प्राइम टीम, नई दिल्ली। भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए, यानी राजद्रोह कानून। यह 152 साल पुराना कानून रिपील होने की कगार पर पहुंचने के बाद एक बार जीवनदान पाता नजर आ रहा है। भारतीय विधि आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा है कि राजद्रोह कानून को रद्द करने की जरूरत नहीं है। कुछ संशोधन के साथ राजद्रोह कानून को बनाए रखना चाहिए। भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए ये जरूरी है।

विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में राजद्रोह कानून के तहत मिलने वाली सजा को 3 साल से बढ़ाकर 7 साल करने का सुझाव दिया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि नागरिकों की स्वतंत्रता तभी सुनिश्चित की जा सकती है, जब राज्य सुरक्षित हो। आयोग ने कहा है कि धारा 124ए को सिर्फ इसलिए निरस्त कर देना क्योंकि दूसरे कुछ देशों ने भी ऐसा किया है, ठीक नहीं होगा। ऐसा करना भारत की जमीनी हकीकत से आंखें मूंद लेना होगा। अगर ये कानून औपनिवेशिक काल का कानून है, तो हमारे ज्यादातर कानून भी उसी दौर के हैं।

इससे पहले, पिछले साल मई में सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून के तहत नए मामले दर्ज करने पर रोक लगा दी थी और सरकार से इस कानून पर पुनर्विचार के लिए कहा था। सुप्रीम कोर्ट ने टिप्पणी करते हुए कहा था कि यह औपनिवेशिक काल का कानून है, जो कि भारत के स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने के लिए बनाया गया था। अंग्रेजों ने महात्मा गांधी, तिलक आदि को चुप कराने के लिए इसी कानून का इस्तेमाल किया था। क्या आजादी के 75 साल बाद भी यह जरूरी है?

वहीं, आयोग ने कहा है कि देशद्रोही और अलगाववादी ताकतों से निपटने में यह धारा उपयोगी है। यह चुनी हुई सरकार को हिंसक अथवा अवैध तरीके से हटाने के प्रयासों से बचाती है। कानूनी तौर पर बनी सरकार का रहना देश की सुरक्षा और स्थिरता के लिए आवश्यक है। इस संदर्भ में धारा 124ए को बनाए रखना जरूरी हो जाता है ताकि ऐसी सभी गतिविधियों को शुरुआत में ही रोका जा सके।

आयोग ने इस विचार से असहमति जताई है कि यह धारा संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत मिले अभिव्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन है। उसने यह भी कहा कि यूएपीए और एनएसए जैसे आतंकरोधी कानून होने का मतलब यह नहीं कि राजद्रोह कानून की जरूरत नहीं है। इस धारा को हटाने के बाद अगर सरकार के खिलाफ कोई हिंसा करता है तो उसके खिलाफ आतंकरोधी तथा अन्य विशेष कानूनों के तहत कार्रवाई होगी, जिनके प्रावधान ज्यादा सख्त हैं।

बहरहाल, विधि आयोग की सिफारिश स्वीकार की जाती हैं अथवा नहीं, यह केंद्र सरकार पर निर्भर करेगा। लेकिन विशेषज्ञों ने विधि आयोग की रिपोर्ट पर ही सवाल खड़े कर दिए हैं। संविधान विशेषज्ञ और लोकसभा के पूर्व महासचिव पीडीटी आचारी कहते हैं, विधि आयोग की ये रिपोर्ट बहुत ही सतही है। आयोग डिबेट को गलत दिशा में लेकर चला गया कि राजद्रोह कानून औपनिवेशिक काल का कानून है तो क्या हुआ। हमारे ज्यादातर कानून औपनिवेशिक काल के हैं।

आचारी ने कहा कि राजद्रोह कानून को इसलिए नहीं हटाने की मांग की जा रही है कि वह औपनिवेशिक काल का कानून है, बल्कि इसलिए हटाये जाने को कहा जा रहा है क्योंकि वह असंवैधानिक है। भारतीय दंड संहिता की धारा 124ए संविधान के अनुच्छेद 19-1ए का सीधा उल्लंघन है।

सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट ऑन रिकॉर्ड अश्विनी दुबे कहते हैं, राजद्रोह कानून को स्वतंत्रता सेनानियों की आवाज दबाने के लिए लाया गया था। भारतीय संविधान का आर्टिकिल 19-1ए अभिव्यक्ति से जुड़े कुछ अधिकार देता है और आर्टिकिल-19 में भी हर व्यक्ति को कुछ मूलभूत अधिकार मिले हुए हैं। इसके अलावा, आर्टिकिल 19-2 है जो कुछ लिमिटेशन की बात करता है।

दुबे कहते हैं, राजद्रोह कानून की आज के समय में इसलिए जरूरत नहीं है, क्योंकि आपके पास अलग-अलग कानून हैं। उदाहरण के लिए धार्मिक भावनाएं भड़काने पर अलग कानून है। सरकार के खिलाफ युद्ध छेड़ना और सरकार के खिलाफ आवाज उठाना, दोनों में अंतर है। कई बार सरकार की नीति पर सवाल उठाने पर भी राजद्राेह लगा दिया जाता है। सरकारें इसका बेजा इस्तेमाल समय-समय पर करती हैं। आंध्र प्रदेश में दो पत्रकारों और केरल के पत्रकार पर राजद्रोह का केस लगाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने साफ-साफ कहा था कि आपको एक स्पष्ट लकीर खींचनी होगी। संविधान प्रदत्त अधिकारों को दबाने के लिए आप राजद्रोह कानून का इस्तेमाल नहीं कर सकते।

कानूनी मामलों के जानकार और सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट विराग गुप्ता कहते हैं, इंग्लैंड के 1845 के कानून की तर्ज़ पर भारत में 1870 में आईपीसी में राजद्रोह के अपराध का कानून जोड़ा गया था। इंग्लैंड में भी यह कानून सन 2009 में निरस्त हो गया। अंग्रेजी शासन में अभिव्यक्ति की आजादी नहीं थी, लेकिन आजाद भारत में यह सबसे बड़ा संवैधानिक अधिकार है। राजद्रोह के नाम पर संवैधानिक अधिकारों का हनन कैसे जायज माना जा सकता है?

एडवोकेट अश्विनी दुबे को उम्मीद है कि सरकार शायद ही विधि आयोग की इस सिफारिश को स्वीकार करे। दुबे कहते हैं, विधि आयोग अपनी सिफारिशें देता है। मानना या न मानना सरकार के ऊपर निर्भर करता है। विधि आयोग की सिफारिशें कॉमन सिविल कोड के खिलाफ भी हैं। कई बार सुप्रीम कोर्ट भी विधि आयोग से राय मांग लेता है, लेकिन इसकी राय मानना बाध्यकारी नहीं होता। इससे पहले, प्रधानमंत्री इस कानून के बारे में खुद कह चुके हैं कि हम कोलोनियल बैगेज उठाकर चल रहे हैं। इसको हटाने की जरूरत है।

पीडीटी आचारी कहते हैं, विधि आयोग सरकार के कहने पर या अपनी इच्छा से भी कानून से जुड़े मामलों पर अपनी सिफारिश देता है। आमतौर पर सरकार इसे स्वीकार करती है और कानून का निर्माण करती है। हालांकि, विधि आयोग की सिफारिश सरकार पर बाध्यकारी नहीं होती।

विराग गुप्ता कहते हैं, सुप्रीम कोर्ट में चल रहे मामले से ये स्पष्ट है कि इस कानून का दुरुपयोग हो रहा है। विधि आयोग की रिपोर्ट से भी यह साफ हो गया है कि इस कानून को स्पष्ट बनाने की जरूरत है, ताकि इसका दुरुपयोग न हाे सके। इसलिए अंग्रेजों के समय बनाए गए इस कानून को नए सिरे से परिभाषित करके इसके दुरुपयोग को रोकने की जरूरत है।