तीन तलाक देने वाले कितने पुरुषों पर दर्ज हुई FIR? SC ने केंद्र सरकार से मांगे आंकड़े; जानिए कोर्ट में क्या-क्या हुआ
देश की शीर्ष अदालत में विभिन्न मुस्लिम व्यक्तियों एवं संगठनों की ओर से दायर करीब 12 याचिकाओं पर सुनवाई हो रही है। ये सुनवाई प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ कर रही है। बुधवार को अदालत ने केंद्र सरकार को तत्काल तीन तलाक देने वाले पुरुषों के विरुद्ध दर्ज एफआईआर एवं आरोप-पत्रों के आंकड़े प्रस्तुत करने का निर्देश दिया है।
पीटीआई, नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह मुस्लिम महिलाओं (विवाह में अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 का उल्लंघन करके अपनी पत्नियों को तत्काल तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) देने वाले पुरुषों के विरुद्ध दर्ज एफआईआर एवं आरोप-पत्रों (चार्जशीट) के आंकड़े प्रस्तुत करे।
अदालत ने कहा कि अब सभी राज्यों में एफआईआर केंद्रीयकृत हैं, हमें सिर्फ उसकी एक सूची दे दीजिए, जिसमें ग्रामीण इलाकों के आंकड़े भी शामिल हों। प्रधान न्यायाधीश संजीव खन्ना और जस्टिस संजय कुमार की पीठ विभिन्न मुस्लिम व्यक्तियों एवं संगठनों की ओर से दायर करीब 12 याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी।
अधिनियम को दी चुनौती
इसमें 2019 के अधिनियम की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है। इस अधिनियम के तहत तत्काल तीन तलाक को अपराध बनाया गया है। पीठ ने कहा कि पक्षकार भी अपने दावों के समर्थन में लिखित दलीलें दाखिल करेंगे, जो तीन पृष्ठों से अधिक की नहीं होंगी।
इसके बाद पीठ ने मामले को अंतिम सुनवाई के लिए 17 मार्च से शुरू होने वाले हफ्ते के लिए स्थगित कर दिया। कानूनी स्थिति का हवाला देते हुए पीठ ने कहा कि तत्काल तीन तलाक को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया था और विवाह समाप्त नहीं हो रहा था। अब मुद्दा तीन बार तलाक बोलने को अपराध बनाने का है।
कोर्ट में दोनों पक्षों की बहस
सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि किसी भी सभ्य समाज में ऐसी प्रथा नहीं है। पीठ ने कहा कि याचिकाकर्ता तत्काल तीन तलाक को वैध बनाने की मांग नहीं कर रहे हैं, बल्कि उसे अपराध बनाने का विरोध कर रहे हैं।
मेहता ने कानून का बचाव करते हुए कहा कि किसी भी गतिविधि को दंडात्मक बनाना विधायी नीति के अधिकार क्षेत्र में आता है। उन्होंने इस दलील का विरोध किया कि यह अधिनियम असमान दंड लगाता है और कहा कि कानून के तहत अधिकतम सजा तीन वर्ष है, जो महिला अधिकारों की रक्षा करने वाले अन्य कानूनों से कम है।
उन्होंने पाकिस्तान की प्रख्यात शायरा परवीन शाकिर की पंक्तियों को उद्धत किया, 'तलाक तो दे रहे हो इताब-ओ-कहर के साथ, मेरी जवानी भी लौटा तो मेरी महर के साथ।'
याचिकाकर्ता ने दी दलील
- याचिकाकर्ता के वकील निजाम पाशा ने कहा कि कानून सिर्फ तलाक शब्द कहने को दंडनीय अपराध बनाता है, जबकि किसी अन्य समुदाय में वैवाहिक विच्छेद के लिए इस तरह का कानूनी प्रावधान नहीं है।
- इस पर मेहता ने कहा कि किसी अन्य समुदाय में तत्काल तीन तलाक भी तो नहीं है। वरिष्ठ अधिवक्ता एमआर शमशाद ने कहा कि घरेलू हिंसा के वर्तमान कानूनों में वैवाहिक विवादों से निपटने के पर्याप्त प्रावधान हैं और अलग आपराधिक कानून अनावश्यक है।
- उन्होंने कहा कि वैवाहिक मामलों में अगर पत्नी पर शारीरिक हमला भी होता है, तो एफआईआर दर्ज होने में महीनों लगते हैं और यहां सिर्फ बोलने पर एफआईआर दर्ज हो जाती है।
धारा-506 का दिया हवाला
मेहता ने कहा कि अधिनियम कानूनी जवाबदेही के व्यापक सिद्धांत के मुताबिक है और आईपीसी की धारा-506 का हवाला दिया, जिसमें कुछ प्रकार की मौखिक धमकियों को दंडनीय बनाया गया है। उन्होंने कहा कि तत्काल तीन तलाक को अपराध बनाने से आवश्यक प्रतिरोधी उद्देश्य पूरा होता है।
उल्लेखनीय है कि 22 अगस्त, 2017 को एक ऐतिहासिक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने मुस्लिमों में प्रचलित 1,400 वर्ष पुरानी तत्काल तीन तलाक की प्रथा को गैरकानूनी करार दिया था एवं इसे कुरान के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध बताया था और कहा था कि यह इस्लामी कानून शरीयत का उल्लंघन करती है।
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