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श्रीलंका और थाईलैंड में इस्लाम को खतरा मानने लगे हैं बौद्ध के अनुयायी!

म्यांमार से रोहिंग्या मुस्लिमों के निष्कासन का मामला अभी ठंडा नहीं पड़ा है कि एक दूसरे बौद्ध बहुल देश श्रीलंका में बौद्ध-मुस्लिम दंगों के कारण वहां आपातकाल लगाना पड़ा।

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 16 Mar 2018 11:21 AM (IST)Updated: Fri, 16 Mar 2018 11:21 AM (IST)
श्रीलंका और थाईलैंड में इस्लाम को खतरा मानने लगे हैं बौद्ध के अनुयायी!
श्रीलंका और थाईलैंड में इस्लाम को खतरा मानने लगे हैं बौद्ध के अनुयायी!

नई दिल्ली [सतीश पेडणोकर] बौद्ध बहुल म्यांमार से रोहिंग्या मुस्लिमों के निष्कासन का मामला अभी ठंडा नहीं पड़ा है कि एक अन्य बौद्ध बहुल देश श्रीलंका में बौद्ध-मुस्लिम दंगों की वजह से न केवल आपातकाल लगाना पड़ा, बल्कि तमाम कोशिशों के बावजूद वहां कई दिनों तक हिंसा चलती रही। जानकारों का कहना है कि यह दक्षिण एशिया में चल रहे बौद्ध-मुस्लिम संघर्ष का नतीजा है। अमेरिकी लेखक सेमुअल हटींगटन ने एक बार कहा था भविष्य में राजनीतिक विचारधाराओं के बीच नहीं, बल्कि सभ्यताओं या धर्मो के बीच संघर्ष होगा। इन दिनों दक्षिण एशिया के कुछ देशों में यही हो रहा है। इसमें कोई दो राय नहीं कि रोहिंग्या शरणार्थियों की समस्या म्यांमार के बौद्ध और मुस्लिमों के संघर्ष से उपजी है। मगर यह संघर्ष केवल म्यांमार तक ही सीमित नहीं है, बल्कि हाल के वर्षो में श्रीलंका और थाईलैंड में भी बौद्ध अपने धर्म के लिए इस्लाम को खतरा मानने लगे हैं।

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हमलों के बाद श्रीलंका में आपातकाल लागू 

दरअसल बीते दिनों मस्जिदों और मुसलमानों के कारोबार पर सिलसिलेवार हमलों के बाद श्रीलंका में आपातकाल लागू कर दिया गया था। इसके साथ-साथ वहां के कैंडी शहर के कुछ इलाकों में कफ्र्यू भी लगा दिया गया था। वहां इस तरह की बौद्ध-मुस्लिम तनाव कोई नई परिघटना नहीं है। देखा जाए तो श्रीलंका में साल 2012 से ही सांप्रदायिक तनाव की स्थिति बनी हुई है। माना जाता है कि वहां का एक कट्टरपंथी बौद्ध संगठन बोदु बल सेना इस तनाव को हवा देने का काम करता है। दरअसल बौद्ध धर्मगुरु दिलांथा विथानागे ने दक्षिण एशिया में इस्लाम को हराने और बौद्धधर्म के उत्थान के लिए बोदु बल सेना (बीबीएस) का गठन किया था जिसे सिंहली बौद्ध राष्ट्रवादी संगठन माना जाता है।

श्रीलंका का सबसे शक्तिशाली बौद्ध संगठन

टाइम पत्रिका ने इस संस्था को श्रीलंका का सबसे शक्तिशाली बौद्ध संगठन कहा है। इस संगठन के अनुसार श्रीलंका दुनिया का सबसे पुराना बौद्ध राष्ट्र है। हमें उसकी सांस्कृतिक जड़ों को मजबूत करना चाहिए। पिछले वर्षो में श्रीलंका में मुसलमानों पर हुए सभी हमलों के लिए इसे ही जिम्मेदार माना गया है। विथानागे मानते हैं कि ‘श्रीलंका में भी बौद्धों पर धर्मातरण का खतरा मंडरा रहा है। उनका आरोप है कि सिंहली परिवारों में एक या दो बच्चे हैं, जबकि अल्पसंख्यक ज्यादा बच्चे पैदाकर आबादी का संतुलन बिगाड़ रहे हैं। इनके पीछे विदेशी पैसा है। और सरकार इस मामले में कुछ नहीं कर रही है।’ यह संगठन अल्पसंख्यक वोट बैंक की सियासत और श्रीलंका में पशुओं को हलाल करने का मुद्दा भी जोरशोर से उठाया है। उसे गोताबाया राजपक्षे का समर्थन हासिल है। वे महिंदा राजपक्षे के भाई हैं।

