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सुप्रीम कोर्ट में नहीं चली अयोध्या पर राजनीति, 8 फरवरी को होगी अगली सुनवाई

सुप्रीम कोर्ट में अयोध्या मसले को लेकर सुनवाई टल गई है। 8 फरवरी 2018 को इस पर अगली सुनवाई होगी।

By Gunateet OjhaEdited By: Published: Mon, 04 Dec 2017 09:50 PM (IST)Updated: Tue, 05 Dec 2017 09:01 PM (IST)
सुप्रीम कोर्ट में नहीं चली अयोध्या पर राजनीति, 8 फरवरी को होगी अगली सुनवाई
सुप्रीम कोर्ट में नहीं चली अयोध्या पर राजनीति, 8 फरवरी को होगी अगली सुनवाई

माला दीक्षित, नई दिल्ली। अयोध्या राम जन्मभूमि विवाद पर सुनवाई के दौरान मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट में जोरदार हंगामा हुआ। सर्वोच्च अदालत में राजनीति का सुप्रीम मंजर दिखा। मुस्लिम पक्षकारों ने केस तैयार न होने के आधार पर सुनवाई का पुरजोर विरोध किया। मामले के राजनैतिक असर का हवाला देते हुए कहा कि ये सुनवाई का उचित समय नहीं है। आखिर इतनी जल्दबाजी क्या है?

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मामले में सुनवाई आम चुनाव के बाद जुलाई 2019 में होनी चाहिए। उनके वकीलों ने यहां तक विरोध किया कि अगर कोर्ट सुनवाई जारी रखेगा तो वे उसमें हिस्सा नहीं लेगें और अदालत कक्ष छोड़ कर चले जाएंगे। करीब दो घंटे तक शोरशराबा और बहस चलने के बाद कोर्ट ने सुनवाई टाल दी और दस्तावेजों का आदान-प्रदान पूरा होने के बाद मामला आठ फरवरी को फिर लगाने का आदेश दिया है।

सुप्रीम कोर्ट ने गत 11 अगस्त को ही अयोध्या मामले में अपीलों पर नियमित सुनवाई के लिए पांच दिसंबर की तिथि तय करते हुए कहा था कि दस्तावेजों का आदान-प्रदान पूरा कर लिया जाए इस आधार पर पांच दिसंबर की सुनवाई स्थगित नहीं की जाएगी। हाईकोर्ट ने अयोध्या में विवादित जमीन तीन बराबर हिस्सों में रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड में बांटने का आदेश दिया था। जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई है। मामले की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति अब्दुल नजीर की पीठ कर रही है।

मंगलवार को कोर्ट में धर्मनिरपेक्षता और साम्प्रदायिक सौहार्द का मुलम्मा चढ़ा कर राजनीतिक और धार्मिक आस्था को बढ़ावा देने वाली दलीलें दी जा रहीं थीं। कानून के दांव पेच पीछे थे मुकदमें की सुनवाई के राजनैतिक नफा नुकसान के आंकड़े आगे। मुस्लिम पक्षकारों की ओर से पेश वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल, राजीव धवन और दुष्यंत दवे ने सुनवाई रोकने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगाया। शुरुआत सिब्बल ने की। कहा केस अभी सुनवाई के लिए तैयार नहीं है। पूरे दस्तावेज भी दाखिल नहीं हुए हैं। हालांकि उत्तर प्रदेश की ओर से पेश एएसजी तुषार मेहता ने इसका विरोध करते हुए कहा कि सारे अनुवाद और दस्तावेज दाखिल हो गए हैं। सुनवाई रोकने के लिए ऐसी दलीलें नहीं दी जा सकती। सिब्बल ने विरोध जारी रखते हुए कहा ऐसे सुनवाई नहीं हो सकती। उन्हें हजारों दस्तावेज पढ़ने हैं उसके लिए चार महीने का समय मिलना चाहिए।

उन्होंने मामले को अति महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि इस केस का बहुत ज्यादा राजनैतिक असर है इसलिए कोर्ट को इस पर 15 जुलाई 2019 से सुनवाई शुरू करनी चाहिए। (यानि तबतक देश में आम चुनाव खत्म हो जाएगा) उन्होंने अपनी दलील पर जोर देने के लिए सुब्रमण्यम स्वामी के प्रधानमंत्री को लिखे पत्र जिसमें अयोध्या में मंदिर निर्माण पर भाजपा घोषणापत्र का जिक्र था और मोहन भागवत के 2018 में मंदिर निर्माण के मीडिया में आये बयान का हवाला दिया। दुष्यंत दवे ने भी घोषणापत्र की बात उठाई।

तुषार मेहता ने ऐसी दलीलों का विरोध करते हुए कहा कि यहां केस का राजनैतिककरण हो रहा है ये दलीलें ठीक नहीं है। रामलला के वकील सीएस वैद्यनाथन और हिन्दू पक्ष के वकील हरीश साल्वे का भी कहना था कि दूसरा पक्षकार कोर्ट में राजनैतिक भाषण दे रहा है। साल्वे ने कहा कि कोर्ट को यह नहीं बताया जा सकता कि उसकी सुनवाई का क्या राजनैतिक असर होगा। ये जमीन पर हक का मुकदमा है और अन्य मामलों की तरह ही सुना जाना चाहिए।

मुख्य न्यायाधीश के कार्यकाल में नहीं पूरी हो पाएगी सुनवाई

धवन ने मुख्य न्यायाधीश से कहा कि उनके कार्यकाल अक्टूबर 2018 तक सुनवाई पूरी नहीं हो पाएगी। इस दलील पर ऐतराज जताते हुए जस्टिस भूषण ने कहा कि ये कैसी बात है। हाईकोर्ट में 90 दिन में बहस पूरी हो सकती है और यहां अपील पर साल भर में भी सुनवाई नहीं हो पायेगी।

सिब्बल ने कहा न्याय होना ही जरूरी नहीं है बल्कि न्याय होते दिखना भी चाहिए। आखिर इस पर सुनवाई की इतनी जल्दी क्यों है। 7 साल से सुनवाई नहीं हुई तो अचानक केस कैसे लग गया। इस पर कोर्ट ने कहा कि 7 साल सुनवाई नहीं हुई तो क्या कभी शुरू नहीं होनी चाहिए। कोर्ट ने सुनवाई जारी रहने पर कोर्ट छोड़ कर जाने की वकीलों की धमकी पर ऐतराज जताया और अपने आदेश में इसे अचरज के साथ दर्ज भी किया।

क्या है इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला

28 साल सुनवाई के बाद इलाहाबाद हाईकोर्ट ने दो एक के बहुमत से 30 सितंबर, 2010 को जमीन को तीन बराबर हिस्सों रामलला विराजमान, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड में बांटने का फैसला सुनाया था। भगवान रामलला को वहीं हिस्सा दिया गया, जहां वे विराजमान हैं। हालांकि, हाई कोर्ट का फैसला किसी पक्षकार को मंजूर नहीं हुआ और सभी 13 पक्षकार सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। सुप्रीम कोर्ट ने मई 2011 को अपीलों को विचारार्थ स्वीकार करते हुए मामले में यथास्थिति कायम रखने का आदेश दिया था, जो यथावत लागू है।

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