10 वर्षों में मिडिल क्लास पर टैक्स का बोझ बढ़ा, विदेशी निवेश नीति में सुधार की जरूरत; इंटरव्यू में क्या बोले डॉ. सुरजीत भल्ला?
केंद्र सरकार एक फरवरी को अपने तीसरे कार्यकाल का पहला बजट पेश करेगी। सभी की निगाहें इस बात पर टिकीं हैं कि सरकार क्या राहत देगी। मध्यम वर्ग पर टैक्स का बोझ काफी बढ़ चुका है। विकासशील देशों की तुलना में भी यह अधिक है। सरकार को क्या कदम उठाने होंगे ताकि आर्थिक वृद्धि के साथ-साथ लोगों का भी ख्याल रखा जा सके। बता रहे हैं डॉ. सुरजीत भल्ला...

जागरण, नई दिल्ली। अगले महीने की पहली तारीख को देश का आम बजट पेश होगा। कहा जा रहा है कि इस बार का बजट बीते कई सालों की तुलना में अलग होगा, क्योंकि टैक्स देने वाले आम मध्यवर्गीय परिवारों में बढ़ रही 'बेचैनी' सतह पर आ चुकी है।
आर्थिक मामलों पर मंथन करने वाले बड़े-बड़े मंचों से लेकर इंटरनेट मीडिया पर इसकी चर्चा होने लगी है कि 132 करोड़ की आबादी वाले देश में बमुश्किल दो से तीन करोड़ लोग ही आयकर चुकाते हैं।
उनके दिए हुए टैक्स से ही सरकारें अपने-अपने 'वादों' को पूरा करती हैं, लेकिन इसके बदले में उन्हें वह सबकुछ नहीं मिल पा रहा है, जिसके वह हकदार हैं। यही नहीं साल दर साल उन पर टैक्स का बोझ बढ़ता ही जाता है।
विदेशी निवेश नीति में सुधार करना होगा
देश के जाने-माने अर्थशास्त्री व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) भारत के कार्यकारी निदेशक रह चुके डॉ. सुरजीत भल्ला ने हाल ही में एक शोध-पत्र तैयार किया, जिसमें उन्होंने यह दावा किया कि बीते 10 सालों में भारत के मध्यम वर्ग पर टैक्स का बोझ बहुत बढ़ा है।
यह दुनिया के अन्य विकासशील देशों की तुलना में ज्यादा है। उनका कहना है भारत में टैक्स और विदेशी निवेश नीति में तत्काल सुधार की जरूरत है और यदि भारत को आर्थिक विकास दर को बढ़ाना है तो इसी बजट में इसका प्रविधान करना होगा।
इन पदों पर रह चुकें डॉ. भल्ला
डॉ. भल्ला मोदी सरकार की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य, वाणिज्य मंत्रालय में व्यापार पर उच्च स्तरीय सलाहकार समूह के अध्यक्ष और भारत सरकार के पंद्रहवें वित्त आयोग के आर्थिक सलाहकार भी रहे हैं। वह वर्ष 2002 से अमेरिका में विश्व अर्थव्यवस्था पर एस्पेन इंस्टीट्यूट प्रोग्राम के नियमित आमंत्रित सदस्य भी रहे हैं।
दिल्ली स्कूल ऑफ इकोनामिक्स में पढ़ाने के साथ ही वह नई दिल्ली में पॉलिसी ग्रुप और नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकोनामिक रिसर्च (एनसीएईआर) जैसे थिंक टैंक संस्थाओं में अहम भूमिकाएं निभाते रहे हैं।
1300 से अधिक लेख प्रकाशित
उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। 1300 से ज्यादा लेख प्रकाशित हो चुके हैं। उल्लेखनीय प्रकाशनों में "इमेजिन देयर इज नो कंट्री" (2002), "सेकंड अमंग इक्वल्सः द मिडिल क्लास किंगडम्स ऑफ इंडिया एंड चाइना" (2007), "डेवैल्यूइंग टू प्रास्पेरिटी" (2012), "द न्यू वेल्थ ऑफ नेशंस" (2017) और "सिटीजन राज: इंडियन इलेक्शन 1952-2019" शामिल हैं।
आर्थिक सुधार के लिए इस बजट में क्या-क्या कदम उठाए जाने चाहिए, इस पर दैनिक जागरण की समाचार संपादक रुमनी घोष ने उनसे विस्तार से चर्चा की। पेश हैं बातचीत के प्रमुख अंश:
सवाल: वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण जब अपना आठवां बजट पेश करने जा रही हैं तो आर्थिक विकास दर चार साल के न्यूनतम स्तर पर पहुंचने की आशंका जताई जा रही है। बजट-2025 पर कितना प्रभाव दिखेगा?
