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    इनके बुलंद हौसलों के आगे सभी चुनौतियां हुईं धड़ाम! धरती का सीना चीरकर निकाली विकास की राह

    By Kamal VermaEdited By:
    Updated: Sun, 04 Oct 2020 10:18 AM (IST)

    कई लोगों ने अपने संघर्ष और जिजीविषा की स्याही से इतिहास के पन्नों पर ऐसी इबारत लिखी है जो अतुलनीय है। ऐसे हैं लौंगी भुइयां। गया जिले के लौंगी से जब सम ...और पढ़ें

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    बिहार में खुद के दम पर लोगों का भला करने वाले कई हैं।

    गया/छतरपुर (विनय कुमार पांडेय/दिलीप सोनी)। हमारे देश में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जहां व्यक्तिगत और सामूहिक प्रयासों से इस तरह के काम हुए हैं। हाल ही में बुंदेलखंड में महिलाओं ने जल संकट को दूर करने का बीड़ा उठाया। ऐसे ही कुछ साहसी लोगों की दास्तां....

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    यह बिहार के मगध का वही इलाका है जहां दशरथ मांझी ने अपने दम पर पहाड़ का सीना चीरकर सड़क बना दी थी। ऐसे ही गया जिले के एक गांव में लौंगी भुइयां ने पहाड़ की तलहटी में अकेले दम पर तीन किलोमीटर लंबी नहर खोद डाली। दशरथ मांझी के पहाड़ काटकर सड़क बनाने की पूरी दुनिया में चर्चा हुई थी। 2015 में उनकी जिंदगी पर एक फिल्म भी बनी थी। दशरथ मांझी के बाद वैसा ही भगीरथ प्रयास करने वाले लौंगी भुइयां की इन दिनों हर जगह चर्चा है। 30 वर्ष की मेहनत से उन्होंने असंभव को संभव कर दिखाया है, जो लोग कभी उनके जज्बे और जुनून को पागलपन कहते थे, वही अब उन पर गर्व करते हैं। उनके काम को देश के मशहूर उद्योगपति भी सम्मान दे रहे हैं।

    पहले बिहार के गया जिले के कोठिलवा गांव का नाम शायद ही बाहरी लोगों को पता हो। नितांत उपेक्षित था यह गांव। यह ऐसा दुर्गम गांव है, जहां दूर तलक सड़क का नामोनिशान नहीं है। नक्सल प्रभावित क्षेत्र। यदि बाहर जाने के लिए बस पकड़नी हो तो कई किलोमीटर पैदल चलना पड़ता है। अभी तक यहां पानी का भी भीषण संकट था। सिंचाई के अभाव में फसलें नहीं हो पाती थीं। यहां के ग्रामीण बकरियां पालते हैं ताकि बकरियों के दूध से उनके बच्चों का पेट तो भरता रहे। यह गांव पिछले दिनों अचानक ही र्सुिखयों में आया। यहां के बच्चों को अब शासन-प्रशासन की मोटर गाड़ियां भी देखने को मिल रही हैं। यह तब संभव हुआ, जब यहां के एक शख्स के जज्बे की कहानी देश और दुनिया के सामने आई। जी हां, यहां के लौंगी भुइयां द्वारा करीब तीन किलोमीटर लंबी नहर अपने बूते खोदकर सिंचाई व्यवस्था का समाधान करने की यह कहानी है। यह कहानी शुरू होती है 30 साल पहले। अपने गांव की स्थिति से दुखी लौंगी भुइयां में यहां खुशहाली लाने की प्रेरणा स्वत: जागी। तब वह युवा थे। उन्होंने वर्षा जल के संरक्षण की रूपरेखा अपने दिमाग में बना ली थी और आज कोठिलवा गांव के जमुनिया आहर टोला के 70 वर्षीय लौंगी भुइयां लोगों के लिए प्रेरणास्नोत बन गए हैं।

    30 साल की अथक मेहनत से लौंगी ने पहाड़ की तलहटी से करीब तीन किमी. लंबी पइन (नहर) खोद डाली। इस बार मानसून में बारिश का पानी पहाड़ की ढलानों से होते हुए उनके द्वारा खोदी गई पइन से होते हुए एक बड़े आहर (तालाब) तक आ पहुंचा। आज वह आहर लौंगी आहर के नाम से अपनी पहचान बना चुका है। बंगेठा पहाड़ी जंगल से कोठिलवा तक पइन के सहारे पानी आने लगा है। स्थानीय ग्रामीणों की मानें तो आहर में बारिश से जमा हुए पानी से आसपास के चार गांवों कोठिलवा, जठही, लुटुआ, जमुनिया के आसपास की करीब 500 एकड़ की खेती को लाभ मिलेगा। वहां अब हरियाली नजर आएगी और गांव के लोगों को भरपूर अन्न नसीब होगा।

