल्याण पर खर्च होने चाहिए लेकिन सरकार ने टीएसपी के लिए महज 39,135 करोड़ रुपये ही आवंटित किए। यह इसके लिए निर्धारित बजट (8.6 प्रतिशत) का 3.86 प्रतिशत ही है। दूसरे शब्दों में, सरकार ने आधा बजट भी नहीं दिया।

एक नजर इधर भी
चौंकाने वाली बात यह है कि उपलब्ध कराई जा रही धनराशि भी खर्च नहीं की जा रही है। 13 मार्च 2018 को जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा जारी विज्ञप्ति के अनुसार, 2014-15 से 2016-17 के बीच 62,947.82 करोड़ रुपये टीएसपी के तहत खर्च किए गए जबकि इस दौरान 76,392 करोड़ रुपये आवंटित किए गए। योजना आयोग के मुताबिक, टीएसपी में केवल वही योजनाएं शामिल की जानी चाहिए जिनसे आदिवासियों को प्रत्यक्ष लाभ सुनिश्चित हो। आदिवासियों को शोषण से बचाना टीएसपी का दूसरा अहम लक्ष्य है। लेकिन क्या ऐसा हो रहा है? आरटीआइ के तहत कोयला मंत्रालय से 2011-12 से 2017-18 और खान मंत्रालय से 2010-11 से 2017-18 तक का टीएसपी के खर्च के बारे में बताया गया कि ट्राइबल सबप्लान की जो धनराशि अनुसूचित जनजातियों के आर्थिक और सामाजिक विकास पर खर्च होनी चाहिए थी कोयला मंत्रालय ने वह धनराशि कोयला कंपनियों को आवंटित कर दी। मंत्रालय ने इस दौरान 205 करोड़ रुपये कोयला कंपनियों और सेंट्रल माइन प्लानिंग एंड डिजाइन इंस्टीट्यूट को कोयले के भंडार पता लगाने, खुदाई व संरक्षण-सुरक्षा से जुड़ी परियोजनाओं को दिए। कमोबेश अन्य मंत्रलयों ने भी यही किया है।

जनजातीय मामलों मंत्रालय
टीएसपी फंड से कोयला कंपनियों और उनके किए गए काम पर तो सवाल खुद जनजातीय मामलों के मंत्रालय की 15 सितंबर, 2015 को अंतर मंत्रालय समन्वय समिति की बैठक में उठाया गया था कि कोयला मंत्रालय ने टीएसपी का फंड खुदाई और कोयले के भंडार पता लगाने पर कैसे खर्च कर दिया? यह भी कहा गया कि कोयला मंत्रालय के टीएसपी पर किए गए खर्च पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है और नीति आयोग के परामर्श से नई योजना की जरूरत है ताकि कोयला मंत्रालय के टीएसपी फंड का उचित इस्तेमाल हो सके। ऐसे में कोई चाहे तो इस दौर में आई सरकारों की नैतिकता और उनकी संवेदनशीलता पर सवाल उठाते हुए कह सकता है कि वह आदिवासी कल्याण के बजाय उनके दमन के लिए काम कर रही है क्योंकि इस दौरान जिस तरह नए उद्योग विकसित करने के नाम पर इन इलाकों में कॉरपोरेट को बड़े-बड़े पट्टे थमाए गए हैं, वह इस देश के संसाधन और उसकी हिफाजत के साथ अपनी आजीविका चलाने वालों के हित के साथ सरासर अन्याय है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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