जवाब: मुझे लगता है कि बातचीत को बजट पर फोकस करने से पहले भारत की अर्थव्यवस्था पर फोकस करते हैं। इससे यह समझने में आसानी होगी कि बजट में किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए। बीते दो साल में हमारी इकोनॉमी ग्रोथ रेट आठ से सवा पांच प्रतिशत आ गया है।
सबसे बड़ी परेशानी तो यह है कि आप बजट में क्या करोगे कि जिससे आपकी ग्रोथ रेट रिकवर हो जाए। इसके लिए दो पॉलिसी हैं, जिसमें सरकार को बदलाव करना चाहिए और इसी बजट में करना चाहिए।
सवाल: कौन-सी दो नीतियों में बदलाव की जरूरत है?
जवाब: टैक्स और विदेशी निवेश। इसमें भी टैक्स पॉलिसी सबसे ज्यादा अहम है, जो आम आदमी से जुड़ा हुआ है। भारत में मध्यमवर्गीय परिवार जो टैक्स चुकाते हैं, वह बहुत ज्यादा है। हम जिन देशों वियतनाम, बांग्लादेश और चीन से अपने विकास की तुलना करते हैं, तो उन ईस्ट एशियन देशों की अर्थव्यवस्था को देखें, तो वहां टैक्स रेट तुलनात्मक रूप से हमसे बहुत कम है।
भारत का वर्ष 2022-23 में 'टैक्स टू जीडीपी रेशियो' औसतन 19 प्रतिशत है। वियतनाम में 13 प्रतिशत है। वहीं चीन में 14-15 प्रतिशत है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) ने इस पर काफी डाटा एकत्रित किया है।
सवाल: टैक्स रेट को थोड़ा और विस्तार से समझाइए? आईएमएफ का डाटा क्या कहता है?
जवाब: टैक्स रेट किसी देश का कुल टैक्स कलेक्शन और जीडीपी का अनुपात (टैक्स कलेक्शन टू जीडीपी रेशियो) है। इससे यह पता चलता है कि किसी देश में प्रति व्यक्ति कर का भार कितना है। इसमें मुख्य रूप से तीन टैक्स आते हैं इनकम टैक्स (आयकर, कार्पोरेट टैक्स, वैल्यूएडेट टैक्स। इसके अलावा आइल, फ्यूल टैक्स सहित अन्य छोटे-मोटे कर शामिल हैं।
भारत में तो राज्यों द्वारा भी टैक्स लिए जाते हैं। आईएमएफ ने 190 देशों का वर्ष 1990 से 2021 के बीच टैक्स रेट का डाटा प्रकाशित किया। मैंने और राजस्व सचिव ने आईएमएफ के इन डाटा का विश्लेषण किया तो पता चलता है कि भारत का टैक्स रेट सबसे ज्यादा है।
सवाल: तो टैक्स रेट कम करने के लिए क्या करना चाहिए?
जवाब: भारत को सोचना चाहिए कि आखिर दुनिया के 190 देश (जिनमें 100 से ज्यादा विकासशील देश शामिल हैं) ने अपना टैक्स रेट कैसे कम रखा है। यूएस को ही देखें।
लोग वहां के टैक्स का आकलन करते वक्त यह गलती करते हैं कि वहां सोशल सिक्योरिटी टैक्स को जोड़कर बताते हैं कि वहां टैक्स रेट बहुत ज्यादा हैं, जबकि सच्चाई यह नहीं है।
सोशल सिक्योरिटी टैक्स, इंश्योरेंस की तरह है। यह राशि जमा होने के बाद व्यक्ति को वापस मिल जाती है। टैक्स हमेशा जनरल फंड में जमा होता है और वापस नहीं मिलता है।
अब इस बात पर आते हैं कि सरकार को क्या करना चाहिए? तो सरकार को इस बजट में भी टैक्स में कटौती करना चाहिए। वह भी छोटे-मोटे स्तर पर नहीं, बल्कि बड़े पैमाने पर टैक्स में कटौती करना चाहिए। जैसा वर्ष 2019 में कार्पोरेट टैक्स घटाकर कदम उठाया गया था।
सवाल: विदेशी निवेश में क्या और किस तरह के बदलाव की जरूरत है?
