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    'विवाहित बेटी 'आश्रित मुआवजे' की पात्र नहीं, जब तक...', सुप्रीम कोर्ट ने कहा- देखभाल करना उनका दायित्व

    Updated: Mon, 19 May 2025 04:42 AM (IST)

    सुप्रीम कोर्ट ने मोटर वाहन अधिनियम पर एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि विवाहित बेटी आश्रित मुआवजा पाने की पात्र नहीं है जब तक वह साबित न कर दे कि वह मृतक पर आर्थिक रूप से निर्भर थी। कोर्ट ने बूढ़ी मां के मुआवजे को मंजूर करते हुए उसे बढ़ाकर 1922356 रुपये कर दिया। कोर्ट ने कहा कि बूढ़े माता-पिता की देखभाल करना बच्चों का कर्तव्य है।

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    सुप्रीम कोर्ट ने बूढ़ी मां का मुआवजा दावा खारिज करने का हाई कोर्ट का आदेश रद कर दिया।

    माला दीक्षित, जागरण, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने मोटर वाहन अधिनियम में आश्रित मुआवजा पाने के अधिकार पर अपने एक अहम फैसले में कहा है कि विवाहित पुत्री मोटर वेहिकल एक्ट के तहत आश्रित मुआवजा पाने की पात्र नहीं है, जब तक कि वह यह साबित न कर दे कि वह मरने वाले पर आर्थिक रूप से निर्भर थी।

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    हालांकि, कोर्ट ने माना है कि विवाहित बेटी को कानूनी प्रतिनिधि के रूप में विचार किया जा सकता है। इसके साथ ही, कोर्ट ने दुर्घटना में मां की मौत होने पर विवाहित बेटी का मुआवजा घटाकर 50000 रुपये करने और उसे आश्रित न मानने के हाई कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने बूढ़ी मां का मुआवजा दावा खारिज करने का हाई कोर्ट का आदेश रद कर दिया है और मां को मुआवजा देने का आदेश दिया है।

    माता-पिता की देखभाल को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने क्या कहा?

    सुप्रीम कोर्ट ने माता-पिता की देखभाल के बारे में कहा है कि बूढ़े माता-पिता की देखभाल बच्चों के लिए वैसा ही कर्तव्य है जैसे नाबालिगों की देखभाल करना माता-पिता का दायित्व होता है। सुप्रीम कोर्ट ने बूढ़ी मां के मुआवजे के दावे को न सिर्फ स्वीकार किया, बल्कि मुआवजे की कुल रकम भी 15,97,000 बढ़ा कर 19,22,356 रुपये कर दी। इस मामले में 55 वर्षीय महिला पारस शर्मा की 26 जनवरी, 2008 को सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी। उसकी विवाहित बेटी और साथ रह रही बूढ़ी मां दोनों ने मुआवजा दावा दाखिल किया था।

    सुप्रीम कोर्ट में यह फैसला न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और न्यायमूर्ति के. विनोद चंद्रन की पीठ ने गत 13 मई को सुनाया। इस मामले में विवाहित बेटी और बूढ़ी मां ने राजस्थान हाई कोर्ट के 14 मई, 2018 के आदेश को चुनौती दी थी।

    हाई कोर्ट ने विवाहित बेटी का मुआवजा घटा दिया था, जबकि बूढ़ी मां का मुआवजा दावा खारिज कर दिया था। हाई कोर्ट से पहले मोटर दुर्घटना ट्रिब्युनल ने दोनों के मुआवजा दावे स्वीकार करते हुए कुल 15,97,000 रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया था। ट्रिब्युनल ने माना था कि दोनों मृतक महिला के कानूनी वारिस हैं और कुछ हद तक उस पर आश्रित थे। ट्रिब्युनल ने 50 फीसद डिपेंन्डेंसी मानी थी। सुप्रीम कोर्ट के सामने विचार के लिए कानूनी सवाल था कि क्या याचिकाकर्ता (दोनों) ट्रिब्यूनल द्वारा आश्रित मान कर दिए गए मुआवजे के पात्र हैं क्योंकि दोनों का दावा था कि वे मृतक पर आश्रित थे।

    ससुराल और मायके की संपत्ति में बेटी का अधिकार कहां?

    इस मामले में दुर्घटना में जान गंवाने वाली पारस शर्मा की शादी हुई थी लेकिन बेटी (पहली दावाकर्ता) के जन्म के बाद ही उसके पति ने उसे छोड़ दिया था। उसके बाद उसकी मां (दूसरी दावाकर्ता) उसके साथ आकर रहने लगी। सुप्रीम कोर्ट ने फैसले में कहा कि जब एक बार बेटी की शादी हो जाती है तो सामान्य अनुमान यही होता है कि उसका अब अपने ससुराल पर अधिकार है और वह अब आर्थिक रूप से अपने पति पर आश्रित है या पति के परिवार पर निर्भर है, जबतक कि वह इससे इतर साबित न कर दे। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ज्यादातर यही समझा जाता है कि उसकी मायके पर या मां पर निर्भरता समाप्त हो गई है।

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि मोटर वाहन अधिनियम 1988 की धारा 166 और 168 में मृतक और दावाकर्ता के आर्थिक रिश्ते पर फोकस किया गया है। कोर्ट ने कहा कि विवाहित बेटी को मंजूरी बेरा फैसले (पूर्व फैसले) के मुताबिक कानूनी प्रतिनिधि माना जा सकता है, लेकिन वह आश्रित मुआवजा की पात्र नहीं होगी जबतक कि वह ये साबित न कर दे कि वह मरने वाले पर आर्थिक रूप से निर्भर थी। पीठ ने कहा कि रिकार्ड देखने से ये स्पष्ट है कि बेटी यह साबित करने में नाकाम रही कि वह शादी के बाद मां से आर्थिक सहारा पाती थी। इसलिए, उसे मां पर आश्रित नहीं कहा जा सकता।

    धारा 140 के तहत मुआवजा

    सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ऐसे में हाई कोर्ट का मंजूरी बेरा फैसले के आधार पर बेटी को मृतक का कानूनी प्रतिनिधि मानते हुए सिर्फ धारा 140 के तहत मुआवजा देना ठीक है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि आश्रित न होने पर भी इस धारा में उसका हक समाप्त नहीं होता। लेकिन मां का दावा खारिज करने के हाई कोर्ट के फैसले को गलत बताते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जब पारस शर्मा की मृत्यु हुई, उस समय उसकी मां 70 वर्ष थी और वह पूरी तरह बेटी पर निर्भर थी और उसके साथ रहती थी, उसकी कोई अलग से आय नहीं थी। इस बात का विरोध करने वाला कोई साक्ष्य रिकॉर्ड पर नहीं है।

    कोर्ट ने कहा कि बुढ़ापे में माता-पिता की देखभाल करना बच्चे का वैसा ही कर्तव्य है जैसे कि नाबालिग होने पर बच्चे की देखभाल करना माता-पिता का दायित्व होता है।

    कोर्ट ने कहा कि मां आश्रित है और बेटी की असमय मौत से उसके सामने कठिनाई हो सकती है। मां का दावा विवाहित बेटी के दावे से भिन्न है। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने मुआवजे की फिर से गणना करते हुए मुआवजा राशि बढ़ा कर 19,22,356 रुपये कर दी और मां को 19,22,356 रुपये मुआवजा देने का आदेश दिया है।

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