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कांग्रेस का जोखिम से परहेज, मल्लिकार्जुन खड़गे के हाथ होगी संगठन की कमान तो राहुल गांधी रहेंगे लोकप्रिय चेहरा

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से जुड़े ताजा प्रकरण के बाद जोखिम से बचने की इस रणनीति को सहज ही समझा जा सकता है। लंबे अर्से से यथास्थितिवाद गुटबाजी और हार की हताशा से घिरी कांग्रेस के लिए शीर्ष संगठन के नेतृत्व में बदलाव की अपरिहार्य जरूरत थी

By Arun Kumar SinghEdited By: Published: Fri, 30 Sep 2022 09:48 PM (IST)Updated: Fri, 30 Sep 2022 09:48 PM (IST)
कांग्रेस का जोखिम से परहेज, मल्लिकार्जुन खड़गे के हाथ होगी संगठन की कमान तो राहुल गांधी रहेंगे लोकप्रिय चेहरा
मल्लिकार्जुन खड़गे के हाथ होगी संगठन की कमान तो राहुल गांधी रहेंगे कांग्रेस का लोकप्रिय चेहरा

 संजय मिश्र, नई दिल्ली। देश में युवाओं के वर्चस्व के इस नए दौर में कांग्रेस ने अपने अध्यक्ष पद के लिए 80 साल के मल्लिकार्जुन खड़गे को सामने लाकर यह साफ संदेश दे दिया है कि शीर्ष संगठन के नेतृत्व में वह जहां आंतरिक संतुलन बनाते हुए अपनी राजनीतिक मंजिलों की ओर बढ़ेगी। वहीं जनता के बीच सियासी अपील रखने वाले अपने चेहरे में हेर-फेर करने का कोई जोखिम मोल नहीं लेगी। उम्र के जिस पड़ाव पर खड़गे कांग्रेस संगठन की कमान संभालने जा रहे हैं उससे स्पष्ट है कि चाहे पार्टी इस पर रणनीति चुप्पी साधे रखे मगर यह बिल्कुल साफ है कि चुनावी सियासत में राहुल गांधी ही जनता के बीच कनेक्ट रखने वाला कांग्रेस का लोकप्रिय चेहरा रहेंगे।

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दिग्विजय सिंह पर दांव लगाने का जोखिम नहीं लिया गया

अध्यक्ष पद के लिए हाईकमान की पहली पसंद रहे राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत से जुड़े ताजा प्रकरण के बाद जोखिम से बचने की इस रणनीति को सहज ही समझा जा सकता है। लंबे अर्से से यथास्थितिवाद, गुटबाजी और हार की हताशा से घिरी कांग्रेस के लिए शीर्ष संगठन के नेतृत्व में इस तरह के बदलाव की अपरिहार्य जरूरत थी। खासकर, परिवारवाद की राजनीति को लेकर कांग्रेस पर हो रहे प्रहारों का नैरेटिव बदलने के लिए पार्टी बेचैन थी। पार्टी की इन राजनीतिक चुनौतियों और जरूरतों की कसौटी के हिसाब से गांधी परिवार ने पहली पसंद के तौर पर इसके लिए बिल्कुल मुफीद माने जा रहे अशोक गहलोत को चुना भी था मगर राजस्थान में हुए घमासान के बाद उसके पास खड़गे से ज्यादा भरोसे वाला कोई अन्य उपयुक्त नजर नहीं आया। नेतृत्व का भरोसेमंद होते हुए भी सियासत के चतुर खिलाड़ी माने जा रहे दिग्विजय सिंह पर दांव लगाने का जोखिम नहीं लिया गया।

कांग्रेस पर राहुल गांधी के राजनीतिक चिंतन और रीति-नीति की छाप दिखाई देगी

खड़गे को सोनिया गांधी का विश्वास तो हासिल है ही पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के भी वे काफी करीबी हैं। इस लिहाज से देखा जाए तो खड़गे के कांग्रेस अध्यक्ष के कार्यकाल पर परोक्ष रुप से राहुल गांधी के राजनीतिक चिंतन और रीति-नीति की छाप दिखाई देगी तो इसमें आश्चर्य नहीं होगा। कांग्रेस के वर्तमान राजनीतिक ढांचे में खड़गे बेशक सबसे वरिष्ठ नेताओं की पंक्ति में आते हैं मगर राष्ट्रीय अध्यक्ष बनते ही एक जननेता की छवि में उनका रातोंरात रूपांतरण हो जाएगा इसकी गुंजाइश कम ही है और इसमें उनकी उम्र एक बड़ी चुनौती है। ऐसे में जाहिर तौर पर खड़गे का पूरा जोर संगठन को संभालने पर रहेगा और जनता के बीच कांग्रेस नेता का लोकप्रिय चेहरा राहुल गांधी ही बने रहेंगे।