जवाब: आर्थिक विकास दर को बढ़ाने के लिए एक तरीका है विदेशी निवेश। यह टेक्नोलॉजी लाती है। इसकी हमें बहुत जरूरत है। वर्ष 2014-15 से पहले विदेशी निवेश करने वाली कंपनियों के साथ एक अनुबंध 'बाइलैटरल इनवेस्टमेंट ट्रीटी' होता था। इसमें निवेश करने वाली दोनों देशों (भारत और निवेशकर्ता) के बीच अनुबंध होता था कि दोनों की सहमति के बगैर कोई बदलाव नहीं होगा।
उदाहरण के लिए भारत ने टैक्स बढ़ा दिया तो निवेश करने वाली कंपनी इस पर आपत्ति ले सकती है। यही नहीं, यदि कोई विवाद हो जाता था, तो तीसरे देश के कोर्ट में फैसला होता था। वर्ष 2015 के बाद सरकार ने इस ट्रीटी को खत्म कर दिया गया।
यह भी शर्त लगा दिया गया कि कंपनियों को भारत में ही केस लड़ना होगा। इससे कंपनियां भागने लगीं। अब बमुश्किल 20-30 प्रतिशत कंपनियां ही शेष रही रह गईं। भारत में विदेशी निवेश की यह हालत है कि वर्ष 1986 के स्तर तक 0.8 प्रतिशत तक पहुंच गया है।
सवाल: एक बड़ा वर्ग है जो आपके इस तर्क से सहमत नहीं है कि भारत का टैक्स रेट दुनिया में सबसे ज्यादा है? इसमें कई अर्थशास्त्री और ब्यूरोक्रेट्स भी शामिल हैं? उनकी दलील है कि टैक्स कम करने से राजस्व या आय का स्रोत घट जाएगा। उपाय क्या है?
जवाब: (नाराजगी के साथ) हमारे देश में कोई भी डाटा को न तो देखता है और न ही उसे समझने की कोशिश करता है। पक्ष-विपक्ष, राइट-लेफ्ट या फिर नीति बनाने वाले ब्यूरोक्रेट्स व बाबू सभी अपने-अपने डाटा बताते हैं और अपनी विचारधारा के हिसाब से बेमतलब बहस करते रहते हैं। जब मैं उनसे पूछता हूं कि मुझे गलत साबित करके दिखाओ, लेकिन कोई कुछ साबित नहीं कर पाता है। मेरी राय है कि आईएमएफ का डाटा तो सभी के लिए उपलब्ध है।
पूरी दुनिया उसे देखकर अपनी नीतियां बना रही हैं तो हमारे यहां के नीति निर्माता भी उन्हें देखकर पॉलिसी तैयार करें। जहां तक राजस्व घटने की दलील है तो यह बिलकुल गलत है। सरकार को खर्चा कम करना चाहिए।
यह तलाशा जाए कि किन-किन क्षेत्रों में खर्चा कम किया जा सकता है। खर्च नियंत्रित होगा तो टैक्स बढ़ाने की जरूरत नहीं होगी। पीएम नरेन्द्र मोदी खुद भी बार-बार मुफ्त की रेवड़ियों को कम करने की बात कह रहे हैं।
सवाल: आप तो मोदी सरकार की आर्थिक सलाहकार परिषद के सदस्य रहे। वाणिज्य मंत्रालय में व्यापार पर उच्च स्तरीय सलाहकार समूह के अध्यक्ष और भारत सरकार के पंद्रहवें वित्त आयोग के आर्थिक सलाहकार भी रहे हैं। क्या आपने इन मामलों में कोई सुझाव नहीं दिया?
