आदिवासी महिला पैतृक संपत्ति में बराबरी के हिस्से की हकदार, सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया ऐतिहासिक फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि आदिवासी महिलाएँ पैतृक संपत्ति में बराबरी के हिस्से की हकदार हैं। अदालत ने 150 साल पुराने कानून का हवाला देते हुए कहा कि लैंगिक भेदभाव को खत्म करना ज़रूरी है। छत्तीसगढ़ के गोंड आदिवासी समुदाय की एक महिला के मामले में अदालत ने निचली अदालत और हाई कोर्ट के फैसलों को रद्द कर दिया।
माला दीक्षित, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने एक अहम फैसले में कहा कि आदिवासी महिला और उसके उत्तराधिकारी पैतृक संपत्ति में बराबरी के हिस्से के हकदार हैं। जबतक कानून में अन्यथा नहीं कहा गया हो, तब तक संपत्ति में महिला उत्तराधिकारी के हक को नकारने से सिर्फ लैंगिक विभाजन और भेदभाव बढ़ता है, जिसे कानून की स्पष्टता से समाप्त किया जाना चाहिए।
शीर्ष अदालत ने छत्तीसगढ़ के गोंड आदिवासी समुदाय की महिला और उसके उत्तराधिकारियों के पैतृक संपत्ति पर कानूनी हक की मुहर लगाने वाला यह फैसला 150 साल पुराने कानून में अदालत को मिली 'न्याय करने की विशेष शक्ति' का इस्तेमाल करते हुए और संविधान में दिए गए बराबरी के हक और लैंगिक भेदभाव की मनाही के सिद्धांत पर दिया है।
नाना की संपत्ति में अधिकार पर मुहर
पीठ ने कहा, 'न्याय, समानता और सद्भावना के सिद्धांत को लागू करते समय अदालतों को इस खुली अवधारणा को संदर्भ के अनुसार लागू करना चाहिए।' जस्टिस संजय करोल और जोयमाल्या बाग्ची की पीठ ने गुरुवार को गोंड महिला धैया के कानूनी वारिसों के नाना की संपत्ति में अधिकार पर मुहर लगाते हुए निचली अदालत और छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के फैसलों को रद कर दिया।
निचली अदालत ने और हाई कोर्ट ने आदिवासी गोंड समुदाय की प्रथा में महिलाओं को पैतृक संपत्ति में अधिकार की घोषणा का जिक्र नहीं होने और उसे साबित नहीं कर पाने के आधार पर धैया और उसके उत्तराधिकारियों का दावा खारिज कर दिया था। अदालत के लिए मामले में न्याय करना थोड़ा मुश्किल था क्योंकि कानून में गोंड आदिवासी महिला धैया के पिता की संपत्ति पर अधिकार देने वाला कोई कानून या प्रथा (कस्टम) नहीं थी। उसके उत्तराधिकारियों ने नाना की संपत्ति पर उत्तराधिकार और हिस्सा मांगते हुए कहा था कि उन लोगों ने हिंदू प्रथा अपनाई है, इसलिए हिंदू उत्तराधिकार कानून उन पर लागू हो।
पूर्ण न्याय करने की शक्ति का इस्तेमाल किया
- लेकिन कोर्ट ने पाया कि इस अधिनियम की धारा-दो विशेष रूप से घोषित करती है कि अनुसूचित जनजातियों पर यह कानून लागू नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने 1875 के कानून सेंट्रल प्राविंस लॉस एक्ट के प्रविधानों में अदालत को मिली पूर्ण न्याय करने की शक्ति का इस्तेमाल करते हुए फैसला दिया। जस्टिस संजय करोल ने इस कानून की धारा-छह का उल्लेख किया है, जो कहती है कि जब किसी बारे में कोई कानून नहीं होगा तो अदालत न्याय, समानता और अच्छे विवेक के अनुसार निर्णय लेगी।
- कोर्ट ने कहा कि हिंदू उत्तराधिकार कानून लागू नहीं होने पर आदिवासी समुदाय में लागू प्रथा साबित करनी होती लेकिन इस मामले में वह भी नहीं है। शीर्ष अदालत ने कहा कि निचली अदालत ने कस्टम में जिक्र नहीं होने पर अनुमान लगाया कि प्रथा में पुत्री को संपत्ति में हक नहीं है। उन्होंने याचिकाकर्ता से हक साबित करने की उम्मीद की, जबकि बेटी को बाहर समझने के बजाय अंदर भी समझा जा सकता है और प्रतिवादियों से हक नहीं होना साबित करने को कहा जाता।
समानता और सद्भाव के सिद्धांत का हवाला
कोर्ट ने कहा कि जब इस मामले में कोई कानून या प्रथा लागू नहीं होती तो फिर कोर्ट समानता और सद्भाव के सिद्धांत पर चलेगा। कानून की शून्यता पर 1875 के कानून के प्रविधान लागू होंगे। परंतु निचली अदालतों ने नोट किया था कि 1875 का कानून मार्च, 2018 में निरस्त हो चुका है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने उस निरस्त कानून की धारा-चार की व्याख्या करते हुए कहा कि यह धारा कहती है कि ये उनमें लागू नहीं होगा जिनमें कानून निरस्त होने से पहले कोई अधिकार प्राप्त किया गया होगा।
इस मामले में कानून का निरस्त होना प्रभावी नहीं होगा क्योंकि कानून निरस्त होने के 30 साल पहले याचिकाकर्ता की मां ने पिता की मृत्यु पर अधिकार अर्जित कर लिया था। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद-14 में दिए गए समानता के अधिकार और अनुच्छेद-15 में दिए जाति, लिंग, जन्मस्थान, वर्ग आदि के आधार पर भेदभाव नहीं करने के अधिकार को भी आधार बनाया है।
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