नई दिल्ली, अनुराग मिश्र। दिल्ली-एनसीआर समेत लगभग पूरे उत्तर भारत में इन दिनों घना कोहरा छा रहा है। हर साल दिसंबर और जनवरी में यह समस्या अधिक होती है। कोहरे के कारण आम जन-जीवन काफी प्रभावित होता है। आखिर इस इलाके में कोहरा इतना घना क्यों होता है? इसी सवाल का जवाब तलाशने के लिए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मद्रास के शोधकर्ताओं के नेतृत्व में एक अध्ययन किया गया। इसमें पता चला कि दिल्ली समेत पूरे उत्तर भारत में कोहरे और धुंध की मुख्य वजह पार्टिकुलेट मैटर (पीएम) में क्लोराइड की अधिक मात्रा है। प्लास्टिक कचरा इसका एक प्रमुख स्रोत है।

यह अध्ययन प्रतिष्ठित पीयर-रिव्यू इंटरनेशनल जर्नल नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित किया गया है। इसमें जर्मनी की मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर केमिस्ट्री, अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी तथा इंग्लैंड की मैनचेस्टर यूनिवर्सिटी का सहयोग रहा है।

धुंध में पीएम 2.5 की भूमिका

पिछले कई अध्ययनों में प्रदूषण के लिए पीएम 2.5 (2.5 माइक्रोमीटर से कम व्यास वाले पार्टिकुलेट मैटर या एयरोसोल) को सबसे अधिक जिम्मेदार माना गया है। लेकिन उन अध्ययनों में दिल्ली में धुंध और कोहरा छाने के विस्तृत रासायनिक विवरण और पीएम 2.5 की भूमिका स्पष्ट नहीं हो पाई थी। यह कमी हवा की गुणवत्ता और दृश्यता में सुधार की कारगर नीतियां बनाने में सबसे बड़ी बाधा थी।

इस अध्ययन से पता चला कि दिल्ली में पीएम 2.5 की मात्रा में उच्च क्लोराइड का स्रोत क्या है। यह भी कि धुंध और कोहरा बनने और दृश्यता में कमी में इसकी कितनी भूमिका है। इससे कोहरा बनने की रासायनिक प्रक्रिया में पीएम 2.5 की सटीक भूमिका के बारे में पता चलता है। इससे नीति निर्माताओं को हवा की गुणवत्ता और दृश्यता में सुधार की बेहतर नीतियां बनाने में मदद मिलेगी।

क्लोराइड की अधिकता

अध्ययन बताता है कि पीएम 2.5 की अधिक मात्रा और परिणामस्वरूप जाड़े की ठंडी रातों में दिल्ली में धुंध और कोहरा बनने की मुख्य वजह हाइड्रोक्लोरिक एसिड (एचसीएल) की रासायनिक प्रतिक्रियाएं हैं। यह एसिड प्लास्टिक युक्त कचरा जलने और कुछ औद्योगिक प्रक्रियाओं से सीधे वातावरण में उत्सर्जित होता है। हालांकि इससे पूर्व भी शोधकर्ताओं ने पीएम 2.5 में क्लोराइड की अधिक मात्रा का अवलोकन किया था, पर क्लोराइड की अधिकता के संभावित स्रोत क्या हैं और क्या यह धुंध और कोहरा बनने के लिए जिम्मेदार है, यह स्पष्ट नहीं था।

इस तरह किया गया अध्ययन

वैज्ञानिकों और शोधार्थियों ने दिल्ली में पीएम 2.5 की रासायनिक संरचना और अन्य महत्वपूर्ण गुणों के साथ दिल्ली की सापेक्ष आर्द्रता और तापमान को मापने के लिए अत्याधुनिक उपकरण लगाए। उन उपकरणों को एक महीने तक चौबीसों घंटे अत्यंत सावधानी और विशिष्ट विशेषज्ञता के साथ संचालित किया गया। इससे मिले निष्कर्ष शोधकर्ताओं के लिए आश्चर्यजनक थे। उन्हें पता चला कि पीएम 2.5 में क्लोराइड की अधिकता ही दिल्ली में धुंध और कोहरा बनने में मुख्य वजह है।

क्यों कम हो जाती है विजिबिलिटी

अध्ययन का नेतृत्व करने वाले डा. सचिन एस. गुंथे ने कहा, अध्ययन के दौरान एक बड़ा प्रश्न यह सामने आया कि दिल्ली में पीएम 2.5 की मात्रा बीजिंग की तुलना में बहुत कम है, इसके बावजूद यहां में दृश्यता में इतनी कमी क्यों आती है? डॉ. सचिन के अनुसार, हमने महसूस किया कि दिल्ली पर पीएम 2.5 का कुल बोझ बीजिंग समेत दुनिया के अन्य प्रदूषित महानगरों की तुलना में बहुत कम है। दिल्ली और इसके आसपास दृश्यता में कमी की वजह ‘एचसीएल’ का स्थानीय उत्सर्जन है। यह उत्सर्जन प्लास्टिकयुक्त कचरा जलाने और अन्य औद्योगिक प्रक्रियाओं से होता है।

आईआईटी मद्रास में केमिकल इंजीनियरिंग विभाग के प्रो. आर. रविकृष्ण ने कहा कि शुरू के कुछ दिनों के परिणाम देखने के बाद यह स्पष्ट हो गया कि दिल्ली का मामला अलग है। दिल्ली जैसे प्रदूषित शहरों में आम तौर पर यही अनुमान लगाया जाता है कि पार्टिकुलेट मैटर का सबसे बड़ा अकार्बनिक अंश सल्फेट होगा, जबकि हमने पाया कि सबसे अधिक अकार्बनिक अंश क्लोराइड का था।

कोहरा घना बनने की प्रक्रिया

इस इलाके में एचसीएल के अलावा अमोनिया का भी विभिन्न स्रोतों से उत्सर्जन होता है। दोनों मिलकर अमोनियम क्लोराइड (एनएच4सीएल) बनाते हैं। इसके संघनित होने से एयरोसोल बनते हैं। एयरोसोल कणों में जल ग्रहण करने की क्षमता बहुत होती है। इनका आकार बढ़ने के परिणामस्वरूप कोहरा घना हो जाता है। अगर क्लोराइड की मात्रा अधिक ना हो तो कोहरा भी घना नहीं होगा। एयरोसोल कणों के जल ग्रहण करने के गुण को समझना महत्वपूर्ण है क्योंकि इसका पूरे क्षेत्र की दृश्यता पर बुरा असर पड़ता है।

प्लास्टिक जलने से वातावरण में विषैला उत्सर्जन न केवल मानव स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है, बल्कि पहली बार इस उत्सर्जन को दृश्यता और जलवायु से जोड़ कर देखा गया है। डॉ. सचिन गुंथे ने कहा, “हम प्लास्टिक के जलने को दृश्यता में कमी की बड़ी वजह मानते हैं। प्लास्टिक और क्लोरीन के स्रोतों को खुले में जलाने से रोकने के नियम पहले से मौजूद हैं। उम्मीद है कि हमारे शोध के निष्कर्षों से नीति निर्माताओं को उन नियमों को बेहतर तरीके से लागू करने में मदद मिलेगी।”