जवाब: देखिए, इस मामले में हर राजनीतिक दल एक जैसी है। मेरा मानना है कि एक खास तरह के माइंड सेट और आइडोलॉजी से राजनीति तो की जा सकती है, लेकिन आर्थिक विकास के लिए विशेषज्ञों की मदद से पॉलिसी बनाने की जरूरत है।
डॉ. मनमोहन सिंह हो या नरेन्द्र मोदी, दोनों ने ही प्रधानमंत्री बनने के बाद खास क्षेत्रों में विषय-विशेषज्ञों को प्रवेश दिए जाने (लैटरल एंट्री) दिए जाने की बात कही थी, लेकिन दोनों ही इसे लागू नहीं करवा पाए।
सवाल: भारत में ब्याज दर बहुत ज्यादा है? निजी निवेश या कारपोरेट सेक्टर में निवेश में कमी को अर्थव्यवस्था के लिए चिंता का विषय माना जा रहा है। बढ़ती मंहगाई पर भी रोक नहीं लग पा रही है? इससे निपटने के लिए क्या उपाय किए जा सकते हैं?
जवाब: जी बिलकुल। विदेशी निवेश में गिरावट के बारे में मैं पहले ही स्पष्ट कर चुका हूं। निश्चित रूप से चिंता का विषय है और मंहगाई बढ़ने का भी यही कारण है। इसके लिए हमारे उद्योगपति और घरेलू बाजार जितने जिम्मेदार हैं, उतनी ही सरकारें भी।
इसे इस तरह से समझिए कि हमारे देश के उद्योगपति विदेशी निवेश आने नहीं देना चाहते हैं, क्योंकि ऐसा होने पर उन्हें अंतरराष्ट्रीय मानकों से स्पर्धा करनी पड़ेगी, इसलिए हर बजट से पहले वह सरकार के सामने रोने लगते हैं कि विदेशी निवेश बढ़ा तो हम डूब जाएंगे। और हर सरकार राजनीतिक एजेंडे के तहत उन्हें प्रश्रय देती है।
बाजार में घेरलू उद्योगपतियों या घेरलू बाजार की मोनोपाली से मंहगाई बढ़ती है। एक ही विकल्प है, बाजार खोलिए। डर की कोई बात नहीं है। आखिर सॉफ्टवेयर सेक्टर में भारत ने खुद को साबित किया है न, तो बाकी सेक्टर्स में क्यों नहीं हो सकता। यह सरकार, उद्योगपतियों और ब्यूरोक्रेट्स के बीच 'अनहोली अलायंस' है।
सवाल: यदि स्थिति अभी नहीं संभाली तो कितनी गंभीर हो सकती है?
जवाब: दिक्कत यह है कि हम यानी हमारी सरकार अपनी पूरी क्षमताओं का उपयोग नहीं कर रही है। हमने यह करके दिखाया कि हमारी जीडीपी ग्रोथ आठ प्रतिशत तक जा सकती है। गलत नीतियों की वजह से हमारा ग्रोथ रेट नीचे गिर रहा है।
परेशानी यह भी है कि हम अब तक के सबसे नीचे दर पर पहुंच चुके हैं। एक स्थिरता आ गई है। सरकार यदि कुछ नहीं भी करेगी तो भी हम संभवत: लंबे समय तक इस स्थिति में बने रहेंगे। यह घातक है। भारत की स्पर्धा अपने आप से ही है।
सवाल: बेरोजगारी भी एक बड़ा मुद्दा है? उप्र और बिहार में हुए आंदोलन इसके उदाहरण है? इस बजट में सरकार को क्या प्रविधान करना चाहिए?
जवाब: मैं फिर कहूंगा कि कोई भी डाटा नहीं देख रहा है। सारे राजनीतिक दल बेरोजगारी दर के अलग-अलग आंकड़े बताकर भ्रम पैदा कर रहे हैं। भारत में बेरोजगारी दर (30 साल से ऊपर) महज एक प्रतिशत है। यदि 15 साल से कम उम्र के युवाओं को भी शामिल कर लिया जाए तो यह साढ़े तीन से चार प्रतिशत होगा।
यह स्थिति कोई आज की नहीं है, बल्कि 1983 से अब तक एक प्रतिशत बनी हुई है। दरअसल बेरोजगारी दर ज्यादा नहीं है, बल्कि यह कहना चाहिए कि स्नातक बेरोजगारी दर ज्यादा है। नौकरी पाने के लिए ट्रेनों और सड़कों पर जो भीड़ नजर आ रही है, वह सरकारी नौकरी पाने वालों की चाह रखने वालों की है।
सॉफ्टवेयर सेक्टर में तो यह भीड़ नहीं दिखती है। हम अन्य सेक्टर में अवसर नहीं पैदा कर रहे हैं, इसलिए लोग ज्यादा वेतन और कम जवाबदेही के लिए सरकारी नौकरी के पीछे भाग रहे हैं।
सवाल: बेरोजगारी दर हो या स्नातक बेरोजगारी दर से क्या अंतर है? औसत भारतीय युवाओं की आय तो महज 24000 रुपये महीना पर ही ठहरी हुई है। सुधार के लिए क्या होना चाहिए?