    रंग लाई अधिक मजदूरी की चाहत

    आसपास के गांवों के खेतों में जब धान की फसल लहलहाएगी और खेत-खलिहान फसलों से पट जाएंगे तो मुझे काम मिलेगा और मजदूरी भी बढ़कर मिलेगी। खाने को अनाज भी मिलेगा। इसी सोच ने लौंगी भुइयां को वर्षा जल संरक्षित करने और नहर खोदने के लिए प्रेरित किया। 1990 के दशक में इलाके में पानी की किल्लत थी, जिसका असर पैदावार पर होता था। लौंगी का मानना था कि जब यहां खेती अच्छी तरह संभव होगी तो बड़े किसान अच्छी पैदावार होने पर उन्हेंं और उनके परिवार को खाने के लिए ज्यादा अनाज देंगे और उन्हेंं खेतों में काम करने की मजदूरी भी अच्छी मिलेगी।

    कुदाल से गढ़ी गांव की खुशहाली

    अपनी धुंधली पड़ती यादों को ताजा करते हुए लौंगी बताते हैं कि तब उनकी उम्र 35-36 वर्ष रही होगी। विरासत में थोड़ी-बहुत जमीन मिली थी, लेकिन धान की पैदावार अच्छी न हो पाने से खाने-पीने की समस्या रहती थी। परिवार में वृद्ध माता-पिता समेत छोटे-छोटे बच्चे थे। सब कुछ मजदूरी पर ही निर्भर था। खुद की खेती करने के बाद वह दूसरों के यहां मजदूरी करते थे। एक दिन अचानक उन्होंने ठान लिया कि अब बहुत हो चुका। अब गांव की किस्मत बदल कर रहेंगे और पहाड़ से नीचे आने वाले बारिश के पानी को गांव तक लाकर ही दम लेंगे। लौंगी घर में पड़ी अपने बाबू जी की कुदाल व लाठी लेकर निकल पड़े पहाड़ की ढलानों की ओर। ढलानों में ऊबड़-खाबड़ पथरीले रास्तों के बीच से होकर नहर बनाना आसान न था, लेकिन अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से लौंगी निरंतर थोड़ा-थोड़ा करके नहर की खुदाई करते रहे। शुरू के वर्षों में पहले समतल रास्ता निकाला। फिर धीरे-धीरे उसकी चौड़ाई और गहराई बढ़ाते गए। जहां मेड़ बंदी और बांध की जरूरत हुई, उसे मिट्टी व पत्थरों से तैयार किया ताकि रास्ते में पानी भटककर उनकी उम्मीदों पर पानी न फेर दे। व्यवधान बहुत आए। रास्ते में कई जगहों पर बड़ी-बड़ी चट्टानें मिलीं, पर उन्होंने हार नहीं मानी। वह चट्टान के दोनों तरफ से रास्ता निकालकर आगे की ओर बढ़ गए।

    जज्बे को कहा गया पागलपन

    लौंगी बताते हैं कि शुरू में गांव वाले नहर खोदने के प्रयास को पागलपन कहते थे, लेकिन उनकी जिद ने लोगों की बातों को दिल पर नहीं लिया और चुपचाप अपनी धुन में रमे रहे। आज उनका वही जुनून और जिद लौंगी भुइयां के साथ-साथ पूरे इलाके को ख्याति दिला रही है। ग्रामीण अब अपने लौंगी पर गर्व करते हैं।

    न पक्की छत है न शौचालय

    जिन लौंगी भुइयां ने जनहित के काम में अपने 30 साल लगा दिए, उन्हेंं एक पक्की छत तक नसीब नहीं हो सकी है। अन्य बुनियादी सुविधाएं तो कोसों दूर है। उनके परिवार में पत्नी समेत मां, चार बेटे, बहुएं व पोते-पोतियों समेत कुल 20 लोग हैं। सभी मजदूरी पर ही निर्भर हैं। हालांकि लौंगी को सरकार पर पूरा भरोसा है कि वह उनके परिवार के लिए पक्का मकान, शौचालय आदि जरूर बनवाएगी।

    कुछ और भी हैं ऐसे ही जुनूनी   

    पथरीली जमीन पर सुग्रीव ने खोदा तालाब

    पर्वत पुरुष दशरथ मांझी को अपना आदर्श मानने वाले सुग्रीव राजवंशी एक दशक पूर्व ही बिहार के राजगीर व गया की सीमा पर पंचपहाड़ी की तलहटी में 100 फीट लंबा, 50 फीट चौड़ा और 15 फीट गहरा तालाब अपने बूते खोद चुके हैं। गया जिले के अतरी प्रखंड के चकरा पंचायत के रंगपुर चंद्रशेखर नगर निवासी सुग्रीव ने पहाड़ी की तलहटी में पथरीली भूमि पर तालाब खोदा। यह हमेशा पानी से भरा रहता है। सुग्रीव कहते हैं कि दशरथ बाबा की प्रेरणा से तालाब खोदा था।

