'मूकदर्शक बने हैं अधिकारी', उत्तराखंड में वन भूमि पर अवैध कब्जे पर सुप्रीम कोर्ट ने लिया स्वत: संज्ञान
सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड में वन भूमि पर अतिक्रमण और अवैध कब्जे पर नाराजगी जताते हुए स्वत: संज्ञान लिया। कोर्ट ने राज्य और अधिकारियों को मूक दर्शक बत ...और पढ़ें

सभी खाली पड़ी भूमि वन विभाग व संबंधित कलेक्टर कब्जे में लेंगे
जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने उत्तराखंड में वन भूमि पर अतिक्रमण और अवैध कब्जे पर नाराजगी जताते हुए स्वत: संज्ञान लिया है। कोर्ट ने वन भूमि पर स्टेमेटिक तौर पर अवैध कब्जों पर तीखी टिप्पणी करते हुए कहा कि सबसे ज्यादा चौकाने वाली बात तो ये हैं कि उत्तराखंड राज्य और उसके अधिकारी मूक दर्शक बने हुए हैं, जबकि वनभूमि उनकी आंखों के सामने व्यवस्थित रूप से कब्जाई जा रही है।
शीर्ष अदालत ने मामले में नोटिस जारी करते हुए उत्तराखंड के मुख्य सचिव और प्रधान मुख्य वन संरक्षक को एक कमेटी गठित कर सभी तथ्यों की जांच करने और सुप्रीम कोर्ट में रिपोर्ट दाखिल करने का निर्देश दिया है।कोर्ट ने सभी व्यक्तिगत लोगों को आदेश दिया है कि वे भूमि पर तीसरे पक्ष के अधिकार सृजित नहीं करेंगे और न ही वहां किसी तरह का कोई निर्माण किया जाएगा। सर्वोच्च अदालत ने आदेश दिया है कि आवासीय मकानों को छोड़कर सभी खाली पड़ी भूमि वन विभाग व संबंधित कलेक्टर कब्जे में लेंगे।
पांच जनवरी को फिर सुनवाई
कोर्ट ने अनुपालन रिपोर्ट दाखिल करने का आदेश देते हुए मामले को पांच जनवरी को फिर सुनवाई पर लगाने का निर्देश दिया है। ये आदेश प्रधान न्यायाधीश सूर्यकांत और जोयमाल्या बाग्ची की अवकाशकालीन पीठ ने अनीता कांडवाल की याचिका पर सुनवाई के दौरान दिए। सोमवार को मामले पर सुनवाई के दौरान कोर्ट ने पाया कि उत्तराखंड में वन भूमि पर बड़े पैमाने पर अवैध कब्जा है। कोर्ट ने आदेश में लिखाया है कि इस मामले के तथ्य प्रथम दृष्टया दर्शाते हैं कि कैसे निजी व्यक्तियों ने व्यवस्थित रूप से हजारों एकड़ वन भूमि पर कब्जा कर लिया है।
पीठ ने कहा कि ऐसा प्रतीत होता है कि 2866 एकड़ भूमि को सरकारी वन भूमि के रूप में अधिसूचित किया गया था। इस भूमि का एक हिस्सा कथित तौर पर ऋषिकेश स्थित पशुलोक सेवा समिति को पट्टे पर दिया गया था। समिति का दावा है कि उसने अपने सदस्यों को भूमि के और टुकड़े आवंटित किए हैं। समिति और उसके सदस्यों के बीच कुछ विवाद उत्पन्न हुआ, जिसके कारण एक समझौता, बल्कि मिलीभगत वाला आदेश पारित किया गया।
2001 में भूमि पर हुआ कब्जा
लेकिन इसी बीच सोसाइटी परिसमापन के अधीन आ गई और एकसमर्पण विलेख के माध्यम से, उसने 23 अक्टूबर 1984 को 594 एकड़ भूमि वन विभाग को सौंप दी। कोर्ट ने कहा कि भूमि सौंपने और वन भूमि सरकार में पुन: निहित होने का वह आदेश अंतिम रूप ले चुका है, फिर भी याचिकाकर्ता जैसे कुछ निजी व्यक्तियों ने वर्ष 2001 में भूमि पर कब्जा कर लिया है। इसी तरह निजी प्रतिवादी, सोसाइटी और उसके कथित सदस्यों के बीच मिलीभगत से हुए निर्णय के आधार पर अपने स्वामित्व-सह-अधिकार का दावा करता है।
कोर्ट ने कहा कि सबसे चौकाने वाली बात तो ये है कि उत्तराखंड राज्य औरउसके अधिकारी मूक दर्शक बने हुए हैं, जबकि वन भूमि उनकी आंखों के सामने व्यवस्थित रूप से हथियाई जा रही है। कोर्ट ने कहा कि वह इस मामले के दायरे का विस्तार करता है और स्वत: संज्ञान लेते हुए नोटिस जारी करता है।

कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों
कृपया धैर्य रखें।