जवाब: इसे समझने के लिए मैं दो-तीन डाटा पाइंट्स देता हूं। मैंने 2017 में एक पुस्तक लिखी थी 'न्यू वेल्थ ऑफ नेशंस'। इसमें मैंने दुनियाभर के स्नातक युवाओं के डाटा का विश्लेषण किया। 1993 में जाएं तो पश्चिमी देशों में स्नातक करने वाले बच्चों की संख्या 5.5 करोड़ थी।
उस समय भारत सहित बाकी देशों में स्नातक युवाओं की संख्या भी 5.5 करोड़ होगी, यानी कुल मिलाकर यह आंकड़ा 11 करोड़ के आसपास था। अब 2023 की बात करें तो पश्चिमी देशों में यह आंकड़ा 5.5 करोड़ से 6.5 करोड़ है, जबकि भारत सहित बाकी देशों में यह आंकड़ा 5.5 से 30 करोड़ तक पहुंच गया।
अब एक ओर डाटा पर नजर डालिए। अमेरिका में एक नौकरी के लिए 600 युवा, ब्राजील में पीएचडी के तीन पदों के लिए 300-400 युवा दावेदारी करते हैं। वहीं भारत में यह संख्या 50-60 हजार से लेकर लाख तक है। अब आते हैं भारतीय युवाओं की औसत आय पर तो, बीते 10 सालों में इसमें कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं हुई है।
अब अर्थशास्त्र के पहले नियम को लागू कीजिए। यदि सप्लाई ज्यादा होगी तो मांग घटेगी। चूंकि एक पद के लिए ज्यादा से ज्यादा स्नातक ग्रेजुएट बाजार में उपलब्ध हैं, इसलिए उनके वेतन में बढ़ोतरी कम हो रही है या फिर स्थिरता बनी हुई है।
सवाल: तो क्या विकल्प है?
जवाब: विदेशी निवेश...बाजार खोलिए, रोजगार के अवसर पैदा कीजिए। सॉफ्टवेयर सेक्टर की तरह जब अन्य क्षेत्रों में भी बेहतर वेतन और रोजगार के अवसर होंगे तो लोग सरकारी नौकरी के लिए मारामारी नहीं करेंगे। सड़कों पर दिखने वाली यह भीड़ भी नजर नहीं आएगी।
सवाल: बीमा पर से जीएसटी हटाने की बहुत मांग उठी। यहां तक कि भाजपा के वरिष्ठ नेता नितिन गडकरी ने भी वित्त मंत्री को पत्र लिखकर यह मुद्दा उठाया था। क्या सरकार इस पर कुछ बदलाव कर सकती है? या उनको बदलाव करना चाहिए?
जवाब: यह सही है कि जीएसटी का युक्तिकरण (रेशनलाइजेशन) नहीं किया गया, जिसकी वजह से कई तरह की अनियमितताएं नजर आती हैं। सरकार को गौर करना चाहिए।
सवाल: दो टैक्स प्रणाली (नई और पुरानी दोनों ) का क्या औचित्य आपको नजर आता है?
जवाब: मैं तो नई टैक्स प्रणाली का समर्थन करता हूं। नई टैक्स प्रणाली में 'बाबुओं' का हस्तक्षेप कम है, इसलिए भ्रष्टाचार भी कम होगा। मेरा मानना है, जो लोग इसका समर्थन कर रहे हैं, वह लूपहोल का फायदा लेना चाहते हैं।
सवाल: आम लोगों को यदि बजट को समझना है तो वह कौन-सी चीजों पर गौर करें, जिससे गरीबी कम हो सके?
जवाब: इसमें कोई रॉकेट साइंस नहीं है। बजट बनाने वाले और बजट से प्रभावित होने वाले दोनों के लिए एक ही फार्मूला है...टैक्स घटाइए, निवेश बढ़ाइए।
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