    फलदार वृक्ष लगा सत्येंद्र बने ट्रीमैन

    गया जिले के बेलागंज के इमलियाचक निवासी सत्येंद्र कुमार गौतम फल्गु नदी के पास एक टापू पर सैकड़ों पौधे लगाकर ट्री मैन के नाम से विख्यात हो गए। अनुसूचित जाति परिवार में जन्में सत्येंद्र ने अभावों के बीच संघर्ष करते हुए स्नातकोत्तर की पढ़ाई की। पर्यावरण संरक्षण के प्रति जागरूक थे, लेकिन भूमिहीन होने के कारण यह तमन्ना पूरी नहीं हो रही थी। इसी दौरान उनकी नजर फल्गु नदी के पास एक टापू पर गई। वह वहां अमरूद के पौधे लगाने लगे। धीरे-धीरे उन्होंने सैकड़ों पौधे लगाए। आज उस टापू पर हजारों पेड़ तैयार हैं। इसने एक रमणीक स्थल का रूप ले लिया है। वह पर्वतपुरुष दशरथ मांझी को अपना आदर्श मानते हैं और कहते हैं, दृढ़ इच्छाशक्ति होने पर कोई भी कार्य असंभव नहीं होता।

    बुंदेलखंड की जल सहेलियों ने पहाड़ चीरकर बहाई जलधारा

    कहते हैं, इरादे अगर फौलादी हों और विश्वास अगर चट्टान की तरह अटल हो तो पहाड़ भी आपके सामने बौना नजर आता है। कुछ ऐसी ही कहानी है बुंदेलखंड की महिलाओं की। बुदेलखंड की इन साहसी महिलाओं ने अपने इलाके के बड़े हिस्से को पानी की समस्या से निजात दिलाने का बीड़ा उठाया और वो कर दिखाया जिसने इलाके के लोगों की जिंदगी की राह आसान कर दी। आज पूरा अंचल इन महिलाओं को जल सहेलियों के नाम से जानता है। मध्य प्रदेश के छतरपुर, टीकमगढ़, पन्ना, सागर और दमोह के साथ उत्तर प्रदेश के सात जिलों झांसी, महोबा, ललितपुर, हमीरपुर, बांदा, चित्रकूट और जालौन में ये जल सहेलियां नवीन जल संरचनाओं का निर्माण कर रही हैं।

    छतरपुर जिले के बड़ामलहरा ब्लॉक की ग्राम पंचायत भेलदा के छोटे से गांव अंगरोठा में बुंदेलखंड पैकेज से तालाब का निर्माण कराया गया था, परंतु जल स्रोत का कोई माध्यम न होने से तालाब सूखा ही रहता था। गांव में पानी की समस्या देख 400 से अधिक महिलाओं ने इसके निदान के लिए साहस दिखाया और जल संवर्धन के क्षेत्र में कार्य कर रही परमार्थ समाजसेवी संस्थान का सहयोग लिया। जल सहेलियों ने लगभग 107 मीटर लंबे पहाड़ को काटकर ऐसा रास्ता बनाया है जिससे उनके गांव के तालाब में अब पानी भरने लगा है।

    महीनों बाद मिली सफलता

    जल सहेली बबीता राजपूत बताती हैं कि तीन किलोमीटर पैदल चलकर महिलाएं यहां पर आती थीं और श्रमदान करती थीं। ग्रेनाइट पत्थरों की बड़ी रुकावट को पार करने के लिए मशीनों का भी सहारा लिया गया। 95 फीसद कार्य महिलाओं द्वारा ही किया गया। लगभग 18 माह की मेहनत के बाद आज परिणाम आंखों के सामने है। इस मेहनत से गांव की दशा और दिशा दोनों बदल चुकी है। तालाब के भरने से सूखी बछेड़ी नदी भी पुन: जीवित हो चुकी है।

    सहेज लिया बारिश का पानी

    जल जन जोड़ो अभियान के राज्य संयोजक मानवेंद्र सिंह बताते हैं कि बरसात में ग्राम भेलदा के पहाड़ों का पानी बेकार चला जाता था। इसी पानी को सहेजकर महिलाओं ने गांव की दशा और दिशा बदलकर रख दी है। 40 एकड़ के तालाब में लबालब पानी भरा है। इसके कारण सूखे कुओं में पानी आ चुका है और हैंडपंप भी फिर पानी देने लगे हैं।

    ऐसे शुरू हुआ सिलसिला

    वर्ष 2011 में यूरोपियन यूनियन के सहयोग से परमार्थ सेवा संस्थान ने पानी पर महिलाओं की हकदारी परियोजना शुरू की थी। गांवों में पानी पंचायतें बनीं। प्रत्येक पंचायत में 15 से 25 महिलाओं को जगह मिली। प्राकृतिक जल प्रबंधन को बढ़ावा देने के लिए दो महिलाओं को जल सहेली बनाया जाता है। इन्हेंं जल और पर्यावरण कार्यकर्ता राजेंद्र सिंह की अलवर, राजस्थान स्थित संस्था में ट्रेनिंग के लिए भेजा जाता है। वर्तमान में जालौन में 60, ललितपुर में 64 और हमीरपुर में 45 जल सहेलियां हैैं। ललितपुर के तालबेहट ब्लाक के 40 गांवों में जलस्नोतों का रखरखाव कर रही हैैं ये। छतरपुर में इन्होंने दो सौ से अधिक छोटे बांध बनाए हैं।

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