जबरन धर्म परिवर्तन

इसके अलावा कुछ बौद्ध समूहों ने मुसलमानों पर जबरन धर्म परिवर्तन कराने और बौद्ध मठों को नुकसान पहुंचाने का आरोप लगाया है। पिछले दो महीने के भीतर गॉल में मुसलमानों की कंपनियों और मस्जिदों पर हमले की 20 से ज्यादा घटनाएं हो चुकी हैं। साल 2014 में कुछ बौद्ध गुटों ने तीन मुसलमानों की हत्या कर दी थी जिसके बाद गॉल में दंगे भड़क गए थे। श्रीलंका की आबादी दो करोड़ दस लाख के करीब है और इसमें 70 फीसद बौद्ध हैं और 9 फीसद मुसलमान। वहां हाल के वर्षो में मुस्लिम समुदाय के खिलाफ धर्म के नाम पर हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं। माना जा रहा है कि इसकी बागडोर कुछ कट्टरपंथी बौद्ध संगठनों के हाथों में है। अब यह सवाल उठ रहा है कि बौद्धभिक्षु क्यों शांति और अहिंसा के बजाय क्रांति पर उतर आए हैं? इतना सहिष्णु और अहिंसक बौद्धधर्म अचानक से क्यों गुस्से में है?

इस्लामी विस्तारवाद के खिलाफ

कारण यह है कि वहां के बौद्ध और बौद्धभिक्षु बौद्धदेशों में बढ़ते इस्लामी विस्तारवाद के खिलाफ हैं। उनके मन में यह बात पैठी हुई है कि एक समय था जब संपूर्ण एशिया में बौद्ध धर्म शिखर पर था, लेकिन इस्लाम के उदय के बाद बौद्ध धर्म ने दक्षिण एशिया के बहुत से राष्ट्र खो दिए। म्यांमार के एक बौद्धभिक्षु विराथु कहते हैं कि इस्लाम पहले ही इंडोनेशिया, मलेशिया, अफगानिस्तान और पाकिस्तान को जीत चुका है। एक वक्त यह सब बौद्ध देश थे। इसी तरह इस्लाम दूसरे बौद्ध देशों को भी जीत सकता है। वे नहीं चाहते कि यह इतिहास उनके देश में दोहराया जाए। जिन तीन देशों में बौद्धों और मुस्लिमों के बीच तनाव और संघर्ष चल रहा है उसमें इतिहास का भी योगदान है।

12वीं सदी के इतिहास की गूंज

बौद्धों को इसमें 12वीं सदी के इतिहास की गूंज सुनाई दे रही है। बौद्धों की सामूहिक चेतना में यह बात पैठी हुई है कि 1193 में तुर्की की सेना ने नालंदा और अन्य बौद्ध विश्वविद्यालयों को ध्वस्त कर दिया था। उन्हें लगता है कि आज भी उसी तरह का खतरा बरकरार है। बौद्ध राष्ट्रों में मुस्लिमों के प्रति आक्रामक रुख वहां की सरकारों के लिए भी मुसीबतें पैदा कर रहा है। पहले बौद्ध भिक्षु इस्लाम को खतरा नहीं मानते थे, लेकिन अफगानिस्तान में बामियान की ऐतिहासिक बुद्ध प्रतिमाओं पर तालिबानी हमलों ने बौद्ध समुदायों को भड़काया और उनका मुस्लिमों के प्रति दृष्टिकोण बदल दिया। इसके चलते ही म्यांमार, श्रीलंका और थाईलैंड में हालात बदल गए हैं। बौद्ध देशों की जनता का एक यह भी आरोप है कि मुस्लिम बहुल देशों में बौद्धों पर काफी अत्याचार हुए हैं। जैसे बांग्लादेश में चकमा बौद्धों पर चटगांव हिल ट्रैक्ट में इतने हमले और अत्याचार हुए कि उन्हें विस्थापित होकर भारत आना पड़ा।

देश के खिलाफ भड़काने का काम कर रहे

इसके अलावा गया के महाबोधि मंदिर पर आतंकी हमले से भी बौद्धों में आक्रोश है। बौद्ध कट्टरपंथियों का आरोप है कि कुछ इस्लामी देश स्थानीय मुसलमानों की मदद करके उन्हें देश के खिलाफ भड़काने का काम कर रहे हैं। बौद्ध बहुल थाईलैंड भी इस्लामी आतंकवाद और अलगावाद से परेशान है। थाईलैंड के तीन राज्य कई वर्षो से अलगाववाद के कारण सिरदर्द बने हुए हैं। ये तीन दक्षिणी प्रांत हैं-पट्टानी, याला और नरभीवाट। वहां सेना को अलगाववादियों से भिड़ना पड़ रहा है। खबर है कि वे बौद्ध भिक्षुओं को भी निशाना बना रहे हैं। नतीजतन भिक्षुओं को पुलिस संरक्षण में भिक्षा मांगने का धार्मिक कार्य करना पड़ रहा है। लिहाजा वे कह रहे हैं अब हमारे पास कोई रास्ता नहीं है। हम अब बौद्धधर्म को बंदूक से अलग नहीं रख सकते।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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