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इंजीनियर साइमा को मिट्टी के बर्तनों ने दी नई पहचान, अब बनी हैं श्रीनगर की उम्‍मीद

साइमा पेशे इंजीनियर हैं लेकिन अब वो अपने मिट्टी के बर्तनों की वजह से पहचानी जाती हैं। उन्‍होंने न सिर्फ इस कला को बखूबी निखारा है बल्कि अब वो एक नई उम्‍मीद भी बन गई हैं।

By Kamal VermaEdited By: Published: Thu, 02 Jan 2020 10:56 AM (IST)Updated: Thu, 02 Jan 2020 10:56 AM (IST)
इंजीनियर साइमा को मिट्टी के बर्तनों ने दी नई पहचान, अब बनी हैं श्रीनगर की उम्‍मीद
इंजीनियर साइमा को मिट्टी के बर्तनों ने दी नई पहचान, अब बनी हैं श्रीनगर की उम्‍मीद

श्रीनगर [राजिया नूर]। श्रीनगर की साइमा शफी पेशे से सरकारी जूनियर इंजीनियर (जेई) है। कुछ समय पहले परिवार के साथ चंडीगढ़ घूमने गई थी तो वहां ब्रांडेड शोरूमों में मिट्टी के आकर्षक बर्तन देखे। दाम हजारों में थे। तब उसे कश्मीर के क्राल समुदाय का खयाल आया। ये समुदाय हजारों वर्षों से मिट्टी के बर्तन बनाता रहा है, लेकिन इनकी कला आधुनिकता के दौर में दम तोड़ गई। कश्मीर वापसी के बाद बेंगलुरु जाकर साइमा ने खुद मिट्टी के बर्तनों को मॉर्डन लुक बनाना सीखा। अब कश्मीर में वह क्राल समुदाय को यह कला निश्शुल्क सिखा रही हैं। तीन सौ से अधिक लोग इस कला को सीख चुके हैं। 

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देश-विदेश में की जा रही पसंद

नए रूप में सामने आ रही इनकी कला को देश-विदेश में पसंद किया जा रहा है। पुरातत्व विभाग के विशेषज्ञों के मुताबिक वादी में मिट्टी के बर्तन बनाने की कला का इतिहास 3000 ईसा पूर्व पीछे तक जाता है। विशेषज्ञों को श्रीनगर से सटे बुजहामा में खोदाई में मिले मिट्टी के विभिन्न बर्तन इस बात पर मुहर लगाते हैं। पुलवामा जिले के गुफक्राल इलाके (गुफा कश्मीरी में गुफा तथा क्राल कश्मीरी में मिट्टी की वस्तुएं बनाने वाले लोग) में प्राचीन गुफाएं हैं। कश्मीर में क्राल समुदाय की आबादी का पुख्ता आंकड़ा पता नहीं है, लेकिन दावा है कि इनकी आबादी डेढ़ लाख से अधिक है।

हो रही लोकप्रिय 

कई दशकों से कश्मीर में मिट्टी की वस्तुएं लोकप्रिय रही हैं। क्राल समुदाय बर्तन बनाकर भरण पोषण करते थे। पूजा में कश्मीरी पंडित मिट्टी के बर्तन इस्तेमाल करते थे। वर्ष 1989 में आतंकवाद के चलते पंडितों के सामूहिक पलायन से प्राचीन कला को भी धक्का लगा। रही सही कसर प्लास्टिक, स्टील, नान स्टिक कुकवेयर, ग्लावेयर ने पूरी कर दी।

साइमा के कारण उम्मीद जगी

बड़गाम के चरारे शरीफ इलाके के 57 वर्षीय अब्दुल रहमान ने कहा कि कई वर्षों पहले हमारे काम की बड़ी मांग थी। घर के सभी सदस्य इस काम में जुटे रहते थे। साइमा के कारण फिर उम्मीद जगी है कि हमारा यह काम फिर से रफ्तार पकड़ लेगा। मिट्टी के बर्तनों पर मॉडर्न टच लोग पसंद कर रहे हैं। अब खूब कमाई हो रही है। गांदरबल के वाकूरा के मुहम्मद सुभान ने कहा कि साइमा के कारण लोग हमारी कला के बारे में जानने लगे हैं। मुझे केवल माता क्षीर भवानी मेले पर मिट्टी के दीये बनाने का काम मिलता था। अब मुझे विभिन्न वस्तुओं विशेषकर खाने के बर्तनों और मिट्टी के दीये बनाने के बड़े आर्डर मिल रहे हैं। उन्हें पिछले साल माता क्षीर भवानी मेले पर पांच लाख दीये बनाने का आर्डर भी मिला था।

बेंगलुरू से सीखी कला

श्रीनगर के डाउन टाउन सफाकदल के की 28 वर्षीय साइमा शफी बताती हैं कि उन्होंने पोटरी (मिट्टी से वस्तुएं बनाने की कला) का कोर्स करने की सोची। वह तीन महीने की छुट्टी लेकर बेंगलुरू में क्ले स्टूडियो में कला सीखने चली गईं। वापस आकर घर में क्ले स्टूडियो खोला। मिट्टी के बर्तनों को मॉडर्न टच देने का हुनर सीखने के लिए क्राल समुदाय के लोगों के साथ स्थानीय युवा आने लगे हैं। साइमा कहती हैं कि दफ्तर से वापसी पर और छुट्टी का पूरा दिन वह क्ले स्टूडियो में गुजारती हैं। मैंने उन्हें समझाया कि यदि हम इस काम में आधुनिकता लाएं तो आपका हुनर और निखरेगा...।

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