विधेयकों को सिर्फ राज्यपाल और राष्ट्रपति ही दे सकते हैं मंजूरी, कोर्ट नहीं; BJP शासित राज्यों ने किया केंद्र का समर्थन
महाराष्ट्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में कहा कि विधेयकों को मंजूरी देने का अधिकार केवल राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास है न्यायालय के पास नहीं। भाजपा शासित राज्यों ने भी केंद्र सरकार के साथ मिलकर विधेयकों पर निर्णय लेने की समय सीमा का विरोध किया। उनका कहना है कि संविधान में कोई समय सीमा नहीं है इसलिए अदालत को भी समय सीमा तय नहीं करनी चाहिए।
जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। महाराष्ट्र सरकार ने प्रेसीडेंशियल रिफरेंस पर पक्ष रखते हुए सुप्रीम कोर्ट में कहा कि सिर्फ राज्यपाल और राष्ट्रपति ही विधेयकों को मंजूरी दे सकते हैं, कोर्ट विधेयकों को मंजूरी नहीं दे सकता। मंगलवार को महाराष्ट्र सहित भाजपा शासित आठ राज्यों ने केंद्र सरकार के सुर में सुर मिलाते हुए विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए समय सीमा तय करने का विरोध किया।
उन्होंने कहा कि संविधान में कोई समय सीमा तय नहीं है ऐसे में कोर्ट समय सीमा नहीं तय कर सकता। यह भी कहा कि राज्यपाल का विधेयकों पर निर्णय लेना विधायी कार्य का हिस्सा है और वे विधेयकों को रोक सकते हैं यह उनका विवेकाधिकार है। मामले में बहस गुरुवार को भी जारी रहेगी जिसमें अन्य पक्षकार अपना पक्ष रखेंगे। सुप्रीम कोर्ट की पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ आजकल प्रेसीडेंशियल रिफरेंस पर सुनवाई कर रही है।
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने SC से मांगी राय
राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मु ने सुप्रीम कोर्ट को 14 संवैधानिक सवाल भेजकर राय मांगी है। राष्ट्रपति ने पूछा है कि जब संविधान में राज्यपाल और राष्ट्रपति के विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए कोई समय सीमा नहीं है तो क्या सुप्रीम कोर्ट समय सीमा तय कर सकता है। मामले पर सुनवाई प्रधान न्यायाधीश बीआर गवई, जस्टिस सूर्यकांत, विक्रमनाथ, पीएस नरसिम्हा और एस चंदुरकर की पीठ कर रही है।
आठ राज्य सरकारों ने रखा पक्ष
मंगलवार को आठ राज्य सरकारों की ओर से पक्ष रखा गया। मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, उड़ीसा, गोवा, हरियाणा, छत्तीसगढ़ और केंद्र शासित प्रदेश पुड्डूचेरी की ओर से पेश वरिष्ठ वकील एनके कौल, हरीश साल्वे, मनिंदर सिंह, केएम नटराज, विक्रमजीत बनर्जी, गुरु कृष्णकुमार, महेश जेठमलानी और विनय नवारे ने बहस की। महाराष्ट्र सरकार की ओर से पेश वरिष्ठ वकील हरीश साल्वे ने कहा कि विधेयकों को मंजूरी सिर्फ राज्यपाल या राष्ट्रपति ही दे सकते हैं। कोर्ट विधेयकों को मंजूरी नहीं दे सकता।
राज्यपाल और राष्ट्रपति अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं
साल्वे ने संविधान के अनुच्छेद 361 का हवाला देते हुए कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति अपने कर्तव्यों और शक्तियों के निर्वाहन के मामले में किसी भी अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं हैं। साल्वे ने कहा कि कोर्ट सिर्फ उनके निर्णय के बारे में पूछ सकता है वह विधेयकों के निर्णय के बारे में भी सिर्फ इतना पूछ सकता है कि आपका क्या निर्णय है लेकिन यह नहीं पूछ सकता कि आपने ये निर्णय क्यों लिया। राज्यपाल को पक्षकार बनाए बगैर और उनसे जवाब मांगे बगैर विधेयक को क्यों रोका गया इसकी सच्चाई नहीं जानी जा सकती और अनुच्छेद 361 के मुताबिक राज्यपाल और राष्ट्रपति किसी अदालत के प्रति जवाबदेह नहीं हैं।
विधेयकों पर निर्णय लेना राज्यपाल का विवेकाधिकार
उन्होंने कहा कि विधेयकों पर निर्णय लेना राज्यपाल का विवेकाधिकार है। इसकी न्यायिक समीक्षा नहीं हो सकती। उन्होंने यह भी कहा कि विधेयकों पर मंजूरी देना विधायी कार्य है। गोवा की ओर से पेश वरिष्ठ वकील विक्रमजीत बनर्जी ने कहा कि कानून बनने की प्रक्रिया विधेयक को राज्यपाल या राष्ट्रपति द्वारा मंजूरी देने पर ही पूरी होती है। ये प्रक्रिया राज्यपाल या राष्ट्रपति के विधेयक को मंजूरी देने से पहले पूरी नहीं होती ऐसे में कोर्ट द्वारा डीम्ड एसेंट (मंजूरी दिया जाना माना गया) की कोई संभावना ही नहीं है।
अन्य राज्यों की ओर से पेश वकीलों ने भी इस बात पर जोर दिया कि संविधान में जानबूझ कर राज्यपाल और राष्ट्रपति के लिए कोई समय सीमा नहीं रखी गई है और कोर्ट कोई समय सीमा नहीं तय कर सकता। हालांकि कोर्ट ने भी राज्यपाल द्वारा लंबे समय तक विधेयकों को दबाए रखने और चुने हुए प्रतिनिधियों द्वारा पारित विधेयकों पर निर्णय न लिये जाने से संबंधित सवाल किये।
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