'शरिया अदालतों का कोई कानूनी दर्जा नहीं', सुप्रीम कोर्ट ने तलाक मामले में महिला के पक्ष में सुनाया फैसला
सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया है कि शरीया कोर्ट काजी या दारुल कजा जैसे संस्थानों के फतवे या फैसलों की कोई कानूनी मान्यता नहीं है और वे बाध्यकारी नहीं हैं। यह टिप्पणी एक महिला की गुजारा भत्ते की याचिका पर सुनवाई के दौरान की गई। कोर्ट ने महिला को ₹4000 मासिक भत्ता देने का आदेश दिया और फैमिली कोर्ट की अनुमान आधारित टिप्पणियों को खारिज कर दिया।

जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक अहम फैसले में कहा है कि काजी, काजियात या शरिया कोर्ट की कोई कानूनी मान्यता नहीं है और इनके द्वारा दिए फतवा या आदेश किसी पर बाध्यकारी नहीं है और उसे लागू नहीं कराया जा सकता। यह बात कोर्ट ने 2014 में विश्व लोचन मदान मामले में में दिए गए फैसले को दोहराते हुए अपने ताजा आदेश में कही है। जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस अहसानुद्दीन अमानुल्लाह की पीठ ने एक महिला की भरण पोषण की याचिका स्वीकार करते हुए यह फैसला सुनाया है। कोर्ट ने महिला को चार हजार रुपये मासिक गुजारा भत्ता देने का आदेश दिया है।
सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट रुख
सुप्रीम कोर्ट ने विश्व लोचन मदान के फैसले में तय व्यवस्था को दोहराते हुए कहा कि काजी की अदालत, दारुल कजा या काजियात की अदालत अथवा शरीया कोर्ट किसी भी नाम से पुकारे जाने वाली इन अदालतों की कोई कानूनी मान्यता नहीं है। इनके द्वारा दिया गया आदेश कानून में लागू नहीं होता और न ही पक्षकारों पर बाध्यकारी होता है।
कोर्ट ने कहा कि इनका आदेश सिर्फ तभी कानूनी तौर पर जांचा परखा जा सकता है, जबकि प्रभावित पक्षकारों ने उस निर्णय को स्वीकार करते हुए उस पर अमल किया हो और उसमें किसी अन्य कानून का उल्लंघन न होता हो। इस पर भी वह निर्णय सिर्फ उन्हीं पक्षकारों पर वैध होगा, जिन्होंने उसे स्वीकार करके उस पर अमल किया होगा, तीसरे पक्ष पर वह निर्णय लागू नहीं होगा।
इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को दी चुनौती
इस मामले में याचिकाकर्ता महिला ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी जिसमें हाई कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा था। केस के मुताबिक, याचिकाकर्ता महिला की इस्लामी रीतिरिवाज से 24 सितंबर, 2002 को शादी हुई थी। पति-पत्नी दोनों की यह दूसरी शादी थी। 2005 में पति ने काजी की अदालत में महिला से तलाक का मुकदमा दाखिल किया जो दोनो के बीच समझौते के आधार पर खारिज हो गया।
पति की दूसरी कोशिश और महिला की याचिका
इसके बाद 2008 में पति ने फिर से दारुल कजा यानी काजियात की अदालत में तलाक का मुकदमा दायर किया। उसी साल पत्नी ने सीआरपीसी की धारा 125 के तहत फैमिली कोर्ट में याचिका दाखिल कर पति से गुजारा भत्ता दिलाने की मांग की, लेकिन फैमिली कोर्ट ने यह कहते हुए मना कर दिया कि यह दोनों की दूसरी शादी है और पत्नी अलग रहने के लिए स्वयं जिम्मेदार है। फैमिली कोर्ट के इस आदेश को महिला ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में चुनौती दिया, लेकिन हाईकोर्ट ने भी याचिका खारिज कर दी। इसके बाद महिला ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया।
सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी और फैसला
महिला ने भरण पोषण दिलाने की मांग करते हुए याचिका में आरोप लगाया था कि मोटरसाइकिल और 50,000 रुपये की मांग पूरी न करने के कारण पति ने उसके साथ क्रूरता की थी। इस मामले में फैमिली कोर्ट ने कहा था कि चूंकि यह दूसरी शादी थी, इसलिए पति के दहेज मांगने की संभावना नहीं है, वह अपना घर पुन: बसाने की कोशिश कर रहा था।
सुप्रीम कोर्ट ने फैमिली कोर्ट के फैसले पर सवाल उठाते हुए कहा कि इसने जो टिप्पणियां की हैं वह कानून में जानी पहचानी नहीं हैं, ये अनुमानों पर आधारित हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फैमिली कोर्ट यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकती कि दोनों की दूसरी शादी थी, इसलिए अनिवार्य रूप से दहेज की मांग नहीं होगी।
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