खड़गे तक अपनी बात पहुंचाना अपेक्षाकृत सहज होगा

अध्यक्ष पद लेने से इनकार करने के बाद भी कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा की पूरी धुरी राहुल के ईद-गिर्द रहना इसका साफ संकेत भी है। खड़गे के अध्यक्ष बनने के बाद कांग्रेस में नेतृत्व तक सीधे बात पहुंचाने की टूटी कड़ी के फिर से जुड़ने की उम्मीद भी की जा रही है। खास तौर पर सोनिया-राहुल और प्रियंका गांधी वाड्रा तक नहीं पहुंच पाने वाले कई नेताओं-कार्यकर्ताओं के लिए खड़गे तक अपनी बात पहुंचाना अपेक्षाकृत सहज होगा। इससे पार्टी के अंदरूनी असंतोष को समय रहते पहचानने में मदद मिल सकती है। खड़गे के नामांकन के मौके पर पार्टी के असंतुष्ट जी 23 गुट के तमाम नेताओं की मौजूदगी और उनका प्रस्तावक बनना इसके शुरूआती संकेत माने जा सकते हें।

नए पावर सेंटर के उभरने की संभावनाओं को नहीं किया जा सकता है खारिज

हालांकि इस दौरान कांग्रेस में गांधी परिवार से इतर एक नए पावर सेंटर के उभरने की संभावनाओं को खारिज नहीं किया जा सकता। खड़गे हाईकमान से अलग सोच रखने की ऐसी किसी कोशिश का हिस्सा नहीं रहे हैं, मगर कांग्रेस अध्यक्ष पद के बीते तीन दशक का इतिहास कुछ ऐसा रहा है कि यह इसे नकारा नहीं जा सकता। राजीव गांधी की हत्या के बाद नरसिंह राव को जब पहले कांग्रेस अध्यक्ष और प्रधानमंत्री बनाया गया, तब उन्हें एक कमजोर नेता आंका गया था। सोनिया गांधी की सहमति से ही राव को कांग्रेस की कमान दी गई मगर कुछ ही अर्से में राव ने प्रधानमंत्री के तौर पर अपने फैसलों और राजनीतिक कदमों से साबित कर दिया कि वे कोई कठपुतली नहीं हैं।

सीताराम केसरी ने नरसिंह राव को लोकसभा टिकट तक नहीं दिया

कांग्रेस में नए पावर सेंटर के रूप में राव का स्थापित होना ही गांधी परिवार के साथ उनके रिश्ते बिगड़ने की सबसे बड़ी वजह बनी। 1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद राव की स्थिति जब डांवाडोल हुई तो उन्होंने भी तब सबसे कमजोर नेता माने जा रहे सीताराम केसरी को कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में अपना उत्तराधिकार सौंपा। मगर कमान संभालते ही केसरी अपने तेवर और रंग में आ गए और आलम यह हुआ कि 1998 के लोकसभा चुनाव में सीताराम केसरी ने नरसिंह राव को लोकसभा का टिकट तक नहीं दिया। इन दोनों उदाहरणों से साफ है कि कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद बाद राजनीतिक समीकरणों और निर्णय लेने की दशा-दिशा बदलती रही है।

न चाहते हुए भी कांग्रेस को तोड़ना पड़ा था वामदलों से नाता

मनमोहन सिंह को सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद इसीलिए सौंपा कि वे नेतृत्व की बताई लाइन पर चलने वाले व्यक्ति थे मगर संप्रग सरकार के पहले कार्यकाल के दौरान अमेरिका से परमाणु समझौते को लेकर मनमोहन सिह वामदलों के मुकाबले अड़ गए। इसमें कांग्रेस को तब न चाहते हुए भी वामदलों से नाता तोड़ना पड़ा और सरकार को बचाने के लिए समाजवादी पार्टी से समर्थन जुटाने की कसरत करनी पड़ी। ऐसे में नए अध्यक्ष बनने जा रहे खड़गे पर संतुलन बनाए रखने के साथ हाईकमान के जोखिम नहीं लेने के फैसले को सही साबित करने की चुनौती होगी और जाहिर तौर पर कांग्रेस में तीसरे पावर सेंटर की लक्ष्मण रेखा उन्हें खुद ही तय करनी होगी।

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